(एक भावनात्मक, सामाजिक और पारिवारिक कथा)
विनोद कुमार झा
रेत के घरौंदे... एक ऐसा नाम जो बचपन की कल्पनाओं और उम्मीदों से जुड़ा होता है। जब बच्चे समुद्र के किनारे बालू से अपने सपनों का महल बनाते हैं, तब उन्हें न तो आँधी का डर होता है और न ही लहरों का। वे सिर्फ निर्माण में विश्वास रखते हैं। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, जीवन की सच्चाइयाँ उस रेत में पड़े सपनों को बहा ले जाती हैं। इस कहानी का केंद्र भी ऐसा ही एक परिवार है, जिसने अपने जीवन की बुनियाद विश्वास और प्रेम की रेत पर रखी थी लेकिन जब समाज की लहरें उठीं, तो सब कुछ डगमगाने लगा।
यह कहानी सिर्फ रिश्तों की नहीं, बल्कि उन मूल्यों की भी है जो आज के समय में धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं। एक ओर महानगरीय जीवन की चमक है, जहां सब कुछ तेज़ है सपने भी और धोखा भी। दूसरी ओर एक छोटा-सा गांव है, जहां हर रिश्ता जीवंत होता है, पर वो विकास की दौड़ में पीछे छूट चुका है। इन दोनों दुनियाओं के बीच फंसी है यह कहानी भावनाओं, संघर्षों, और आत्मिक टूटन की।
‘रेत के घरौंदे’ सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि उन तमाम भारतीय परिवारों का दर्पण है जो सामाजिक बनावट, आर्थिक उलझनों और पारिवारिक अपेक्षाओं के बीच हर दिन खुद को तलाशते हैं। पिता का त्याग, माँ की चुप्पी, बेटे की महत्वाकांक्षा और बेटी की उपेक्षा ये सब इस कथा के पात्र हैं। और जब सब कुछ खोता हुआ लगता है, तब एक सवाल उठता है क्या रेत के घरौंदे दोबारा बन सकते हैं? एक साधारण परिवार टूटने के कगार पर आकर भी उम्मीद नहीं छोड़ता। यह यात्रा है मोह से मंथन तक, विघटन से पुनर्निर्माण तक, और सबसे ज़्यादा, रिश्तों के गहराते अर्थ की खोज तक है।
गाँव के कच्चे रास्तों पर धूल उड़ती थी, पर रमाकांत बाबू के सपनों में सदा एक शहर बसता था। वे विद्यालय में शिक्षक थे और उन्हें विश्वास था कि उनके बच्चे वह करेंगे, जो वे कभी नहीं कर पाए। उनका बेटा आरव होशियार था और बेटी संजना अत्यंत संवेदनशील। लेकिन उनकी पत्नी शोभा हमेशा कहती थीं"जो रेत से सपने देखता है, उसे आँधी से डरना नहीं चाहिए।"
रमाकांत ने जीवनभर ईमानदारी से कमाया और बच्चों की पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन एक शिक्षक की तनख्वाह कितनी थी? सपना बड़ा था बेटे को इंजीनियर बनाना और बेटी को पढ़ाकर आत्मनिर्भर बनाना। उन्होंने शहर भेजा आरव को। गांव के हर मोड़ पर लोगों की नज़रों में सम्मान था, क्योंकि "मास्टर साहब" का बेटा अब इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था।
पर समय ने करवट ली। शहर की चमक, दोस्ती, दिखावा और महत्वाकांक्षा ने आरव को उस दुनिया से दूर कर दिया जहां मूल्य, त्याग और रिश्तों का आदर था। संजना वहीं गांव में पढ़ रही थी और माँ का हाथ बंटा रही थी। शोभा जानती थीं कि कोई चीज़ बदल रही है बेटा अब कॉल पर भी बात करते समय "व्यस्त हूँ" कहने लगा था।
रमाकांत अब भी बेटे के उज्ज्वल भविष्य की बात करते थे, लेकिन शोभा की आँखों में एक धुंध सी जमने लगी थी। रेत का पहला घरौंदा बन चुका था, लेकिन हवाओं ने अपनी रफ्तार बढ़ा दी थी।
शाम के धुंधलके में रमाकांत बाबू ने डाकिये से एक लिफाफा लिया। लिफाफे पर आरव का नाम चमक रहा था मोहर लगी थी "इंडियन मल्टीटेक, मुंबई" की। वर्षों की तपस्या जैसे उस कागज़ में सिमट आई हो। रमाकांत बाबू की आँखें भर आईं"मेरा बेटा अब इंजीनियर बन गया!" शोभा रसोई में रोटी बेल रही थीं, जब रमाकांत ने उन्हें पुकारा, "सुनो, हमारा आरव अब बड़ा अफसर बन गया है!"
