कृपाचार्य ने कर्ण को रंगभूमि में कला प्रदर्शन करने से क्यों रोका?

Khabar Morning संवाददाता

प्राचीन भारत के महाकाव्य महाभारत की रंगभूमि की घटना न केवल सामाजिक भेदभाव का सजीव चित्रण है, बल्कि यह तत्कालीन समाज की मानसिकता और परंपरागत सोच को भी उजागर करती है। यह प्रसंग तब आता है जब गुरु द्रोण द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक सभा में राजकुमारों को अपनी-अपनी युद्ध-कला का प्रदर्शन करने का अवसर दिया गया। तभी एक ऐसा योद्धा सामने आता है जिसने अर्जुन की बराबरी का कौशल दिखाया, किंतु उसका नाम और जन्म परिचय स्पष्ट न होने के कारण उसे मंच पर प्रदर्शन से रोक दिया गया। यह योद्धा कोई और नहीं, बल्कि कर्ण था  जो बाद में महाभारत का एक केंद्रीय पात्र बना।

जब कर्ण ने रंगभूमि में प्रवेश कर अर्जुन को खुली चुनौती दी, तो उपस्थित जनसमूह में कौतूहल फैल गया। कर्ण की युद्धकला अविस्मरणीय थी, लेकिन उसकी सामाजिक स्थिति संदिग्ध थी। उस समय सभा के प्रमुख ब्राह्मण और गुरु कृपाचार्य ने कर्ण को रोकते हुए कहा कि जब तक उसका कुल और गोत्र ज्ञात न हो जाए, तब तक वह राजकुमारों की युद्ध-कला प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकता।

कृपाचार्य की आपत्ति का मूल आधार सामाजिक व्यवस्था थी। तत्कालीन समाज में शस्त्रविद्या का प्रदर्शन और युद्ध कौशल दिखाने का अधिकार केवल क्षत्रिय वर्ण के लोगों को ही था। चूंकि कर्ण को सूतपुत्र (रथ-संचालक का पुत्र) माना जा रहा था, इसलिए कृपाचार्य ने उसे क्षत्रियों की प्रतिस्पर्धा में भाग लेने से वंचित कर दिया। यह निर्णय वर्ण-व्यवस्था के कठोर नियमों को दर्शाता है, जो व्यक्ति की योग्यता से अधिक उसके जन्म को प्राथमिकता देते थे।

कर्ण के चेहरे पर उस समय अपमान, पीड़ा और क्रोध स्पष्ट झलक रहा था। उसे रोका जाना उसकी प्रतिभा का नहीं, बल्कि उसके "कथित" जन्म का अपमान था। तभी हस्तिनापुर के युवराज दुर्योधन ने एक साहसिक निर्णय लेते हुए कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर दिया। इस प्रकार कर्ण को क्षत्रिय का दर्जा मिल गया, और वह अर्जुन का मुकाबला करने के योग्य ठहराया गया।

कृपाचार्य द्वारा कर्ण को रोकना केवल एक व्यक्ति की व्यक्तिगत अवमानना नहीं थी, बल्कि यह उस युग की सामूहिक मानसिकता का परिचायक था जहाँ जन्म आधारित वर्ण-व्यवस्था ने अनेक योग्य और प्रतिभाशाली लोगों को हाशिए पर धकेल दिया। यह घटना आज भी सामाजिक न्याय, समानता और योग्यता की बहस में बार-बार उद्धृत होती है।

कर्ण की प्रतिभा को रोकने का प्रयास तत्कालीन समाज की जड़ता और पूर्वाग्रह को दर्शाता है। कृपाचार्य जैसे ज्ञानी पुरुष भी उस समय की सामाजिक सीमाओं से बंधे थे। यह घटना यह स्पष्ट कर देती है कि केवल जन्म नहीं, बल्कि अवसर और न्याय भी किसी समाज के विकास के लिए अनिवार्य हैं। कर्ण का संघर्ष आज भी हर उस व्यक्ति की प्रेरणा है जो सामाजिक बंधनों को तोड़कर अपनी पहचान बनाना चाहता है।

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