# 'जो दीपक जलाता है, वह स्वयं प्रकाश नहीं मांगता '

विनोद कुमार झा

जब भगवान श्रीकृष्ण यह वचन कहते हैं  “जो दीपक जलाता है, वह स्वयं प्रकाश नहीं मांगता” तो यह केवल आध्यात्मिक गूढ़ता नहीं, बल्कि सामाजिक, नैतिक और जीवनदर्शन का अद्भुत समन्वय भी है। यह कथन निस्वार्थ सेवा, कर्मयोग, और आत्मज्ञानी जीवनशैली की संपूर्ण परिभाषा बन जाता है। इस लेख में हम इसे दर्शन, समाज, अध्यात्म, राजनीति, परिवार, नारी, राष्ट्रनिर्माण, कर्म और भगवद्गीता की दृष्टि से गहराई में जाकर समझेंगे। समाज, राष्ट्र और जीवन के विराट संदर्भ में जब हम सेवा, त्याग और आत्मज्ञान की बात करते हैं, तब एक वाक्य हमें आत्मा की गहराइयों तक झकझोर देता है । जो दीपक जलाता है, वह स्वयं प्रकाश नहीं मांगता।यह वाक्य केवल एक श्लोक नहीं, बल्कि जीवन का दीपमंत्र है  और इसके उच्चारक हैं स्वयं भगवान श्रीकृष्ण।

 कृष्ण के वाक्य का मूल आशय : दीपक क्या है?

दीपक वह है जो जलता है, और दूसरों को रोशनी देता है। वह अपने लिए कुछ नहीं चाहता, न प्रशंसा, न पुरस्कार। वह स्वयं जलकर, दूसरों के अंधकार को हरता है।

 भगवान श्रीकृष्ण का दृष्टिकोण : श्रीकृष्ण के इस कथन का आशय यही है जो वास्तविक सेवा करता है, वह कभी उसकी गिनती नहीं करता। वह जगत को रोशन करता है, पर अपने हिस्से में अंधकार भी स्वीकारता है।

 कृष्ण के जीवन से उदाहरण : यशोदा के लिए गोवर्धन उठाने वाला पुत्र, पांडवों के लिए सारथी, रणनीति, सलाहकार,  राधा के लिए निष्कलंक प्रेम, विदुर, सुदामा के लिए मित्र का धर्म निभाया। भगवान श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन इस वाक्य की जीवंत प्रतिकृति है। चाहे गोकुल की गलियों में माखनचोर बनकर लीलाएं रची हों, या कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को मोह से बाहर निकालकर धर्म का युद्ध लड़वाया हो  हर भूमिका में श्रीकृष्ण ने स्वयं को तपाया, जलाया, पर कभी कोई 'प्रकाश' यानि कि प्रशंसा या प्रतिफल नहीं मांगा। कृष्ण स्वयं "दीपक" हैं  वह हर युग, हर संबंध में जलते रहे, पर कभी अपना प्रकाश नहीं माँगा।

आज के समय में जब हर सेवा, हर प्रयास, हर निःस्वार्थ कर्म के पीछे किसी न किसी रूप में प्रतिदान की अपेक्षा जुड़ी होती है, ऐसे समय में यह वाक्य हमें आत्ममंथन के लिए प्रेरित करता है।क्या हम बिना प्रतिफल की चाह के कुछ करते हैं? क्या हमारी सेवा निःस्वार्थ है, या कोई छिपी हुई अपेक्षा उसमें समाहित है?

भगवद्गीता का सार है  निष्काम कर्म। 

श्रीकृष्ण कहते हैं: "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। "यह भी उसी भावना का विस्तार है जो दीपक कर्म करता है, वह फल की आशा नहीं करता। कृष्ण कहते हैं दीपक बनने का अर्थ है स्वयं जलकर दूसरों को राह दिखाना।

 माता-पिता का त्याग – निस्वार्थ दीपक : माता-पिता संतान के लिए जो करते हैं, वह दीपक-धर्म का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है: रातों की नींद हराम कर बच्चे का भविष्य संवारते हैं। अपने सपनों को त्यागकर बच्चों को उड़ान देते हैं।

 समाज उन्हें कितना याद करता है? बहुत बार नहीं। लेकिन क्या उन्होंने कभी प्रकाश माँगा? नहीं।

