भक्ति और प्रेम की सागर में गोते

 लेखक: विनोद झा / ( Khabar Morning)

भक्ति और प्रेम ये दो ऐसे भाव हैं, जिनमें डूबने वाला व्यक्ति जीवन के सबसे सुंदर और दिव्य अनुभवों से गुजरता है। दोनों भाव देखने में भिन्न प्रतीत होते हैं, परंतु जब गहराई से देखा जाए तो इनका स्रोत एक ही है हृदय की निर्मलता, समर्पण, और आत्मा की प्यास। एक सच्चा भक्त जब भगवान की भक्ति में डूबता है, तो उसका प्रेम भी दिव्य हो जाता है; और जब कोई सच्चा प्रेम करता है, तो वह भी कहीं न कहीं भक्ति का रूप ले लेता है।

भक्ति वह अनुभूति है, जो मनुष्य को ईश्वर के साथ जोड़ती है। यह कोई सौदा नहीं है, न ही किसी भय से उपजी भावना। यह तो आत्मा की वह पुकार है, जो परमात्मा तक पहुंचती है। भक्त कबीर हों या मीराबाई, संत रैदास हों या तुकाराम इन सबके जीवन में भक्ति प्रेम बनकर बहती रही। उन्होंने अपने आराध्य को केवल पूजनीय नहीं, अपितु अपना प्राणसखा, प्रेमी, और साथी माना।

भक्ति में जब प्रेम का रंग घुलता है, तब वह केवल नियमों की बात नहीं रह जाती, वह एक जीवंत संवाद बन जाती है। मीरा की कृष्ण से प्रेमपूर्ण भक्ति इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। वे कहती थीं "पायो जी मैंने राम रतन धन पायो..."
यह भक्ति नहीं, प्रेम में डूबे मन की आवाज़ है।

प्रेम की जब बात आती है, तो अधिकांश लोग इसे केवल मानवीय संबंधों से जोड़ देते हैं। परंतु प्रेम केवल व्यक्ति से व्यक्ति का नहीं होता, वह आत्मा से आत्मा का होता है। चाहे वह माता-पिता का प्रेम हो, गुरु-शिष्य का हो, या फिर किसी का परमात्मा के प्रति। सच्चा प्रेम वह है, जिसमें अपेक्षा नहीं होती, केवल समर्पण होता है।

जो प्रेम करता है, वह हर रूप में अपने प्रिय को देखता है फूलों में, हवाओं में, ध्वनि में, और मौन में। यही स्थिति एक भक्त की भी होती है। संत तुलसीदास ने श्रीराम के प्रेम में जो भक्ति की कविता रची, वह प्रेम की ऊँचाई है। उन्होंने कहा, "रामहि केवल प्रेम पियारा, जान लेहु जो जाननिहारा।"

जब भक्ति और प्रेम का संगम होता है, तो जीवन एक सुंदर यात्रा बन जाता है। भक्त अपने ईश्वर से बात करता है, शिकायत करता है, हँसता है, रोता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई प्रेमी अपने प्रियतम से करता है। राधा और कृष्ण का प्रेम भी यही था जहां भक्ति में प्रेम घुला हुआ था, और प्रेम में भक्ति छलक रही थी।

भक्ति बिना प्रेम के रूखी हो सकती है, और प्रेम बिना भक्ति के अस्थिर। लेकिन जब दोनों साथ होते हैं, तो जीवन में चमत्कार घटित होते हैं। ऐसे व्यक्ति के जीवन में भय, स्वार्थ, और मोह की कोई जगह नहीं होती। वह केवल देने की बात करता है, पाने की नहीं।

आज जब जीवन में दौड़-भाग, भौतिकता और स्वार्थ का बोलबाला है, तब भक्ति और प्रेम की यह संयुक्त धार समाज को संयम, करुणा, और समर्पण की ओर ले जा सकती है। एक सच्चा भक्त कभी किसी से द्वेष नहीं करता, और एक सच्चा प्रेमी कभी किसी को चोट नहीं पहुँचाता। दोनों के मार्ग में करुणा, क्षमा, और त्याग स्वाभाविक रूप से आते हैं।

भक्ति और प्रेम, दोनों ही साधन नहीं, साध्य हैं। ये वह नौका हैं, जिनमें बैठकर आत्मा पार उतर सकती है। जिस दिन व्यक्ति इन दोनों भावों में डूबने लगता है, वह जीवन के वास्तविक आनंद को अनुभव करने लगता है। यही तो कारण है कि हमारे संतों ने कहा, 

"प्रेम बिना जो भक्ति करे, सो भक्ति निष्फल जान।
प्रेम सहित जो भक्ति करे, भक्ति मुक्ति को जान।"

आइए, हम भी इस दिव्य सागर में गोता लगाएँ जहां भक्ति है, प्रेम है, और दोनों मिलकर हमें हमारे आत्मिक स्वरूप की ओर ले जाते हैं।



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