मां की जुबानी वट सावित्री व्रत की कहानी
जब धरती पर सूर्य की किरणें नवजीवन का स्पर्श करती हैं और वटवृक्ष की शीतल छाया में सैकड़ों सुहागिनें मंगल-गान गुनगुनाती हैं तब एक अद्भुत दृश्य साकार होता है। यह कोई साधारण दिन नहीं, यह वट सावित्री व्रत का दिन है जहाँ नारी सिर्फ पूजा नहीं करती, वह अपने पति के जीवन के लिए यमराज से भी लड़ जाती है।
यह पर्व केवल एक पूजा नहीं, बल्कि स्त्री की श्रद्धा, शक्ति और प्रेम का ऐसा जीवंत अभिनय है, जहाँ सिंदूर की एक रेखा में उसका समर्पण, मंगलसूत्र में उसकी आस्था, और लावा के हर कण में उसका अदम्य संकल्प समाहित होता है।
हर पग पर लोकगीतों की मिठास, हर हाथ में पूजा की टोकरी, हर माथे पर समर्पण की रेखा और हर आँख में अपने प्रिय के लिए सदा सुहाग की कामना यही है वट सावित्री व्रत। यह पर्व केवल परंपरा नहीं, बल्कि उन अनगिनत नारियों की कथा है जो हर युग में सावित्री बनकर अपने सत्यवान के लिए मृत्यु से भी टकरा जाती हैं। यह पर्व है श्रद्धा बनाम मृत्यु का, संकल्प बनाम नियति का, और प्रेम बनाम काल का एक ऐसा पर्व जो हर स्त्री को एक देवी में बदल देता है। आइए जानते हैं विस्तार से...
कथा: भद्रदेश के राजा अश्वपति एक धर्मात्मा, न्यायप्रिय और प्रजा का पालन करने वाले राजा थे। लेकिन उनके कोई संतान नहीं थी। तब उन्होंने अपनी पत्नी महारानी मालविका से अनुमति लेकर वन में जाकर पराशर मुनि के निर्देशानुसार गायत्री अनुष्ठान किया। देवी गायत्री की कृपा से उन्हें एक पुत्री की प्राप्ति हुई। चूंकि वह कन्या गायत्री अनुष्ठान के प्रभाव से प्राप्त हुई थी, इसलिए उसका नाम सावित्री रखा गया।
सावित्री परम सुंदर, सर्वगुण संपन्न और अत्यंत सुशील राजकुमारी थीं। उनकी माता मालविका ने उन्हें बचपन से ही उत्तम शिक्षा, स्त्री धर्म, घर-गृहस्थी की मर्यादाएं, सेवा, संयम आदि का गहन प्रशिक्षण दिया। बाल्यकाल में जो संस्कार दिए जाते हैं, वही आगे जीवन भर व्यक्ति की उन्नति या अवनति का कारण बनते हैं। सावित्री को भी अपनी माँ से पति-भक्ति, सास-ससुर की सेवा, आज्ञाकारिता और संयम के ऐसे गहरे अभ्यास मिले कि आगे चलकर वही गुण उनके जीवन को सुखमय बना गए।
सावित्री अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थीं, इसलिए अत्यंत लाड़-प्यार से पलीं। राजसी सुख, उत्तम भोजन, वस्त्र, अलंकार और शयन-सुविधाएं उन्हें सुलभ थीं। इसी सुख में उनका बाल्यकाल बीता। जब सावित्री विवाह योग्य हुईं, तब राजा-रानी ने उनके लिए योग्य वर की बहुत खोज की, लेकिन सावित्री के अनुरूप सौंदर्य और गुण वाला कोई वर नहीं मिला।
अंततः माता-पिता ने उन्हें स्वयं योग्य वर खोजने की अनुमति दी। लंबी यात्रा के बाद वह एक तपोवन पहुंचीं, जहाँ पूर्व राजा धूमत्सेन अपने पुत्र सत्यवान के साथ रहते थे। धूमत्सेन ने राज्य खो दिया था और अब कुटिया में रहते थे। सावित्री की भेंट सत्यवान से हुई, और वह उनके सौंदर्य, व्यवहार और गुणों से मोहित होकर उन्हें पति के रूप में स्वीकार कर लीं। सत्यवान भी सावित्री से प्रभावित हो गए। दोनों के विवाह की स्वीकृति वहीं मिल गई और सावित्री राजधानी लौट आईं।
राजा अश्वपति को जब सत्यवान के बारे में बताया गया, तब उस समय देवर्षि नारद भी वहाँ उपस्थित थे। नारद जी ने राजा से कहा,"हे महाराज, यह सत्य है कि वर उत्तम है, परंतु उसका जीवन केवल एक वर्ष शेष है। एक वर्ष के बाद वह इस लोक को छोड़ देगा।"
