आतंक के खिलाफ अडिग संकल्प की दरकार

विनोद कुमार झा

पहलगाम हमले ने देश को एक बार फिर झकझोर कर रख दिया है। दक्षिण कश्मीर के खूबसूरत पर्यटन स्थल पर हुआ यह हमला न केवल निर्दोष नागरिकों की जान ले गया, बल्कि देश की सुरक्षा व्यवस्था और आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई पर भी गंभीर सवाल खड़े कर गया। ऐसे में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का यह स्पष्ट संदेश कि ‘‘किसी भी आतंकी को बख्शा नहीं जाएगा,’’ पीड़ितों और देश की जनता के लिए आश्वासन की तरह आया है।  

शाह के शब्दों में सिर्फ आक्रोश नहीं, बल्कि एक स्पष्ट नीति का संकेत झलकता है आतंकवाद के प्रति ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति। मोदी सरकार का यह रुख बीते वर्षों में कई अवसरों पर सामने आया है, और पहलगाम के मामले में भी सरकार ने यही रुख अपनाया है। ‘‘हम हर दोषी को ढूंढ निकालेंगे’’ यह वादा न केवल पीड़ितों के परिवारों के लिए न्याय की उम्मीद जगाता है, बल्कि देश के नागरिकों को भी भरोसा दिलाता है कि सरकार आतंकी ताकतों के सामने झुकने वाली नहीं है।  

हालांकि, हमें यह भी समझना होगा कि सिर्फ कठोर बयान या सैन्य कार्रवाइयों से आतंकवाद की जड़ें नहीं कटतीं। आतंकवाद केवल बंदूकों से नहीं, विचारधाराओं से भी लड़ता है। इसलिए सुरक्षा बलों की कार्रवाई के साथ-साथ सरकार को स्थानीय लोगों का विश्वास जीतना, विकास के अवसर पैदा करना, युवाओं को मुख्यधारा से जोड़ना और चरमपंथी विचारधाराओं को बेनकाब करना भी ज़रूरी है।  

पहलगाम में मारे गए 26 निर्दोष लोगों की मौत हमें यह याद दिलाती है कि आतंकवादियों का कोई धर्म, जाति या इंसानियत नहीं होती। वे देश के भीतर डर, अस्थिरता और नफरत फैलाना चाहते हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए सिर्फ सुरक्षा बल ही नहीं, बल्कि एकजुट समाज और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।  

असम में बोडो नेता उपेंद्र नाथ ब्रह्मा की प्रतिमा का अनावरण और सड़क का नामकरण कार्यक्रम, जहाँ यह बयान दिया गया, अपने आप में एक प्रतीकात्मक संदेश देता है एक ऐसे नेता का सम्मान जिसने अपने समुदाय को सशक्त किया और हिंसा का रास्ता छोड़कर लोकतंत्र की राह दिखाई। यह संदेश कश्मीर समेत उन सभी क्षेत्रों के लिए महत्वपूर्ण है, जहाँ युवाओं को हिंसा की राह पर बहकाया जाता है।  

अंततः, सरकार को न केवल आतंकियों को सजा दिलाने की दिशा में कठोरता दिखानी होगी, बल्कि कश्मीर की ज़मीन पर स्थायी शांति और विश्वास बहाली के लिए दीर्घकालिक नीति भी अपनानी होगी। 26 परिवारों का दुख केवल आँकड़ा नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय पीड़ा है और इसका जवाब आतंक के हर चेहरे को बेनकाब करके, विकास के रास्ते खोलकर और कश्मीर की आत्मा को फिर से जोड़कर ही दिया जा सकता है।  क्या हम सब, एक नागरिक के तौर पर, सरकार और समाज के इस साझा संकल्प में अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं? यह सवाल आज हम सबके सामने है।

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