22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने न केवल भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को फिर से सतह पर ला दिया है, बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप के लिए शांति और स्थिरता की चुनौती को और जटिल बना दिया है। इस हमले में 26 निर्दोष लोगों की जान जाना एक त्रासदी है, और इससे उपजे आक्रोश और असुरक्षा की भावना को समझा जा सकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सेना को कार्रवाई की खुली छूट देना इस बात का संकेत है कि भारत अब केवल कूटनीतिक तरीकों से ही नहीं, बल्कि निर्णायक सैन्य विकल्पों पर भी विचार करने को तैयार है। दूसरी ओर, पाकिस्तान के राजदूत रिजवान सईद शेख और पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो जरदारी की अपीलें इस ओर इशारा करती हैं कि पाकिस्तान इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीयकरण की राह पर ले जाना चाहता है खासकर अमेरिका जैसे प्रभावशाली देशों को इसमें शामिल कर।
कश्मीर का मसला वर्षों से दक्षिण एशिया का सबसे जटिल, भावनात्मक और विस्फोटक मुद्दा रहा है। यह सच है कि भारत, पाकिस्तान और चीन तीनों परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं, और किसी भी सीमा पर तनाव न केवल क्षेत्रीय, बल्कि वैश्विक शांति के लिए खतरा बन सकता है। अमेरिकी रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री की प्रतिक्रियाएँ यह स्पष्ट करती हैं कि अमेरिका फिलहाल संतुलित रुख अपनाने की कोशिश कर रहा है भारत के आत्मरक्षा के अधिकार को मान्यता देते हुए, लेकिन दोनों पक्षों से संयम की अपील करते हुए।
फिर भी, एक बुनियादी सवाल अनुत्तरित रह जाता है: क्या केवल अंतरराष्ट्रीय अपीलों या मध्यस्थता से इस संकट का समाधान हो सकता है? अनुभव कहता है कि जब तक भारत और पाकिस्तान आपसी संवाद और विश्वास की बहाली के लिए गंभीर प्रयास नहीं करेंगे, तब तक बाहरी शक्तियों की मध्यस्थता केवल अस्थायी राहत ही दे सकती है।
भारत की दृष्टि से कश्मीर का प्रश्न एक आंतरिक मुद्दा है, जबकि पाकिस्तान उसे एक अंतरराष्ट्रीय विवाद के रूप में प्रस्तुत करता रहा है। दोनों देशों की इस बुनियादी असहमति ने ही दशकों तक शांति की राह को अवरुद्ध रखा है। इसके अलावा, सीमा पार आतंकवाद और चरमपंथियों को मिलने वाला समर्थन भारत की सबसे बड़ी सुरक्षा चिंता है, जिससे पाकिस्तान को विश्वसनीयता की भारी चुनौती झेलनी पड़ती है।
आगे की राह मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं। इसके लिए ज़रूरी है:
1. पाकिस्तान अपनी ज़मीन से आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के लिए ठोस और पारदर्शी कदम उठाए।
2. भारत कश्मीर के भीतर आम नागरिकों के बीच विश्वास बहाली के लिए राजनीतिक संवाद को प्रोत्साहित करे।
3. दोनों देशों के बीच ‘ट्रैक-2’ संवाद — जिसमें बुद्धिजीवी, पत्रकार, कारोबारी और नागरिक समाज शामिल हों — को मज़बूती दी जाए।
4. अमेरिका और अन्य महाशक्तियाँ शांति के लिए समर्थन दें, लेकिन समाधान को थोपने की कोशिश न करें।
कश्मीर की समस्या का हल केवल सैन्य या राजनयिक उपायों में नहीं है, बल्कि उसमें जनता की आकांक्षाओं, क्षेत्रीय संतुलन और राजनीतिक साहस का सम्मान भी शामिल है। पहलगाम जैसी घटनाओं के बाद यदि हम फिर से सिर्फ बदले की भाषा में उलझकर रह जाएँ, तो न केवल निर्दोष लोग बार-बार शिकार बनेंगे, बल्कि भविष्य की संभावनाओं पर भी धुंध छा जाएगी। अब वक्त है, कि दोनों देश अपने-अपने भीतर और एक-दूसरे के साथ एक गंभीर आत्मचिंतन करें।