“आतंक की छाया में मानवता: पहलगाम हमला और हमारा मौन”

कहते हैं “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।” लेकिन जब हम पहलगाम जैसे हमलों की खबर सुनते हैं, जहां आतंकियों ने एक निर्दोष पति को उसकी पत्नी के सामने मजहब पूछकर गोली मार दी, तब यह पंक्ति केवल किताबों और भाषणों तक सीमित प्रतीत होती है। पहलगाम हमला न केवल एक भयावह त्रासदी है, बल्कि यह हमारे समय का वह कड़वा सच है, जिसे बार-बार अनदेखा किया गया, और जिसकी अनदेखी की कीमत अब निर्दोष नागरिक अपने खून से चुका रहे हैं।

आतंकवादियों का कोई मजहब नहीं होता  यह वाक्य भी बार-बार दोहराया जाता है, लेकिन पहलगाम जैसी घटनाएं इस कथन की नींव को हिला देती हैं। जब कोई हमलावर मजहब पूछकर गोली चलाए, तो क्या यह केवल राजनीतिक उद्देश्य है या इसके पीछे धार्मिक कट्टरता भी काम कर रही है? क्या आतंकवाद के कारखाने, जो पाकिस्तान की धरती पर पलते-बढ़ते हैं, केवल भटकाव या गरीबी का परिणाम हैं, या उनके भीतर मजहबी उन्माद की चिंगारी भी जान-बूझकर फूंकी जाती है?

पाकिस्तान के आतंकी प्रशिक्षण शिविरों में जो युवा तैयार किए जाते हैं, वे किसी की गोद में खेले होते हैं, किसी मां की ममता में पले होते हैं। लेकिन वे कब “आतंकी” बन जाते हैं? क्यों उनके भीतर बचपन की मासूमियत खोकर खून की प्यास जाग उठती है? इसका उत्तर केवल आर्थिक या राजनीतिक नहीं, बल्कि वैचारिक और धार्मिक कट्टरता में छिपा है। आतंक का यह व्यापार नफरत, भ्रम और गलत धार्मिक व्याख्याओं के सहारे फलता-फूलता है, जहां उन्हें “शहादत” का सपना दिखाकर मौत का सौदागर बना दिया जाता है।

आखिर क्यों पाकिस्तान की धरती आतंकवाद की प्रयोगशाला बन चुकी है? क्यों वहां के मदरसे, शिविर और संगठन अपने युवाओं को जीवन निर्माण नहीं, बल्कि जीवन विनाश की शिक्षा दे रहे हैं? क्यों वहां का शासन, वहां की राजनीति, बार-बार अपने ही गरीब घरों के बेटों को बंदूक पकड़ाकर दूसरे देशों की शांति पर हमला करने भेज देती है? इसका उत्तर हमें अंतरराष्ट्रीय कूटनीति, राजनैतिक इच्छाशक्ति और धार्मिक नेताओं की भूमिका में खोजना होगा।

भारत जैसे देश में, जहां सहिष्णुता और विविधता का दीपक जलता रहा है, वहां ऐसी घटनाएं हमारी अंतरात्मा को झकझोरती हैं। पहलगाम में मारे गए उस नवविवाहित पति की चीख, उसकी पत्नी की टूटी हुई दुनिया और उनके परिवार का रोता-सिसकता भविष्य यह सब हमारे समाज, हमारी सरकार और हमारी सामूहिक चेतना के लिए एक प्रश्नचिह्न है।

कब तक हम “आतंकी का कोई धर्म नहीं होता” का जप करते रहेंगे, जबकि हम जानते हैं कि उनके भीतर मजहब की विकृत व्याख्या रग-रग में भरी जाती है? कब तक हम राजनीतिक भाषणों और कागजी निंदा प्रस्तावों तक सीमित रहेंगे? कब तक हम उन गरीब मां-बाप को खोते देखेंगे, जिनके बेटे आतंकवाद की आग में झोंक दिए जाते हैं?

जरूरत इस बात की है कि हम सिर्फ आतंक का मुकाबला गोलियों और बमों से न करें, बल्कि विचारधारा के स्तर पर भी लड़ें। पाकिस्तान समेत पूरी दुनिया को यह समझाना होगा कि आतंक का मजहब से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए न पालन-पोषण में, न प्रशिक्षण में, न उद्देश्य में। यह जिम्मेदारी केवल सरकारों की नहीं, बल्कि पूरे वैश्विक समुदाय की है कि आतंक के कारखानों को ध्वस्त किया जाए, चाहे वे कहीं भी हों।

मानवता की सबसे बड़ी त्रासदी तब शुरू होती है, जब इंसान, इंसान को मारने लगे और उसे “धर्म” का नाम दे दे। पहलगाम का हमला केवल एक स्थान विशेष की घटना नहीं, बल्कि हमारे दौर की आत्मा पर लगा घाव है। यह हमें याद दिलाता है कि इंसानियत को बचाने के लिए अब केवल शोक मनाना काफी नहीं, बल्कि साहसिक कदम उठाने होंगे।

यदि हम सच में चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित, शांतिपूर्ण और मानवीय दुनिया मिले, तो हमें आतंक की जड़ों पर प्रहार करना होगा न कि केवल उसकी शाखाओं पर। और यह तभी होगा, जब हम ईमानदारी से स्वीकार करें कि आतंक के पीछे मजहबी कट्टरता का जहर कितना बड़ा कारक है, और उसे बेनकाब कर सकें।

कहीं ऐसा न हो कि हम “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” दोहराते-दोहराते अपनी ही मानवता खो बैठें।

(जारी है....)



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