#विरह की ज्वाला में तड़पते मन

 विनोद कुमार झा

प्यार जब दिल की गहराइयों में उतरता है, तो वह सिर्फ खुशी नहीं देता बल्कि जुदाई का दर्द भी साथ लाता है। यह जुदाई ही है जो मन को जलाती है, बेचैन करती है और इंसान को हर पल उसकी चाहत की याद में #तड़पने पर मजबूर कर देती है। यही विरह की ज्वाला है, जो कभी आंसुओं की धार बनकर बहती है, कभी खामोशी की चादर ओढ़ लेती है।

गांव की गलियों में सावन की हल्की बौछारें पड़ रही थीं। मिट्टी की सोंधी खुशबू पूरे वातावरण में घुली हुई थी। ऐसे ही मौसम में पहली बार #अनिरुद्ध ने संध्या को देखा था। सफेद #सलवार सूट में भीगी हुई संध्या की मुस्कान ने जैसे उसके दिल में एक नई दुनिया बसा दी थी। दोनों का परिचय धीरे-धीरे दोस्ती में और फिर गहरी मोहब्बत में बदल गया।

हर शाम वे मंदिर के पीछे वाले बाग में मिलते। पेड़ों के झुरमुट के बीच बैठकर अपनी-अपनी दुनिया की बातें करते। कभी अनिरुद्ध संध्या के लिए अपनी किताबों से कविताएँ पढ़ता, तो कभी संध्या उसकी आंखों में झांकते हुए कहती –

"अनिरुद्ध, अगर कभी तुमसे दूर जाना पड़ा तो मैं जी नहीं पाऊंगी।"
अनिरुद्ध मुस्कराकर उसका हाथ थाम लेता और वादा करता – "हम कभी जुदा नहीं होंगे।" पर किस्मत की रेखाओं में कुछ और ही लिखा था। #संध्या के पिता एक बड़े व्यापारी थे और उनका सपना था कि बेटी की शादी शहर के एक बड़े घराने में हो। जब उन्हें अनिरुद्ध और संध्या के रिश्ते का पता चला, तो उनका गुस्सा आसमान छू गया। उन्होंने तुरंत संध्या को शहर भेज दिया और अनिरुद्ध से मिलने पर पाबंदी लगा दी।

उस रात जब संध्या ने विदा ली, उसकी आंखों से बहते आंसुओं ने अनिरुद्ध के हृदय में विरह की आग जला दी। बिछड़ते हुए उसने बस इतना कहा –
"अनिरुद्ध, अगर मेरी सांसें तुम्हारे बिना चलेंगी तो वो सिर्फ शरीर का बोझ होंगी, जीवन नहीं।"

अब हर शाम अनिरुद्ध उस मंदिर के पीछे वाले बाग में अकेला बैठा करता। हवा से हिलती पत्तियों की सरसराहट में उसे संध्या की हंसी सुनाई देती। #रात को चांद देखकर उसे लगता जैसे चांदनी संध्या का चेहरा बनकर उसे पुकार रही हो।

उसका मन विरह की ज्वाला में जलने लगा। न नींद आती, न भूख लगती। किताबों में लिखे शब्द धुंधले पड़ गए, हर कविता अधूरी हो गई। वह अपनी डायरी में लिखता , "तुम्हारे बिना हर सांस भारी है, हर #धड़कन अधूरी है। लगता है जैसे मेरा जीवन एक लंबी प्रतीक्षा बनकर रह गया है।"

संध्या भी शहर में अपनों के बीच होते हुए भी अकेली थी। भीड़ में रहते हुए भी उसका दिल अनिरुद्ध की धड़कनों में बंधा था। वह खिड़की से बाहर चांद को देखकर फुसफुसाती –
"अनिरुद्ध, तुम तक मेरी आवाज़ पहुंचे या न पहुंचे, पर मेरी हर धड़कन सिर्फ तुम्हारे नाम है।" अनिरुद्ध ने ठान लिया कि वह अपने प्यार को विरह की ज्वाला में न जलने देगा। उसने पढ़ाई पूरी की, शहर जाकर नौकरी की और आत्मनिर्भर बनकर संध्या के पिता से उसका हाथ मांगा।

पहले तो संध्या के पिता ने कड़ा विरोध किया, लेकिन अनिरुद्ध की ईमानदारी, उसकी सच्चाई और संध्या की विरह से जर्जर हालत देखकर आखिरकार वे मान गए। विरह की ज्वाला जिसने दोनों के मन को सालों तक जलाया, वही अंततः उनके मिलन की वजह बनी। जुदाई का दर्द उन्हें तोड़ने नहीं, बल्कि और मजबूत बनाने का काम कर गया।

संध्या ने अनिरुद्ध के गले लगते हुए कहा , "देखा अनिरुद्ध, प्यार कभी हारता नहीं। विरह की ज्वाला ने हमें जलाया जरूर, पर उसी ने हमें सच्चा बना दिया।" यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा प्यार दूरी और समय की कसौटी पर खरा उतरता है। विरह की ज्वाला चाहे जितनी तपाए, अगर मन में विश्वास और समर्पण है, तो प्रेम का मिलन निश्चित है।

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