पिछले लेख में हमने पहलगाम जैसे आतंकी हमलों की भयावहता और मानवता पर उनके प्रहार की चर्चा की थी। लेकिन केवल रोष और दुःख व्यक्त करना पर्याप्त नहीं है; हमें यह भी सोचना होगा कि ऐसे हमलों को रोकने के लिए क्या किया जा सकता है, और इसमें सरकारों, समाज और वैश्विक समुदाय की क्या भूमिका हो सकती है।
1. वैचारिक युद्ध की शुरुआत जरूरी है
आतंकवाद केवल बंदूक और बम से पैदा नहीं होता, यह विचारों की प्रयोगशाला में तैयार होता है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया जैसे देशों में युवाओं को भटकाने के लिए धर्म की गलत व्याख्या की जाती है, और यही कट्टरता उन्हें “मरने-मारने” के रास्ते पर धकेलती है। इसके लिए ज़रूरी है कि मुस्लिम देशों में उदारवादी और आधुनिक धार्मिक नेता सामने आएं, जो इस विकृत विचारधारा को चुनौती दें और युवाओं के लिए सही मार्गदर्शन बनें।
2. अंतरराष्ट्रीय दबाव और आर्थिक नकेल
पाकिस्तान जैसे देशों को केवल संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों से नहीं, बल्कि ठोस आर्थिक और राजनीतिक दबाव से सुधारा जा सकता है। आतंकवाद को समर्थन देने वाले देशों पर वित्तीय प्रतिबंध, व्यापार में कटौती, और वैश्विक मंचों पर अलग-थलग करना जरूरी है, ताकि उन्हें साफ संदेश जाए कि आतंकवाद को पालना कोई विकल्प नहीं है।
3. स्थानीय युवाओं का सशक्तिकरण और पुनर्वास
यह समझना होगा कि गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और हताशा ही आतंकियों की भर्ती के सबसे बड़े कारण हैं। अगर युवाओं को अच्छी शिक्षा, रोज़गार और सम्मानजनक जीवन मिलेगा, तो उनके लिए बंदूक उठाना आसान नहीं होगा। अंतरराष्ट्रीय संगठनों, एनजीओ और सरकारों को मिलकर आतंकी प्रभावित क्षेत्रों में विकास योजनाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए।
4. सोशल मीडिया और प्रचार तंत्र पर नियंत्रण
आज का आतंकी युद्ध केवल सीमाओं पर नहीं, बल्कि इंटरनेट पर लड़ा जा रहा है। भड़काऊ वीडियो, भाषण और मैसेज के ज़रिये युवाओं को कट्टरता की ओर खींचा जाता है। इसके लिए तकनीकी कंपनियों, सरकारों और साइबर एजेंसियों को मिलकर काम करना होगा, ताकि ऐसे कंटेंट को रोका जाए और ज़िम्मेदार सोशल मीडिया का निर्माण किया जाए।
5. सीमा-पार आतंकवाद पर निर्णायक नीति
भारत के संदर्भ में देखा जाए, तो पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर “संयम” की नीति अब सवालों के घेरे में है। भारत को अपनी सुरक्षा नीति में लचीलापन और कठोरता का संतुलन बनाना होगा, ताकि हर आतंकी हमले के बाद केवल बयानबाज़ी न हो, बल्कि प्रत्यक्ष, ठोस और निर्णायक कार्रवाई हो।
6. वैश्विक मानवाधिकार का पुनर्परिभाषण
जब आतंकी निर्दोष लोगों का कत्ल करते हैं, तब मानवाधिकार की सबसे बड़ी हत्या होती है। इस पर अंतरराष्ट्रीय मंचों को फिर से सोचना होगा कि आतंकवाद से निपटने में “मानवाधिकारों” की आड़ में देशों की कार्रवाई को कमजोर न किया जाए। पीड़ितों के अधिकार और मानवता की रक्षा आतंकियों के अधिकारों से कहीं ज़्यादा अहम होनी चाहिए।
7. मीडिया की भूमिका
मीडिया को भी अपनी भूमिका जिम्मेदारी से निभानी होगी। आतंकियों को “हीरो” की तरह प्रस्तुत करना, उनकी क्रूरता का सनसनीखेज प्रदर्शन, और डर का माहौल फैलाना, आतंक के इकोसिस्टम को मज़बूत करता है। मीडिया को संवेदनशील, सटीक और संतुलित रिपोर्टिंग करनी होगी।
आतंकवाद कोई देश, धर्म या समुदाय की समस्या नहीं, यह मानवता की समस्या है। पहलगाम जैसे हमलों को रोकने के लिए ज़रूरी है कि हम सब सरकार, समाज, धार्मिक नेता, मीडिया और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ मिलकर नफरत की जड़ों को काटें। केवल सैनिक या पुलिस ही आतंक को नहीं रोक सकते; हमें अपने बच्चों को ऐसा समाज देना होगा जहाँ उन्हें बंदूक नहीं, किताब और क़लम थामने में गौरव महसूस हो। अगर आज हम नहीं जागे, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमसे पूछेंगी “जब इंसानियत डूब रही थी, तब तुम क्या कर रहे थे?”