उस रात घर में उत्सव जैसा माहौल था। गांव के बच्चों को मिठाई बांटी गई, और संजना ने आँगन में दिया जलाया। लेकिन उस लिफाफे में एक और पत्र था—आरव का छोटा-सा नोट:
"पापा, मुझे मुंबई में नौकरी मिल गई है। मुझे लगता है, अब गांव में आकर समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। शहर की ज़िंदगी तेज़ है, सब कुछ यहीं है। आप दोनों का आना संभव हो तो बताइए। मैं यहां शिफ्टिंग की व्यवस्था कर दूँगा। लेकिन मुझे नहीं लगता कि संजना यहां एडजस्ट कर पाएगी। उसे गांव में ही रखिएगा।"
शोभा चुप थीं। रमाकांत के होंठ हिले लेकिन शब्द नहीं निकले। यह पहला संकेत था बेटा अब उस घर का नहीं रहा। वह अब एक नये संसार में था, जहां गांव, बहन, माँ ये सब केवल स्मृतियाँ थे। उसी रात शोभा ने बगल में लेटी संजना के सिर पर हाथ फेरा और धीरे से कहा "बेटियाँ रेत के घरौंदे की पहली दीवार होती हैं। पर कोई देखता नहीं… बस लहरों से टकराकर टूटती रहती हैं।"
संजना के अंदर एक अलग ही आग जल रही थी। वह जान चुकी थी कि भाई के लिए अब घर, माँ-पिता और वह सिर्फ भावनात्मक प्रतीक हैं, ज़िम्मेदारियाँ नहीं। पर संजना ने अपनी किताबों को थामे रखा। B.Ed के बाद उसने गांव के स्कूल में अस्थायी शिक्षिका की नौकरी पकड़ ली।
कई बार गांव के लड़के उसके पढ़ने पर टिप्पणी करते, कुछ कहते, "अब पढ़कर क्या करेगी? बहन है न इंजीनियर की!" लेकिन संजना जानती थी, अगर कुछ बदल सकता है तो वह शिक्षा है।
शोभा ने कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके चेहरे पर संतोष की रेखाएं थीं। जैसे वे जानती थीं कि घर की रेत को जोड़े रखने वाला अब बेटा नहीं, बेटी है।
उधर आरव अब कॉरपोरेट की दुनिया में जम गया था। ऑफिस के डिनर, टीम मीटिंग, सैलरी इंक्रीमेंट और प्रमोशन की दौड़ में वह अब अपनी पुरानी ज़िंदगी को 'पिछली कहानी' कहता था। मां के फोन पर बातें 'कम', और कभी-कभी 'कठोर' हो गईं।
रमाकांत अब भी हर शाम आकाश की ओर देखते, मानो बेटे की किसी कॉल की प्रतीक्षा कर रहे हों। कभी कहते, "आज शायद वीडियो कॉल करेगा।"लेकिन रेत का घरौंदा अब दरक रहा था।
शोभा ने एक दिन चुपचाप एक चिट्ठी लिखी: "बेटा, तू अब बड़ा अफसर बन गया है, हमें तुझ पर गर्व है। लेकिन जब तू छोटा था, तब तू बिना मेरे छुए सोता नहीं था। अब महीनों हो जाते हैं तेरी आवाज़ सुने।
तेरी बहन तुझसे बहुत प्रेम करती है, तू तो जानता है उसे तुझसे ज़्यादा किसी पर भरोसा नहीं। वह अब शिक्षिका बन गई है। कभी उसके बारे में भी सोच लेना। तेरे पापा अब पहले जैसे नहीं रहे। बहुत चुप रहते हैं। उनकी आंखें तुझे ढूंढती हैं, बेटा।अगर समय हो तो एक बार आ जाना।
