विनोद कुमार झा
भारतवर्ष की धार्मिक परंपराओं में प्रकृति के प्रत्येक तत्व का विशेष स्थान है। वृक्ष, पुष्प, पत्ते और यहां तक कि जल की बूंदें भी पूजा-अर्चना में गूढ़ प्रतीकों के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्हीं में से एक है बेलपत्र (बिल्वपत्र), जिसे भगवान शिव की उपासना में सर्वोपरि माना जाता है। परंतु क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि बेलपत्र की पत्तियां प्रायः तीन समूहों में जुड़ी होती हैं? क्या यह केवल वनस्पति संरचना है या फिर कोई आध्यात्मिक रहस्य छिपा है?
बेल (Aegle marmelos) एक औषधीय और धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण वृक्ष है। इसका पत्ता तीन भागों में विभाजित होता है जिन्हें त्रिपत्रक कहा जाता है। यह त्रैतीय स्वरूप केवल एक वनस्पति लक्षण नहीं, बल्कि सनातन धर्म के त्रिक स्वरूपों का प्रतीक है।
त्रिदेव स्वरूप : ब्रह्मा, विष्णु और महेश
त्रिगुण स्वरूप : सत्व, रज, तम
त्रिलोक स्वरूप: भू (पृथ्वी), भुवः (आकाश), स्वः (स्वर्ग)
त्रिकाल स्वरूप : भूत , वर्त्तमान, भविष्य। इस तरह बेलपत्र का त्रिपत्रक स्वरूप संपूर्ण सृष्टि के संतुलन का प्रतीक है।
शिवपुराण और स्कंदपुराण के अनुसार, भगवान शिव को बेलपत्र अत्यंत प्रिय है। यह ऐसा पत्र है जो बिना स्नान किए भी चढ़ाया जा सकता है, यदि वह पवित्र भाव से अर्पित हो।
"बिल्वपत्रं शिवार्पणम्" अर्थात् बेलपत्र शिव को अर्पित किया जाना सर्वोच्च फल देने वाला कर्म है।
त्रिपत्रक बेलपत्र को भगवान शिव के त्रिनेत्र, त्रिशूल और त्रिगुण स्वरूप से जोड़ा जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि बेलपत्र केवल एक पत्ता नहीं, बल्कि शिव के सम्पूर्ण अस्तित्व का प्रतीक है। आइए जानते हैं तीन पत्तियों वाला बेलपत्र की पौराणिक और लोककथा के माध्यम से विस्तारपूर्वक :
पौराणिक कथा के अनुसार, बेलवृक्ष का जन्म देवी लक्ष्मी के तप से हुआ था। एक बार देवी लक्ष्मी ने भगवान शिव की आराधना के लिए घोर तप किया और तपस्विनी स्वरूप में बेलवृक्ष बन गईं। अतः बेलपत्र को अर्पित करना, देवी लक्ष्मी की साधना का प्रतीक भी माना गया।
एक अन्य कथा में कहा गया है कि समुद्र मंथन के समय जब हलाहल विष निकला, तब शिव ने उसे अपने कंठ में धारण कर लिया। उस समय बेलपत्रों को उनके मस्तक पर रखा गया ताकि विष की उष्णता को शीतल किया जा सके। अतः बेलपत्र शिव के करुणामय रूप का भी प्रतीक है।
एक अन्य कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में एक तपस्विनी थी, जिसका नाम शिवानी था। वह हिमालय की एक गुफा में तपस्या करती थी और भगवान शिव को ही अपना सर्वस्व मानती थी। उसने जीवन का प्रत्येक क्षण शिव को समर्पित कर दिया था। वह न अन्न खाती थी, न जल पीती केवल बेलपत्रों से शिव का पूजन करती और उन्हीं से जीवन निर्वाह करती। उसकी इस कठोर साधना से प्रसन्न होकर शिव प्रकट हुए और उसे वरदान दिया: “हे देवी, तुम स्वयं मेरी आराधना का प्रतीक बनोगी।” उसी क्षण वह तपस्विनी एक दिव्य बेलवृक्ष में परिवर्तित हो गई।
भगवान शिव के वरदान से उत्पन्न उस दिव्य बेलवृक्ष की प्रत्येक डाली से तीन पत्तों वाले पत्र निकलने लगे। यह त्रिपत्रक स्वरूप संयोग नहीं था, बल्कि एक गूढ़ संकेत था ब्रह्मा, विष्णु और महेश का त्रैतीय स्वरूप, जो सृष्टि, पालन और संहार के प्रतीक हैं। ये पत्तियां दर्शाती हैं कि जब कोई साधक बेलपत्र चढ़ाता है, तो वह न केवल शिव को अर्पण करता है, बल्कि सृष्टि के समस्त संतुलन को भी सम्मानित करता है।
