विनोद कुमार झा
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अनेक वीर-वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी, किंतु उनमें से रानी लक्ष्मीबाई का स्थान अत्यंत गौरवपूर्ण और प्रेरणादायी है। झाँसी की यह रानी केवल तलवार की धार से नहीं, बल्कि अपने आत्मबल, अद्वितीय साहस और मातृभूमि के प्रति अपार प्रेम से भारतीयों के हृदय में अमर हो गई। 18 जून 1858 को जब उन्होंने वीरगति पाई, उस क्षण न केवल झाँसी रो पड़ी, बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष के आत्मसम्मान की एक चिरंतन लौ जल उठी।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को वाराणसी में ‘मणिकर्णिका’ नाम से हुआ था। बचपन से ही वे घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और युद्धकला में निपुण थीं। उनका नाम ‘छोटे सैनिकों की टोली’ में हमेशा सबसे आगे रहा। झाँसी के राजा गंगाधर राव से विवाह के बाद वे 'लक्ष्मीबाई' बनीं। परंतु विधवा होने के पश्चात् जब अंग्रेज़ों ने झाँसी को हड़पने की साजिश रची, तब वे "मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी" का उद्घोष करती हुई ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध गर्जना करने वाली महान वीरांगना बनीं।
जब 1857 का स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ, तब लक्ष्मीबाई ने उसे केवल विद्रोह नहीं, बल्कि स्वतंत्रता के लिए अंतिम अवसर माना। उन्होंने झाँसी को किलेबंद किया, सैनिकों का नेतृत्व स्वयं किया और अंग्रेजी सेना का डटकर मुकाबला किया। उनके नेतृत्व में झाँसी की सेना ने कई हफ्तों तक अंग्रेजों को रोककर रखा। जनरल ह्यूरोज जैसी शक्तिशाली ब्रिटिश सेना भी उनकी रणकुशलता के आगे नतमस्तक हो गई।
अंग्रेजों के भारी हमले और विश्वासघात के बावजूद रानी लक्ष्मीबाई ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर युद्धभूमि में अंतिम सांस तक युद्ध किया। 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में वे वीरगति को प्राप्त हुईं। उनकी अंतिम इच्छा थी कि "मेरा शरीर अंग्रेजों के हाथ न लगे", और उनके सैनिकों ने उस इच्छा को भी पूरा किया। उनका बलिदान केवल एक रानी की मृत्यु नहीं थी, बल्कि भारतमाता की अस्मिता का महापर्व बन गया।
रानी लक्ष्मीबाई का जीवन आज भी प्रत्येक नारी, प्रत्येक भारतीय युवा के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने नारी को केवल गृहस्थी की सीमा से निकालकर रणभूमि में विजय की रेखा खींचने वाली शक्ति के रूप में स्थापित किया। उनकी वाणी, उनका साहस और उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि जब बात स्वाभिमान और मातृभूमि की हो, तब स्त्री भी सिंहनी बन जाती है।
आज जब हम रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान दिवस मनाते हैं, यह केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि वर्तमान की चेतना है। यह दिन हमें यह स्मरण कराता है कि देशभक्ति केवल नारे नहीं, वह तप, त्याग और संकल्प का भाव है। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में रानी का बलिदान एक अमूल्य दीप की तरह है जो हमें मार्ग दिखाता है – साहस, आत्मबल और न्याय की राह पर।
रानी लक्ष्मीबाई ने इतिहास नहीं रचा, उन्होंने एक ऐसी धरोहर छोड़ी है जो प्रत्येक पीढ़ी के रगों में उत्साह और आत्मबल भरती है। उनका बलिदान दिवस केवल एक वीरगति की तिथि नहीं, भारतीय नारीशक्ति और स्वतंत्रता की पराकाष्ठा की पहचान है।
आज हम उनके चरणों में श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए यही संकल्प लें –"हम भी अपने राष्ट्र के लिए, अन्याय के विरुद्ध, सत्य और धर्म के मार्ग पर अडिग रहेंगे।"
जय हिंद! वंदे मातरम्!