समय से पहले दस्तक देता मानसून

 इस वर्ष दक्षिण-पश्चिमी मानसून ने भारतीय उपमहाद्वीप के द्वार असाधारण रूप से जल्दी खटखटाए हैं। मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, यह 2009 के बाद पहली बार हुआ है जब मानसून 25 मई को ही केरल पहुँच गया, जबकि सामान्यतः इसका आगमन एक जून के आसपास होता है। मौसम संबंधी यह घटनाक्रम न केवल असामान्य है बल्कि भारत की कृषि, जल प्रबंधन और पर्यावरणीय स्थिरता के लिए भी दूरगामी संकेत देता है।

केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में मानसूनी वर्षा की प्रारंभिक झड़ी न केवल मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियों की पुष्टि करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि वैश्विक जलवायु प्रणाली में परिवर्तन की लहर अब और भी तीव्र होती जा रही है। IMD के अनुसार, 1975 से लेकर अब तक का सबसे जल्दी मानसून वर्ष 1990 में आया था 19 मई को। इस वर्ष का आगमन उस ऐतिहासिक घटना के बहुत करीब है, जो सामान्य मानसूनी चक्र में बदलाव का स्पष्ट संकेत देता है।

भारत एक कृषि प्रधान देश है जहाँ कृषि का लगभग 60% भाग मानसून पर ही निर्भर करता है। वर्ष 2024 में देश ने औसतन 108% वर्षा प्राप्त की, जो 50 वर्षों के औसत 87 सेंटीमीटर से कहीं अधिक है। इससे पूर्व 2020 में इतनी ही प्रचुर वर्षा देखी गई थी। ऐसे में यदि इस वर्ष भी मानसून सामान्य से अधिक वर्षा लेकर आता है, तो यह जल संसाधनों, कृषि उत्पादन और ग्रामीण आजीविका के लिए एक बड़ी राहत बन सकता है। लेकिन हर वरदान के साथ कुछ चुनौतियाँ भी जुड़ी होती हैं। समय से पहले और अनियमित मानसून फसलों के चक्र को बिगाड़ सकते हैं। ऐसे में बुवाई और कटाई की समय-सारिणी को नए सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता पड़ सकती है। जलभराव, बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाएं ग्रामीण और शहरी इलाकों दोनों के लिए चिंताजनक हो सकती हैं। अतः हमें इस वर्षा के उत्सव में यह नहीं भूलना चाहिए कि तैयारी और सतर्कता ही आपदा को अवसर में बदल सकती है।

विगत कुछ वर्षों से वैश्विक जलवायु प्रणाली में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। 2023 में भारत में हुई केवल 94.4% बारिश हो या अल नीनो की स्थिति इन सबने मानसून की तीव्रता और स्वरूप पर असर डाला है। अल नीनो प्रभाव, जो आमतौर पर कम वर्षा से जुड़ा होता है, इस वर्ष कमजोर रहा और यही कारण है कि अप्रैल में IMD ने सामान्य से अधिक वर्षा का पूर्वानुमान जताया था। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो समय से पहले मानसून का आगमन एक व्यापक वैश्विक असंतुलन का द्योतक है। यह जलवायु परिवर्तन की उस अदृश्य लहर की झलक है, जो धीरे-धीरे दुनिया भर में मौसम संबंधी नियमों को बदल रही है। भारत को अब केवल मानसून के आने-जाने की तारीखों से आगे सोचना होगा; हमें अपने कृषि चक्र, जल संरक्षण प्रणालियों और आपदा प्रबंधन को इस नई जलवायु वास्तविकता के अनुरूप ढालना होगा।

जल संचयन, सिंचाई संरचनाओं की मरम्मत, नदी-नालों की सफाई, और सूखा-बाढ़ के लिए समय से पूर्व चेतावनी प्रणाली का सुदृढ़ीकरण आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। समय पर और सटीक पूर्वानुमान देने वाले तकनीकी संसाधनों का विस्तार गाँवों तक किया जाना चाहिए। साथ ही, किसानों को प्रशिक्षित किया जाए कि वे मौसम के अनुसार फसल योजना बनाएं, विविध फसलों की ओर रुझान करें और सरकार की जलवायु-लचीली कृषि नीतियों से जुड़ें। नदियों के किनारे बसे शहरी क्षेत्रों में जलभराव से निपटने की योजना बनाई जाए और प्लास्टिक जैसी जल नाली अवरुद्ध करने वाली सामग्रियों पर कठोर नियंत्रण लागू हो। मानसून केवल एक मौसम नहीं, यह भारतीय जनजीवन की जीवनरेखा है। इसका जल्दी आना अगर एक तरफ संभावनाओं का द्वार खोलता है, तो दूसरी ओर सावधानियों की माँग भी करता है। हमें इसे केवल एक तिथि या आंकड़े के रूप में नहीं देखना चाहिए, बल्कि यह समझना चाहिए कि प्रकृति हमें क्या संकेत दे रही है। आइए, इस समय से पूर्व मानसून को केवल स्वागत योग्य खबर मानने की बजाय इसे एक चेतावनी के रूप में भी लें कि प्रकृति अब स्पष्ट रूप से हमें उसके संतुलन के साथ खिलवाड़ करने से मना कर रही है। समय है कि हम इस संकेत को समझें, और एक जलवायु-संवेदनशील, प्रकृति-संरक्षक भारत की दिशा में ठोस कदम उठाएं।

लेखक: विनोद कुमार झा



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