-सच्चा प्रेम कभी #ख़त्म नहीं होता, वह स्मृतियों, #आँगन की दीवारों और हृदय की धड़कनों में हमेशा जिंदा रहता है
लेखक : विनोद कुमार झा
गाँव की पगडंडी पर धूल उड़ रही थी। बैलों की गाड़ियों की चरमराहट और कहीं दूर से आती बांसुरी की धुन वातावरण में बसी थी। मिट्टी की सोंधी गंध बारिश के बाद जैसे पूरे गाँव में महक रही थी। मगर चौधरी रामखेलावन के पुराने घर का आँगन #अजीब-सी चुप्पी में डूबा हुआ था। उस आँगन की चौखट पर बैठी सीता की आँखें आज भी उसी रास्ते की ओर ताक रही थीं, जहाँ से कभी उसके साजन, #रामधनी, हँसते-मुस्कुराते लौटते थे।
वह आँगन कभी गाँव का सबसे चहल-पहल वाला आँगन था। सुबह होते ही तुलसी के चौरे पर दिया जलता, #रामधनी अपने हल-बैल लेकर खेतों की ओर निकल जाते और सीता घर के काम सँभालती। #शाम ढलते ही पड़ोस की औरतें आकर आँगन में बतियातीं, बच्चे खेलते, और साजन की हँसी की गूँज सीता के कानों में रस घोल देती। लेकिन अब वही आँगन, वही चौरा, वही नीम का पेड़, सब कुछ सूना-सूना लगने लगा था।
रामधनी और सीता का विवाह पूरे गाँव में चर्चा का विषय रहा था। दोनों की जोड़ी को लोग लक्ष्मी-नारायण की जोड़ी कहते थे। रामधनी गाँव के #सीधे-सादे मगर हँसमुख नौजवान थे। उनकी बातों में मिठास थी और चेहरे पर मासूमियत। सीता भी भोली-भाली, #साँवली सी, मगर उसके चेहरे पर गजब की आभा थी।
शादी के बाद जब पहली बार सीता अपने ससुराल आई, तो आँगन में दीपों की कतारें जली थीं। गाँव की औरतें मंगलगीत गा रही थीं, और रामधनी चुपचाप #सीता को निहारते जा रहे थे। उस दिन आँगन का #हर कोना जैसे प्रेम से भर गया था। नीम की छाँव तले दोनों ने पहली बार आँखों से दिल की बातें कही थीं।
समय बीतने लगा। सरसों के खेतों की पीली चादर के बीच जब रामधनी सीता को संग लेकर जाते, तो लगता मानो पूरा गाँव उनकी हँसी में शामिल हो गया हो। आम के बगीचे में झूला डालकर, जब वे दोनों सावन की बूँदों में भीगते, तो आँगन की मिट्टी भी उनकी खुशबू में महकने लगती।
लेकिन जीवन हमेशा एक जैसा नहीं रहता। एक दिन अचानक गाँव में महामारी फैली। पहले कुछ लोग बीमार पड़े, फिर धीरे-धीरे कई घर उजड़ गए। रामधनी भी इस महामारी की चपेट में आ गए। सीता ने जी-जान लगाकर उनकी सेवा की, मंदिर में घंटों प्रार्थना की, तुलसी चौरे पर दीपक जलाया, पर किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था।
एक रात आँगन में चाँदनी बिखरी थी। रामधनी खाट पर लेटे-लेटे धीरे से बोले, “सीता… अगर मैं न रहूँ तो तू टूटना मत। यह आँगन… यह घर… यह चौखट… सब तुझसे ही बसेरा पाएँगे।” सीता की आँखों से आँसू बहते रहे, पर उसने उनका हाथ कसकर पकड़े रखा। कुछ ही देर बाद रामधनी ने अंतिम साँस ली और वह आँगन, जो कभी हँसी से गूँजता था, मातम में डूब गया।
उस दिन के बाद से आँगन जैसे सूना हो गया। तुलसी चौरे का दीपक बुझ-सा गया, नीम की छाँव उदास हो गई, और सीता का मन सूना हो गया। गाँव की औरतें आतीं, उसे ढाँढस बंधातीं, लेकिन सीता की आँखों से आँसू रुकते नहीं। बरसात आती तो उसे याद आता, कैसे रामधनी बारिश की पहली बूँदों में उसे आँगन में खींच लाते। सावन का झूला अकेला झूलता रह जाता, बिना किसी के बैठाए। दीपावली आती तो आँगन के दीयों की रोशनी भी अधूरी लगती। होली के रंग फीके पड़ गए थे।
अब आँगन में केवल सन्नाटा था। कभी वह घंटों चौखट पर बैठी रहती और आँगन की मिट्टी से बात करती, जैसे उसमें अपने साजन की आहट सुन रही हो। कभी नीम की डाल पर झूलते पत्तों की सरसराहट उसे लगती कि रामधनी पुकार रहे हों। दिन, महीने, और साल बीतते रहे। मगर सीता के जीवन की घड़ी जैसे उसी रात पर थम गई थी। गाँव में बच्चे बड़े हो गए, नई बहुएँ आईं, आँगन फिर-फिर आबाद होते रहे, लेकिन सीता का आँगन सूना ही रहा।
गाँव की औरतें अक्सर कहतीं ,“सीता, ज़िंदगी किसी के बिना रुकती नहीं। तू चाह ले तो नया जीवन शुरू कर सकती है।”मगर सीता बस मुस्कुरा देती। उसका जवाब हमेशा यही होता ,“मेरे जीवन का दीपक तो बुझ चुका। अब यह आँगन ही मेरा सहारा है। यहीं उसकी यादें हैं, यहीं उसकी हँसी है, यहीं उसकी सांसों की गूँज है।”
वर्षों बाद जब गाँव में सावन का मेला लगा, सब लोग झूले पर झूम रहे थे। सीता भी धीरे-धीरे आँगन से निकलकर मेले तक पहुँची। वहाँ बच्चों की खिलखिलाहट सुनकर उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसे याद आया, कभी उसका भी जीवन ऐसा ही रंगीन था। मगर इस बार उसकी आँखों में दर्द के साथ-साथ शांति भी थी। उसने मन ही मन महसूस किया कि उसका साजन भले ही चला गया हो, मगर उसकी यादें हर जगह फैली हैं आँगन की मिट्टी में, तुलसी के चौरे में, नीम की छाँव में, सरसों के खेतों में।
सीता ने आकाश की ओर देखा। चाँदनी बिखरी थी और उसे लगा जैसे रामधनी मुस्कुराते हुए कह रहे हों ,“मैं तो यहीं हूँ, सीता… तेरे आँगन में, तेरी साँसों में, तेरे जीवन की हर धड़कन में।”
गाँव का आँगन आज भी वहीं है। नीम की छाँव, तुलसी का चौरा और कच्ची मिट्टी सब गवाह हैं उस प्रेम के, जो साजन और सीता के बीच था। भले ही रामधनी इस दुनिया से चले गए हों, लेकिन उनका प्रेम और उनकी यादें आज भी उस आँगन में जीवित हैं। कहते हैं, मृत्यु प्रेम को नहीं बाँध सकती। “साजन बिन आँगन” सच्चा प्रेम कभी ख़त्म नहीं होता, वह स्मृतियों, आँगन की दीवारों और हृदय की धड़कनों में हमेशा जिंदा रहता है।