विनोद कुमार झा
बरसात की आख़िरी बूँदें अब थम चुकी थीं। आसमान के किनारों पर कहीं-कहीं धूप की लकीरें उतर आई थीं, लेकिन राधा के मन में जैसे अब भी घटाएं छाई थीं। अंगना में तुलसी चौरा के पास रखी दीया की लौ जल-बुझ रही थी। दशहरा बीत गया, रावण जल चुका, शहर के कोने-कोने में जय श्रीराम के जयघोष गूंज चुके, लेकिन उसका अपना “राम” अब तक नहीं लौटा था।
रावण दहन के बाद का सन्नाटा : हर साल दशहरा के दिन राधा अपने पति मोहन के साथ रावण दहन देखने जाती थी।गाँव के मैदान में भीड़ होती, बच्चे तालियाँ बजाते, और जब रावण का पुतला जलता, तो मोहन धीरे से उसके कान में कहता। “देखो राधा, बुराई कितनी बड़ी हो जाए, अंत उसका यही होता है।” राधा मुस्कुराती, उसके कंधे पर सिर रख देती।लेकिन इस साल मैदान सजा जरूर था, मोहन नहीं था। वह परदेश गया था मुम्बई कमाने।
पहले बोला था, “बस दशहरे से पहले लौट आऊंगा, तेरे साथ रावण दहन देखूंगा।”लेकिन... फिर फोन आया, “काम बहुत बढ़ गया है, दीपावली तक जरूर आऊंगा।”राधा के चेहरे पर फीकी मुस्कान आई थी उस वक्त, लेकिन आंखों में उम्मीद की लौ जल उठी थी। सोचा कोई बात नहीं, दीपावली पर आएंगे तो घर रोशनी से भर जाएगा।
दीपावली के दिए जो जल न सके : दिन बीते, हफ्ता बीता।बाजार में मिठाई की खुशबू फैलने लगी। हर घर में दीप सफाई और सजावट चल रही थी। राधा भी हर रोज आंगन झाड़ती, दीवारों पर गेरू-पोती लगाती। मोहन के पसंदीदा लड्डू बनाने की तैयारी में जुट जाती लेकिन जैसे-जैसे दीपावली करीब आई, मोहन का फोन आना कम होता गया। पहले रोज शाम को वीडियो कॉल करता था। अब दो दिन में एक बार छोटी सी बात “नेटवर्क नहीं था, काम में फंसा हूँ।”“भेज दूँ क्या पैसे? कुछ चाहिए?”
राधा हर बार कहती , “पैसे नहीं चाहिए, बस तुम आ जाओ।”पर फोन कट जाता। दीपावली की रात आई। पूरा गांव रोशनी में नहाया था। राधा ने भी दीये सजाए, लेकिन उसके दीयों की लौ कुछ फीकी थी। हर दीये में उसे मोहन का चेहरा दिख रहा था। वीडियो कॉल पर मुस्कुराता मोहन बोला ,“देखो, मैं भी यहाँ दिए जला रहा हूँ।” राधा ने मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन आंखों में आंसू थे। “पास की बात ही कुछ और होती है मोहन...” उसने धीरे से कहा,पर आवाज फोन के पार नहीं गई नेटवर्क टूट गया था।
छठ का सूरज, अधूरा अर्घ्य : दीपावली बीत गई। अब छठ पूजा की तैयारियां चल रही थीं। छठ राधा के लिए सिर्फ पर्व नहीं था वह तो आस्था का ऐसा दिन था जब वह हर साल अपने पति की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती थी। वह घाट पर जाती, मोहन उसके साथ रहता। सुबह की लालिमा में जब सूरज उगता, तो दोनों एक साथ “ऊग हे सूरज देव” गाते। पर इस बार घाट पर राधा अकेली थी। आसपास महिलाएं हँसती, गीत गातीं, उनके पतियों ने सिर पर टोकरी थामी हुई थी, लेकिन राधा के सिर पर टोकरी खुद थी, और आँचल में आंसू छुपे थे।
जल में झांकते हुए उसने सूरज को देखा,फिर अपने हाथों से पानी अर्पित किया और मन ही मन कहा ,“हे सूर्य देव, मेरे परदेशी को स्वस्थ रखना। चाहे वो न आए, बस उसे सकुशल रखना।” पानी में झलकते सूर्य के साथ उसे मोहन का चेहरा दिखा धुंधला, पर अपना।
अधूरी मुस्कान : भैया दूज के दिन भाई घर आया था। भाभी ने दरवाज़े पर आरती की थाली रखी, और जब भाई ने पूछा , “दीदी, जीजा जी नहीं आए?”तो राधा ने मुस्कुरा कर कहा, “बस, आएंगे... अगले महीने।”लेकिन भीतर का मन जानता था अब वह इंतजार की आदत डाल चुकी है। मोहन अब केवल फोन की स्क्रीन में था।
वीडियो कॉल के पार से कहता , “अगले महीने छुट्टी मिल जाएगी राधा, तब पक्का आऊंगा।”और राधा वही पुराना वाक्य दोहराती ,“बस जल्दी आ जाना। बरसात की बूँदों के साथ मेरी उम्मीद भी खत्म होती जा रही है।”
उम्मीद की आखिरी लौ : रात गहरी हो चली थी। राधा ने तुलसी चौरा पर दिया रखा। हवा से लौ डगमगाई, उसने हथेली से उसे बचा लिया। धीरे से बोली, “जब तक यह लौ जलती है, मैं उम्मीद रखूंगी।”आकाश में चाँद मुस्कुरा रहा था। फोन की घंटी बजी।मोहन का वीडियो कॉल था। “राधा, टिकट मिल गई है। मैं अगले हफ्ते आ रहा हूँ।”राधा की आँखों में चमक लौट आई।उसने आसमान की ओर देखा, और दीये के पास धीरे से कहा,“देखो मां, मेरा परदेशी प्रीतम अब घर आ रहा है।”दीया की लौ स्थिर हो गई जैसे खुद भगवान ने उसकी प्रतीक्षा स्वीकार कर ली हो।
हर पर्व बीत गया,लेकिन राधा के मन में जो दीप जला,वह कभी बुझा नहीं क्योंकि इंतजार सिर्फ आने की चाह नहीं होता, वह प्रेम का सबसे गहरा रूप होता है, जहां हर कॉल की आवाज़,हर बरसात की बूँद, और हर जलता दिया एक ही नाम पुकारता है “परदेशी प्रीतम।”