माँ" चिट्ठी पोस्ट कर दी गई। महीनेभर तक कोई उत्तर नहीं आया। पर फिर एक दिन, एक वॉट्सऐप मैसेज आया "Sorry mom, things are too tight. Next quarter I'll try." शोभा की आँखें नम हो गईं। चिट्ठी ने भावों का समंदर भेजा था, पर उत्तर... एक टेक्स्ट।
एक शाम रमाकांत बाबू बेहोश हो गए। ब्लड प्रेशर, शुगर और वर्षों का अवसाद सबने उन्हें भीतर से तोड़ दिया था। अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने कहा "मस्तिष्क पर असर पड़ा है। संभवतः अधिक चिंता और मानसिक दबाव का परिणाम है।"
संजना भागकर अस्पताल आई। शोभा लगातार मंत्र जप रही थीं "ॐ त्र्यम्बकं यजामहे..."
कई बार आरव को कॉल किया गया। फोन नहीं उठा। फिर एक दिन संजना ने ज़ोर से कहा"क्या एक बेटा अपने बीमार पिता को भी समय नहीं दे सकता?"
दो दिन बाद आरव आया। महंगे कपड़े, स्मार्टफोन, पर चेहरे पर अपराधबोध की परछाईं थी। पापा को ICU में देखकर वह फूट पड़ा। शोभा बस खड़ी रहीं। संजना ने धीरे से कहा "ये घर अब तेरा स्वागत नहीं करता, पर मां की ममता अब भी तेरे गले लगने को तैयार है।"
रमाकांत बाबू होश में आए। धीरे से बोले "आरव, रेत के घरौंदे अगर फिर बनते हैं, तो उन्हें संभालना सीख ले बेटा। अबकी बार लहरें सहमा नहीं सकतीं…"
आरव कुछ दिन गांव में रहा। उसने पहली बार देखा कि संजना कितनी बड़ी हो चुकी थी एक स्त्री, जो अब घर की रीढ़ थी। उसने माँ से माफ़ी मांगी और पापा के इलाज में साथ दिया। फिर आरव ने कहा "मैं अब हर महीने गांव आऊंगा। लेकिन शहर और गांव दोनों को जोड़ने का एक रास्ता निकालना होगा।"
उसने गांव में एक डिजिटल क्लासरूम बनवाया। संजना अब वहां बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाती थी। गाँव में यह पहला स्कूल था जो शहर से जुड़ा था। रमाकांत बाबू ठीक हुए और एक दिन बोले"रेत के घरौंदे फिर बन सकते हैं, अगर प्यार से जोड़ने वाला हाथ हो।"
वर्षों बाद, गांव की वही धूलभरी गली में एक बोर्ड टंगा था "संजना डिजिटल पब्लिक स्कूल"। शोभा आँगन में तुलसी सींचती थीं, रमाकांत बच्चों को संस्कार पढ़ाते, और आरव अब हर दो महीने आकर गांव के बच्चों को करियर काउंसलिंग देता।एक दिन संजना ने पुराने कागज़ों में वह लिफाफा निकाला जिसमें आरव की पहली जॉब की चिट्ठी थी। और उस पर पेंसिल से लिखा एक वाक्य "हर रिश्ता अगर लहरों से बच गया, तो रेत का घर भी मंदिर हो सकता है।"