कलियुग को कर्म युग क्यों कहा गया?

विनोद कुमार झा

सनातन धर्म में समय को चार युगों सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग में विभाजित किया गया है। प्रत्येक युग की अपनी विशेषताएँ, धार्मिक आचरण की विधियाँ और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग भिन्न-भिन्न रहे हैं। सतयुग को सत्य और तपस्या का युग माना गया, जहाँ धर्म अपने चारों चरणों पर स्थित था। त्रेतायुग में यज्ञ और दान का महत्व रहा, जबकि द्वापरयुग में पूजा-अर्चना, व्रत एवं नियमों का पालन प्रमुख था। जैसे-जैसे युगों का संक्रमण हुआ, धर्म के चरण भी क्रमशः घटते गए, और अंततः कलियुग आया, जिसे अधर्म का युग भी कहा गया। लेकिन इसी कलियुग में एक विशेषता यह भी है कि इसमें ईश्वर की कृपा केवल कर्म और नामस्मरण से ही सहज रूप में प्राप्त की जा सकती है। आइए जानते हैं विस्तार से  कलियुग को “कर्म युग” इसलिए कहा गया है क्योंकि इस युग में न तो कठोर तप करने की सामर्थ्य है, न ही वैदिक यज्ञों को करने की समुचित व्यवस्था और न ही त्रेतायुग व द्वापर जैसे विधिपूर्वक पूजन करने की क्षमता। यहाँ मनुष्य का केवल एक ही सहारा है कर्म और ईश्वर का नामस्मरण। धर्मशास्त्रों और पुराणों में यह स्पष्ट उल्लेख है कि कलियुग में मन, वचन और कर्म से किए गए सत्कर्म, दूसरों के प्रति सेवा, दया, और न्याय से जुड़ी क्रियाएँ ही व्यक्ति को मोक्ष के समीप ले जाती हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण में कहा गया है:

"कलेर दोषनिधे राजन् अस्ति एको महागुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत्॥"

(अर्थात) — हे राजन्! यद्यपि कलियुग दोषों का भंडार है, पर इसमें एक महान गुण है कि इस युग में केवल श्रीकृष्ण के नाम का कीर्तन करके मनुष्य परम गति को प्राप्त कर सकता है।

इसी प्रकार महाभारत (शान्ति पर्व) और विष्णु पुराण में भी यह वर्णन आता है कि कलियुग में भक्ति, सेवा और कर्म यही मोक्ष के साधन होंगे। अतः यह युग शुद्ध रूप से कर्म प्रधान युग है, जहाँ 'कर्म ही धर्म' की भावना सर्वोपरि है।

कर्म की प्रधानता – भगवद्गीता के अनुसार

श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 3, श्लोक 8) नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।

अर्थ: तुम नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म अकर्म (कुछ न करने) से श्रेष्ठ है। कर्म किए बिना तुम्हारी जीवन यात्रा भी संभव नहीं है।

 इस श्लोक से स्पष्ट है कि कलियुग में कर्म ही जीवन की आधारशिला है। निष्क्रियता (अकर्म) से आत्मा की उन्नति नहीं होती। नारद पुराण में वर्णित कथा के अनुसार एक बार नारद जी भगवान विष्णु से पूछते हैं कि कलियुग में जब मनुष्य यज्ञ, तप, ब्रह्मचर्य आदि करने में असमर्थ होगा, तो मोक्ष कैसे संभव होगा?

भगवान उत्तर देते हैं:  "कलौ नास्त्ययने यज्ञो न तपो न च पूजनम्। कीर्तनं केवलं मत्वा विष्णोर्नाम्नां समाचरेत्॥"

अर्थ: कलियुग में यज्ञ, तप, पूजन जैसे साधन दुर्लभ होंगे। इस युग में केवल श्रीहरि विष्णु के नाम का कीर्तन ही श्रेष्ठ और फलदायी माना गया है। यहाँ कर्म का तात्पर्य है  नामस्मरण, सेवा, सत्कर्म और मन, वाणी, और शरीर से किए गए सकारात्मक कार्य।

गरुड़ पुराण में कलियुग के धर्म को चार भागों में बाँटा गया है: 1. सत्य (सच बोलना), 2. दान (अर्पण करना), 3. दया (दूसरे की पीड़ा समझना), 4. क्षमाशीलता (माफ कर देना)।

ये सभी कर्म के ही अंग हैं। इनसे ही मनुष्य धर्म पालन कर सकता है और ईश्वर प्राप्ति कर सकता है। सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की तुलना – कर्म आधारित दृष्टिकोण से सत्ययुग: ध्यान ध्यान-योग तपस्वी प्रवृत्ति, त्रेतायुग: यज्ञ अग्निहोत्र यज्ञ ऋषियों की यज्ञशाला, द्वापर : पूजन मूर्तिपूजा मंदिर-पूजन विधि

कलियुग कर्म (नामस्मरण, सेवा, दया) सत्कर्म और भक्ति गृहस्थों के लिए अनुकूल इस युग में अन्य युगों की तुलना में धार्मिक साधन सरल हैं, इसलिए मनुष्य को बस अपने कर्म शुद्ध रखने की आवश्यकता है।

 नृसिंह पुराण  में वर्णित कथा के अनुसार कलियुग के प्रारंभ में जब देवता चिंतित हुए कि धर्म का विनाश होगा, तब भगवान नारायण ने कहा: "कलियुग में जो मनुष्य अपने कर्मों को सुधार कर ईमानदारी से जीवन जीएगा, वही मुझे प्रिय होगा।"

इससे यह स्पष्ट होता है कि कर्म की प्रधानता ही कलियुग का मार्ग है। कलियुग में तीर्थ, तप, यज्ञ जैसे साधन दुर्लभ हो गए हैं। इसलिए यह युग “कर्म युग” कहलाता है। मनुष्य अपने सच्चे कर्म, भक्ति, नामस्मरण और सेवा के द्वारा ही इस युग में ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है।

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