पहले दान, फिर मतदान !

लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी पारदर्शिता और जनता की विश्वसनीय भागीदारी होती है। परंतु जब चुनाव प्रक्रिया में “दान” या आर्थिक लेन-देन जैसी प्रवृत्तियाँ प्राथमिकता बनने लगती हैं, तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारा लोकतंत्र वास्तविक जनसहभागिता के आधार पर खड़ा है या आर्थिक प्रभावों के सहारे चल रहा है। “पहले दान, फिर मतदान” की सोच न केवल चिंता पैदा करती है, बल्कि यह संकेत भी देती है कि चुनावी व्यवस्था के मूल चरित्र को बदलने की कोशिशें चल रही हैं।

चुनाव आयोग ने लगातार पारदर्शिता बढ़ाने पर बल दिया है, लेकिन राजनीतिक दलों की फंडिंग को लेकर अभी भी कई बुनियादी सवाल खड़े हैं। अगर मतदाता से पहले दान की अपेक्षा रखी जाती है, चाहे वह समाजसेवा के नाम पर हो या किसी राजनीतिक दल के कार्यक्रम के माध्यम से, तब यह लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध जाता है। वोट किसी का उपकार चुकाने का माध्यम नहीं, बल्कि नागरिक अधिकार और कर्तव्य है, जिसे किसी भी तरह के दबाव, प्रलोभन या आर्थिक कड़ी से जोड़ना लोकतंत्र के लिए खतरनाक मिसाल बन सकता है।

अक्सर देखा गया है कि चुनावी मौसम में कई संस्थाएं, संगठन और राजनीतिक इकाइयाँ “दान” की अपील करते हैं। कई बार इसे विकास कार्यों से जोड़कर प्रस्तुत किया जाता है, ताकि जनता इसे सकारात्मक दान समझे। लेकिन जब यह दान अप्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं पर नैतिक दबाव बनाता है कि वे मतदान के समय एक विशेष तरफ झुकें, तब यह लोकतांत्रिक संतुलन को बिगाड़ देता है। मतदाता का मन स्वतंत्र होना चाहिए न किसी लालच से बंधा, न किसी दबाव से झुका।

देश के चुनावी ढांचे में सुधार की जरूरत है, जिससे राजनीतिक फंडिंग को पूर्ण पारदर्शिता के साथ जनता के सामने रखा जा सके। अगर दान की संस्कृति को पूरी तरह समाप्त करना संभव न भी हो, तो कम से कम यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसका मतदाता की स्वतंत्र इच्छा पर कोई प्रभाव न पड़े।

“पहले दान, फिर मतदान” की यह प्रवृत्ति लोकतंत्र को उस दिशा में धकेलती है, जहां वोट की ताकत कमजोर होती है और पैसों की ताकत बढ़ती है। यह न केवल राजनीति को साखहीन बनाता है, बल्कि जनता की नीयत और लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया को भी दूषित करता है। लोकतंत्र तभी स्वस्थ रह सकता है, जब मतदाता बिना किसी दबाव, भय या वित्तीय संबंध के मतदान करे पूरी तरह स्वतंत्र होकर, अपनी समझ और विवेक से।

आज जब देश सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, तब ऐसे मॉडल और आदतों को चुनौती देना आवश्यक है। असली लोकतंत्र वही है, जहां मतदान पहले आता है—दान या किसी भी तरह का आर्थिक समीकरण बाद में नहीं, बल्कि बिल्कुल बाहर रहना चाहिए।

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