समुद्र मंथन के समय जब हलाहल विष उत्पन्न हुआ, तो देवता और दानव दोनों घबरा गए। सभी ने भगवान शिव से प्रार्थना की। शिव ने वह विष अपने कंठ में धारण कर लिया, जिससे उनका कंठ नीलवर्ण हो गया। यह विष अत्यंत उष्ण था, जिससे शिव का ताप बढ़ गया। तब सभी देवताओं ने बेलपत्रों को शिव के मस्तक और हृदय पर रखा जिससे उनका ताप कम हुआ। तभी से यह परंपरा बनी कि शिवलिंग पर त्रिपत्रक बेलपत्र चढ़ाना सबसे पुण्यकारी और शीतलता देने वाला कर्म है।
एक बार एक युवा साधक ने शिव की तपस्या आरंभ की, लेकिन उसके पास न पुष्प थे, न कोई भोग। उसने जंगल से केवल तीन पत्तियों वाला बेलपत्र लाकर अर्पित किया और भावपूर्वक प्रार्थना की। उसी रात्रि उसे स्वप्न में शिव ने दर्शन दिए और कहा "तूने जो त्रिपत्रक पत्र मुझे अर्पित किया, वह तुम्हारे शुद्ध विचार, शुद्ध वाणी और शुद्ध कर्म का प्रतीक था। मुझे वह सब कुछ प्राप्त हो गया जो कोई स्वर्ण या रत्न से नहीं दे सकता था।"
आज भी जब हम शिवालयों में जाते हैं, तो त्रिपत्रक बेलपत्र को शिवलिंग पर चढ़ाते समय यह अनुभव करते हैं कि यह केवल एक पत्ता नहीं, बल्कि हमारी आत्मा का तीन-भागीय समर्पण है। यह परंपरा केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्मिक शुद्धि का मार्ग है। शिव स्वयं बेलपत्र में रमते हैं क्योंकि उसमें बसी है उस तपस्विनी की तपस्या, ब्रह्मांड की त्रैतीय व्यवस्था और हर साधक की मौन प्रार्थना की।
तीन पत्तियों वाला बेलपत्र आत्मिक विकास के तीन चरणों को दर्शाता है: पहला पत्र : शुद्ध विचार , दूसरा पत्र : शुद्ध वाणी, तीसरा पत्र : शुद्ध कर्म है। जब एक साधक यह तीनों साधन एकत्र करता है और उन्हें शिव को अर्पित करता है, तब शिव न केवल उसकी भौतिक कामनाएं पूर्ण करते हैं, बल्कि आत्मिक मुक्ति का द्वार भी खोलते हैं।
त्रिदेवों का अस्तित्व जब एक साधक के भीतर उतरता है ब्रह्मा की सर्जनात्मकता, विष्णु की पालन नीति और शिव का संहारक-वैराग्य तब वह बेलपत्र के तीन पत्तों की भांति एक त्रिकालदर्शी योगी बन जाता है। बेलपत्र की यह त्रैतीय प्रकृति साधक को सिखाती है कि जब तक उसका मन, वाणी और कर्म इन तीनों में समरसता नहीं होगी, तब तक वह शिव तक नहीं पहुँच सकता।
बेलपत्र में टैनिन, लवण, और ऐल्केलॉयड्स पाए जाते हैं जो पाचन, मधुमेह और मानसिक तनाव में लाभकारी होते हैं। इसे चढ़ाने से शिवलिंग पर स्थित जल भी आयुर्वेदिक दृष्टि से लाभकारी हो जाता है। यह तथ्य भी दर्शाता है कि हमारी धार्मिक परंपराएं केवल आस्था नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और प्रकृति का भी सामंजस्य हैं।
तीन पत्तियों वाला बेलपत्र केवल एक पौधे का अंग नहीं, बल्कि एक संपूर्ण धार्मिक सूत्र है जो ब्रह्मांड की रचना, उसका पालन और उसका पुनः विसर्जन दर्शाता है। यह अध्यात्म की तीन सीढ़ियों की भांति है, जिन पर चढ़कर साधक शिव तक पहुँचता है।
जब हम बेलपत्र चढ़ाते हैं, तो हम न केवल शिव को प्रसन्न करते हैं, बल्कि अपने भीतर के विकारों को भी दूर करते हैं यह एक मौन प्रार्थना है: हे त्रिनेत्रधारी, मेरे भीतर के तीनों दोषों को दूर कर, मुझे सत्य, शांति और शिवत्व की ओर ले चलो।
(हर हर महादेव)