 गुरु – ज्ञानदीप की भूमिका : गुरु वह होता है जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर आत्मा को प्रकाशित करता है। आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त को सम्राट बनाया, स्वयं तपस्वी रहे। संत रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को प्रेरित किया, स्वयं कभी प्रसिद्धि नहीं चाही।

नारी शक्ति –अंधकार में जलता दीपक : भारतीय परंपरा में नारी को शक्ति कहा गया है, परंतु यह शक्ति अक्सर त्याग की लौ में जलती रहती है । माँ, बहन, पत्नी, बेटी  हर रूप में वह घर और समाज को रोशनी देती है। वह जलती है, मुस्कराती है, और फिर भी कभी यह नहीं कहती कि उसे रौशनी चाहिए। यह वाक्य स्त्रीत्व की मौन महानता को भी श्रद्धांजलि है। पर वह स्वयं प्रकाश के लिए समाज से प्रश्न नहीं करती। महिला डॉक्टर, शिक्षिका, मजदूर – सब अपने परिवार और समाज के लिए दीपक की भाँति।

 भारतीय सैनिक  सीमा पर जलता दीपक : अपने प्राणों की आहुति देने वाला सैनिक राष्ट्र के लिए दीपक है। वह पुरस्कार या प्रसिद्धि की अपेक्षा नहीं करता केवल देश की रक्षा।

राष्ट्रनिर्माण में निस्वार्थ दीपक : गांधी जी सत्याग्रह का दीपक , डॉ. अब्दुल कलाम  विज्ञान और प्रेरणा का दीपक, अन्ना हजारे – ग्राम विकास का दीपक इनमें से किसी ने सत्ता नहीं मांगी सिर्फ सेवा दी।

श्रीकृष्ण का एक और गूढ़ संदेश: “उद्धरेत् आत्मनात्मानं...” अपना उद्धार स्वयं करो  स्वयं दीपक बनो। स्वामी विवेकानंद कहते हैं, उठो, जागो, और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो।

 राजनीति में दीपक बनने की आवश्यकता :आज की राजनीति में प्रशंसा और प्रचार की लालसा ही संकट है। जो नेता समाज का सच्चा सेवक होता है, वह प्रचार के पीछे नहीं भागता। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, मनोहर पर्रिकर जैसे नेता दीपक की तरह थे।

चिकित्सा, शिक्षा और समाजसेवा में दीपक : डॉक्टरों ने कोरोना काल में अपने प्राण जोखिम में डाले। शिक्षक डिजिटल माध्यम से विद्यार्थियों तक ज्ञान पहुँचा रहे थे। क्या उन्होंने प्रशंसा की अपेक्षा की? नहीं। उन्होंने दीपक का धर्म निभाया।

 निःस्वार्थ सेवा और आध्यात्मिकता : मदर टेरेसा, विनोबा भावे, स्वामी दयानंद, कबीर  सब निस्वार्थ सेवारत रहे। इनमें से किसी ने अपने नाम पर "प्रकाश" नहीं माँगा सिर्फ समाज को रोशन किया।

श्रीकृष्ण का व्यवहारिक संदेश :श्रीकृष्ण स्वयं जब महाभारत युद्ध में सारथी बने, तो यह उनका दीपक धर्म था। उन्होंने अर्जुन को दिव्य ज्ञान दिया, लेकिन स्वयं किसी पुरस्कार का दावा नहीं किया। दीपक स्वयं को जलाकर नष्ट नहीं करता  वह दूसरों को प्रज्वलित करता है। उसी प्रकार, हमें समाज में अपने ज्ञान, धन, सेवा को जलाना है विनम्रता से। 

हर व्यक्ति बने दीपक चाहे घर में,  समाज में , कार्यालय में,राष्ट्र में, हर व्यक्ति अगर दीपक बन जाए, तो संपूर्ण अंधकार मिट सकता है।

 दीपक बनने का अर्थ क्या है?

  • जलना – त्याग करना।
  • प्रकाश देना – दूसरों का मार्गदर्शन करना।
  • प्रसिद्धि न माँगना – विनम्र सेवा करना।
  • हर समय जलना – निरंतर कार्यरत रहना।

"जो दीपक जलाता है, वह स्वयं प्रकाश नहीं माँगता – क्योंकि उसका लक्ष्य स्वयं जलना नहीं, बल्कि अंधकार को हरना होता है।"

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