राजेंद्र बहादुर सिंह
अगले सप्ताह होने जा रहा उपराष्ट्रपति का उपचुनाव तय करेगा कि 2 माह बाद बिहार विधानसभा के चुनाव और 2027 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा एवं 2029 के लोक सभा चुनाव में विभिन्न दलों अथवा गठबंधनों की क्या स्थति रहेगी। न सिर्फ राजनीतिक दलों के लिए यह चुनाव महत्वपूर्ण माना जा रहा है, बल्कि देश के कुछ बड़े नेता जैसे ममता बनर्जी, लालू यादव, नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक भविष्य के संकेत इस राष्ट्रपति के चुनाव से स्पष्ट दिखना शुरू हो जाएंगे ।
उपराष्ट्रपति चुनाव 2025 में भारत का विपक्ष एकजुट नजर आ रहा है, लेकिन उसकी यह एकता लंबी दूरी तय कर पाएगी या फिर बड़े नेता अलग राह चुनेंगे, यह सवाल सबसे ज्यादा चर्चा में है। यह चुनाव विपक्षी राजनीति की 'अग्निपरीक्षा' बन गया है, और इसका असर आगामी लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की दिशा तय करेगा।
उपराष्ट्रपति चुनाव ने विपक्षी दलों, खासतौर पर इंडिया ब्लॉक को एक मंच पर ला दिया है। सुदर्शन रेड्डी को विपक्ष का साझा उम्मीदवार घोषित किया गया, जिसमें तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टी भी शामिल हुई, जिसने 2022 में चुनाव का बहिष्कार किया था लेकिन इस एकता के भीतर दरारें और वैचारिक मतभेद भी तेज हो रहे हैं। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी जैसी पार्टियाँ मुद्दों पर समर्थन देती जरूर दिख रही हैं, पर तकनीकी तौर पर गठबंधन से स्वयं को अलग रखती रही हैं। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच दूरी कभी घटती है, कभी बढ़ती है। इसके अलावा सीट शेयरिंग और रणनीतिक मसलों पर भी मतभेद हैं।
बड़े विपक्षी नेता जैसे ममता बनर्जी, लालू यादव, केजरीवाल या अखिलेश यादव अपना अगला कदम स्पष्ट करने से बच रहे हैं, जिससे आगामी रणनीति और नेतृत्व को लेकर असमंजस की स्थिति है। ममता बनर्जी कभी गठबंधन में नेतृत्व का दावा करती हैं, तो कभी बाहर से समर्थन देने की बात करती हैं। लालू यादव ने ममता को गठबंधन प्रमुख बनाए जाने की वकालत की, जिससे कांग्रेस दरकिनार होती दिखी।
मीडिया के ताजा सर्वे बताते हैं कि बीजेपी अपनी सीटें जरूर खो रही है, लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन अब भी सबसे बड़ी शक्ति है और बहुमत के आसपास बनी हुई है। दो बड़े राष्ट्रीय सर्वे में अगस्त 2025 तक भारतीय जनता पार्टी की सीटें गिरकर 260 के करीब आ गई हैं, तो कांग्रेस व विपक्षी गठबंधन कुछ मजबूती हासिल कर रहा है, पर बहुमत के लिए संघर्ष जारी है। मोदी अब भी प्रधानमंत्री के तौर पर जनता की पहली पसंद हैं, जबकि राहुल गांधी को दूसरा स्थान मिला है। मोदी के अलावा अन्य विकल्प की लगातार तलाश हो रही है। अमित शाह व योगी आदित्यनाथ के नाम आगे आते हैं, लेकिन वह प्रभाव या स्वीकार्यता नहीं बन पा रही है।
अभी विपक्षी दलों की एकता भले चुनावी रणनीति और उम्मीदवार चयन में सफल रही हो, असली परीक्षा आगे लोकसभा व विधानसभा चुनाव में होगी। यदि विपक्ष मौजूदा समन्वय और एकजुटता को बनाए रखने में कामयाब होता है, तो चुनावी नतीजों में बदलाव संभव है लेकिन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, क्षेत्रीय स्वार्थ, और नेतृत्व विवाद यदि हावी रहे, तो विपक्ष को बिखरना तय है।
उपराष्ट्रपति चुनाव सिर्फ एक पद के लिए नहीं, बल्कि विपक्ष की असली ताकत और उसकी परिपक्वता का परीक्षण है। इसकी सफलता या विफलता भारत की लोकतांत्रिक राजनीति को अगले कुछ वर्षों तक दिशा देने वाली है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई समाचार पत्रों के संपादक रहे हैं।)