- एक टूटती-बिखरती पहचान की कहानी
लेखक: विनोद कुमार झा
शहर के सबसे पुराने हिस्से में एक दोमंज़िला मकान था ईंटों से बना, पेंट उखड़ा हुआ, खिड़कियाँ लकड़ी की जिनमें अब ज़्यादा धूप नहीं आती थी। उसका नाम था "सआदत निवास"। उस मकान की दीवारें, ज़ंग खाए ताले और दरवाज़ों की चरमराहट एक कहानी कहती थी पुरानी ज़िंदगी की कहानी।
"दादी, ये फोटो में कौन हैं?" आठ साल की परी ने एक पुरानी एल्बम खोलते हुए पूछा।
"वो तेरे बाबा हैं, जब तेरा पापा उनकी गोद में था," बूढ़ी फातिमा बानो की आँखों में चमक आ गई। "वो वक्त भी क्या वक्त था बेटा…"
फातिमा बानो अब 78 की थीं। उनके तीन बेटे थे अमजद, राशिद और साबिर। समय के साथ तीनों बेटे अपनी दुनिया में मशगूल हो गए। अमजद दिल्ली में बड़ा बिज़नेसमैन बन गया था, राशिद अमेरिका चला गया और साबिर ने तो शादी के बाद नाता ही तोड़ लिया।
सआदत निवास अब सिर्फ फातिमा बानो, उनके पुराने नौकर रमज़ान और घर के खंडहरों की साँसें था।
एक दिन राशिद का खत आया। उसमें लिखा था: "अम्मी, इस बार आने की बहुत कोशिश करूँगा। मगर तुम समझ सकती हो, यहाँ ज़िम्मेदारियाँ बहुत हैं। आमिर की पढ़ाई, सना की तबीयत… सब संभालना मुश्किल होता है।"
फातिमा बानो खत को अपने सीने से लगा लेतीं। हर चिट्ठी उनके लिए सौगात होती थी। मगर चिट्ठियों में अब वो गरमाहट नहीं थी।
"सब बदल गया रमज़ान," उन्होंने एक शाम कहा, "पहले बेटा दूध पीकर मेरे गले लगकर सोता था, अब वही बेटा मुझे फोन पर 'बिजी हूँ' कहकर काट देता है।"
एक दिन रमज़ान ने पुराने बक्से में से एक डायरी निकाली। फातिमा बानो की आँखें भर आईं।
“ये तो मेरे हबीब की डायरी है।”
हबीब उर रहमान, उनके दिवंगत पति, स्कूल मास्टर थे। डायरी में हर रोज़ की बातें, बच्चों की छोटी-छोटी हरकतें, मोहल्ले की चाय पर होने वाली बैठकों के ज़िक्र थे।
"राशिद आज स्कूल से भाग गया था, मगर घर आकर मुझसे लिपट गया। कहता है अब्बू, आपसे डर लगता है, प्यार भी बहुत आता है।" फातिमा ने वो पन्ना चूमा और आँसू पोंछ लिए।
दीवाली अब उनके लिए अकेले बिताने का त्यौहार बन गया था। मुसलमान होते हुए भी वो ये त्यौहार मोहल्ले के हिन्दू बच्चों के साथ मनाती थीं।
“दादी, हम रौशनी करेंगे ना इस बार भी?” परी ने पूछा।
“ज़रूर बेटा। जब तक तुम हो, सआदत निवास में अंधेरा नहीं होगा।” दीयों की रोशनी में फातिमा की झुर्रियाँ भी चमकने लगी थीं।
एक दिन अचानक अमजद आ गया। साथ में उसकी पत्नी और दो बच्चे। “अम्मी, सोचा कुछ दिन आपके साथ रह लें।”
राशिद भी दस साल बाद अमेरिका से आया। उसका चेहरा बदला हुआ था, आँखों में अपराधबोध साफ़ झलक रहा था।
“अम्मी… मैंने बहुत देर कर दी।” फातिमा बानो ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ उन्हें गले लगा लिया। उनका दिल माँ था न कोई शिकायत, न हिसाब।
सआदत निवास अब फिर से भर गया था, लेकिन इस बार मोहब्बत की जगह मतभेदों से। “माँ, ये घर तो बहुत पुराना हो गया है। हम इसे बेचकर नई जगह चलें,” अमजद ने कहा।
“यहाँ सिर्फ़ ईंटें नहीं हैं बेटा, ये तुम्हारे अब्बा की आख़िरी निशानी है।” राशिद और अमजद ने माँ को समझाने की बहुत कोशिश की। मगर उनके हर शब्द के जवाब में फातिमा की चुप्पी होती।
फातिमा बानो ने एक खत लिखा:"जब मैं इस दुनिया में नहीं रहूँगी, तब भी सआदत निवास को मत छोड़ना। इसमें सिर्फ मेरी साँसें नहीं, तुम्हारी बचपन की हँसी, अब्बा की महक और हमारे रिश्तों की गर्मी बसी है।"
खत बक्से में रखकर वो रोज़ की तरह कुरान पढ़ने बैठ गईं।अगली सुबह फातिमा बानो की साँसें थम चुकी थीं।
बेटों ने बहुत प्रयास किया कि घर न बिके, पर हालात ऐसे बने कि अंततः उन्होंने घर बेचने का निर्णय ले लिया। एक रियल एस्टेट एजेंट आया।
“बहुत पुराना मकान है। मगर भावनाओं से भारी,” एजेंट बोला।परी ने सुना तो रोने लगी। “दादी तो कहती थीं, ये घर जिंदा है…”
सालों बाद, परी एक लेखिका बन चुकी थी। उसने अपनी पहली किताब लिखी “पुरानी ज़िंदगी”।
उसने किताब के अंतिम पन्ने पर लिखा:"वो घर अब नहीं रहा। मगर उसकी दीवारों की कहानियाँ अब मेरी कहानियाँ हैं। दादी कहती थीं जिन घरों में रिश्ते ज़िंदा रहते हैं, वहाँ दीवारें भी साँस लेती हैं।"
“पुरानी ज़िंदगी” सिर्फ एक कहानी नहीं, एक एहसास है कि रिश्ते अगर समय पर संभाले न जाएँ, तो दीवारें बेजान और दिल वीरान हो जाते हैं।