मतदाता सूची पर सवाल: लोकतंत्र की नब्ज़ से खिलवाड़ नहीं

बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर उठी हलचल अब सियासी रणभूमि में बदल चुकी है। महागठबंधन मतदाता अधिकार यात्रा निकाल रहा है तो वहीं चुनाव आयोग ने विपक्षी आरोपों को न केवल खारिज किया, बल्कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी का नाम लिए बिना उन्हें चेतावनी तक दे डाली या तो सबूत पेश करो, या देश से माफी मांगो।

यह बयान अपने आप में असाधारण है। सामान्यतः चुनाव आयोग संतुलित भाषा में जवाब देता है, लेकिन इस बार मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने जिस सख्ती से मोर्चा लिया है, वह दर्शाता है कि आयोग अपने फैसले को लेकर पूरी तरह आत्मविश्वास से भरा है। सवाल यह है कि क्या केवल आत्मविश्वास पर्याप्त है, या जनता के मन में उठ रही आशंकाओं को दूर करने के लिए और ठोस पारदर्शिता जरूरी है?

वोटर लिस्ट लोकतंत्र की रीढ़ है। जिस पर जरा भी संदेह हो, लोकतंत्र की विश्वसनीयता हिल जाती है। विपक्ष ने गंभीर सवाल उठाए डुप्लीकेट एपिक नंबर, शून्य पते वाले मतदाता और कैमरा फुटेज छिपाने के आरोप। आयोग ने हर बिंदु पर जवाब दिया। घरविहीन नागरिकों के पते में शून्य अंक, निजता की रक्षा के लिए फुटेज न देना और तकनीकी कारणों से डुप्लीकेट नंबर यह तर्क कागज पर भले मजबूत लगें, पर जनता की शंका केवल तकनीकी जवाबों से नहीं मिटती।

लोकतंत्र सिर्फ सही प्रक्रिया नहीं, बल्कि भरोसे की भावना भी है। अगर मतदाता को लगे कि सूची से उसका नाम गायब हो सकता है, या किसी का नाम दो जगह दर्ज है, तो यह चुनाव की साख पर सीधा हमला है। आयोग का दायित्व है कि वह केवल कानून का हवाला देकर न रुके, बल्कि जनता के सामने ठोस प्रमाण और डेटा प्रस्तुत कर शंकाओं की जड़ काटे। सुप्रीम कोर्ट ने निजता का हवाला दिया है, लेकिन पारदर्शिता और गोपनीयता के बीच संतुलन साधना भी चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है।

सच यह है कि आज विपक्ष और सत्ता, दोनों ही मतदाता सूची को अपने-अपने चश्मे से देख रहे हैं। सत्ता को लगता है सब कुछ ठीक है, विपक्ष को लगता है धांधली हो रही है। लेकिन इस खींचतान में सबसे बड़ा नुकसान लोकतंत्र का है। चुनाव आयोग को यह समझना होगा कि उसकी असली ताकत केवल संवैधानिक अधिकार नहीं, बल्कि जनता का विश्वास है। और विश्वास केवल तब पैदा होगा जब मतदाता सूची से जुड़े हर संदेह का समाधान निडर पारदर्शिता के साथ किया जाएगा।

मतदाता सूची का सवाल सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है, यह पूरे देश की लोकतांत्रिक नब्ज़ से जुड़ा प्रश्न है। अगर इस पर बार-बार संदेह उठेगा, तो लोकतंत्र की नींव हिल जाएगी। यह समय है कि आयोग राजनीति की तलवारबाजी में न फंसे और अपने काम को इस तरह पेश करे कि कोई भी दल या मतदाता सवाल खड़ा करने की गुंजाइश ही न पाए। यही उसकी असली परीक्षा है।

- संपादक

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