-धार्मिक, पौराणिक और आत्मबोध से भरपूर एक विस्तृत आलेख
विनोद कुमार झा
भारतीय सनातन धर्म में दो महान ऋषियों के बीच हुए संवाद, संघर्ष और आध्यात्मिक प्रतिस्पर्धा की एक अद्भुत कथा है महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र की। यह कथा केवल द्वंद्व की नहीं, बल्कि धैर्य और तप, ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज, अहंकार और आत्मज्ञान की भी है। यह पौराणिक आख्यान बताता है कि किस प्रकार क्रोध, अहंकार और प्रतिस्पर्धा भी किसी को ब्रह्मर्षि बना सकते हैं यदि उसमें तप की अग्नि और आत्मबोध का प्रकाश हो।
विश्वामित्र पहले एक शक्तिशाली राजा थे कौशिक। वे बल, पराक्रम और क्षात्र धर्म में निपुण थे। एक दिन शिकार करते हुए वे वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे। वहाँ उन्होंने कामधेनु की अद्भुत शक्तियों को देखा और वशिष्ठ से उसे माँगा। जब वशिष्ठ ने उसे देने से मना किया, तो विश्वामित्र को क्रोध आया। उन्होंने बलपूर्वक उसे लेने का प्रयास किया, परंतु वशिष्ठ की ब्रह्मतेज और गाय की दिव्य शक्तियों ने उन्हें पराजित कर दिया।
विश्वामित्र ने उस अपमान को अपने हृदय में स्थान दिया। उन्होंने मन ही मन प्रतिज्ञा की: "मैं भी वशिष्ठ जैसा ब्रह्मर्षि बनूँगा!" इसके लिए उन्होंने राजधर्म का त्याग किया और जंगलों में जाकर कठिन तपस्या आरंभ की। वे बार-बार तप करते, देवताओं को प्रसन्न करते, सिद्धियाँ प्राप्त करते, किंतु *वशिष्ठ* उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि नहीं देते।
विश्वामित्र की कठिन तपस्या से इंद्र भयभीत हो उठे। उन्होंने अप्सरा मेनका को भेजा। मेनका के सौंदर्य से मोहित होकर विश्वामित्र भटक गए और उनसे एक पुत्री (शकुंतला) उत्पन्न हुई। परंतु कुछ वर्षों बाद जब उन्हें आत्मबोध हुआ, तो वे फिर तपस्या में लीन हो गए।
एक बार राजा त्रिशंकु ने देह सहित स्वर्ग जाने की इच्छा की। वशिष्ठ ने अस्वीकार किया, तब वह विश्वामित्र के पास गया। विश्वामित्र ने अपनी तपशक्ति से त्रिशंकु को स्वर्ग की ओर भेजा, परंतु देवताओं ने उसे नीचे गिरा दिया। क्रोध में आकर विश्वामित्र ने स्वयं एक नया स्वर्ग बना दिया और त्रिशंकु को उसमें स्थान दिया। इस लीला से देवगण भी चकित हो उठे।
राजा हरिश्चंद्र की कथा में भी विश्वामित्र की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने राजा को सत्य की परीक्षा में डाला, जिससे उनका समस्त राज्य, पत्नी और पुत्र भी छिन गया। अंततः सत्य और धर्म की विजय हुई और विश्वामित्र को यह अनुभूति हुई कि सच्चा ब्रह्मतेज सहनशीलता और आत्मसंयम में है, न कि प्रताड़ना और परीक्षा में।
एक बार विश्वामित्र ने स्वर्ग की सीढ़ी चढ़ ली, परंतु इंद्रदेव ने रोक दिया। ब्रह्मलोक से वशिष्ठ प्रकट हुए और बोले –"ब्रह्मर्षि वह होता है जो क्रोध, काम और अहंकार का दमन कर चुका हो।"
विश्वामित्र ने विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया:"वशिष्ठ! अब मैं समझ चुका हूँ। मेरा अहंकार ही मेरी सबसे बड़ी बाधा थी।"
उस क्षण वशिष्ठ ने उन्हें आलिंगन किया और कहा:"अब तुम ब्रह्मर्षि हो।"
वशिष्ठ और विश्वामित्र की यह महागाथा केवल एक प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि धैर्य, आत्म-परिवर्तन और सिद्धि की यात्रा है।
वशिष्ठ – धैर्य, ज्ञान और ब्रह्मतेज का प्रतीक विश्वामित्र – पुरुषार्थ, संघर्ष और आत्मबोध का प्रतीक यह कथा बताती है कि मनुष्य कितना भी नीचे क्यों न गिरे, यदि उसमें आत्म-संशोधन की शक्ति है, तो वह ब्रह्मर्षि भी बन सकता है।
जहाँ वशिष्ठ योग व ज्ञान के मार्ग के प्रवर्तक हैं, वहीं विश्वामित्र तप और पुरुषार्थ के प्रतीक। यह कथा हमें बताती है कि अंततः अहंकार का क्षय, क्षमा, धैर्य और समर्पण ही सच्चे ऋषित्व की पहचान है।