यह सुनकर राजा अत्यंत व्याकुल हो गए। उन्होंने सावित्री को बहुत समझाया, कहा कि नारद जी की भविष्यवाणी कभी मिथ्या नहीं होती, और सत्यवान को छोड़कर किसी अन्य वर से विवाह कर लें। लेकिन सावित्री ने शांत और दृढ़ स्वर में कहा, "पिता जी, मैं सत्यवान को अपने मन से पति मान चुकी हूँ। मेरा मन, मेरी आत्मा, सब कुछ उन्हें समर्पित हो चुका है। अब मैं किसी और को पति नहीं बना सकती। यह अधर्म होगा। मन, वचन और कर्म से पति एक ही होता है। अब चाहे वह दीर्घायु हों या अल्पायु, वे ही मेरे स्वामी हैं।"
सावित्री की दृढ़ता, संयम और धर्मबुद्धि देखकर नारद जी बोले, "हे राजन्, इस कन्या का विवाह सत्यवान से ही होने दीजिए। इसमें ईश्वर की कोई विशेष इच्छा प्रतीत होती है।"
नारद जी की सहमति के बाद राजा ने सावित्री का विवाह सत्यवान से कर दिया। सावित्री ने राजमहल के सारे सुख छोड़कर वन में जाकर अपने वृद्ध सास-ससुर और स्वामी की सेवा में जीवन बिताना आरंभ किया। मिष्ठान्न भोजन, रेशमी वस्त्र, गहने सब त्यागकर उन्होंने वृक्षों के फल-मूल से जीवन यापन करना स्वीकार किया।
जो सावित्री कल तक स्वर्ण जड़ित बिछौनों पर सोती थीं, आज बल्कल वस्त्र पहनकर सादे भूमि पर पति की सेवा में मग्न थीं। वह सवेरे से रात तक स्वामी, सास और ससुर की सेवा करती थीं। उन्हें जो सुख पति की संगति में मिला, उसने राजमहल के सारे भोग-विलास को तुच्छ बना दिया। उनके गुण, मर्यादा और सेवा भाव की चर्चा चारों ओर फैल गई। परंतु “कालस्य कुटिला गति: समय का चक्र चालाक होता है।
देखते ही देखते सत्यवान के जीवन का अंतिम दिन आ गया। जिस दिन की भविष्यवाणी नारद मुनि ने की थी, वह आ पहुँचा। पिछली रात सावित्री ने दुःस्वप्न देखे। सुबह से ही अपशकुन होने लगे। उनका हृदय काँपने लगा, उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और उपवास के साथ ईश्वर का व्रत लेने लगीं।
उसी दिन सत्यवान अपने माता-पिता की आज्ञा से वन में लकड़ी लाने के लिए जाने लगे। सावित्री ने भी सास-ससुर से अनुमति लेकर उनके साथ चलने की प्रार्थना की। सत्यवान ने उन्हें वन की कठिनाइयाँ, जानवरों का भय और कष्ट बताकर रोकना चाहा। लेकिन सावित्री ने हाथ जोड़कर कहा ,“प्राणनाथ, मैं आपकी छाया हूँ। जहाँ आप जायेंगे, मैं भी जाऊँगी। जब आप वन में अकेले जा सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं? स्त्री तो पति की अर्धांगिनी होती है। कृपया मुझे भी अपने साथ ले चलिए।”
अंततः सत्यवान को उनकी बात माननी पड़ी। उपवास से थकी हुई सावित्री सत्यवान के साथ वन में चल दीं। वन के मध्य में पहुँचकर सत्यवान लकड़ी काटने लगे। तभी उन्हें सिर में असह्य पीड़ा हुई। उन्होंने सावित्री से कहा,“प्रिये, दौड़ो! मेरी पीड़ा असहनीय हो गई है। ऐसा लगता है जैसे प्राण बाहर निकलने को हैं।”
सत्यवान की यह दशा देखकर सावित्री रोती हुई उनके पास दौड़ीं। उन्होंने सत्यवान को गोद में लिया, अपनी साड़ी फाड़कर ज़मीन पर बिछाई और उन्हें उस पर लिटाया। सिर अपनी गोद में रखकर विलाप करने लगीं ,“हे नाथ! हे प्राणेश्वर! आप कहाँ जा रहे हैं? मुझे अकेला छोड़कर मत जाइए। आपके बिना मैं क्या करूंगी? मैं आपकी सेवा-व्रती पत्नी हूँ, कृपा कर मुझे भी अपने साथ ले चलिए।”
तभी वहां धर्मराज प्रकट हुए गदा और फाँस हाथ में। उन्होंने सत्यवान के प्राण को फाँस में बाँध लिया और दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे। सावित्री ने उन्हें देखा। पहले तो उनके भयंकर रूप से काँप उठीं, परंतु फिर साहस कर उनके चरणों में गिर पड़ीं और कहा, “हे महापुरुष! कृपया मुझे भी अपने साथ ले चलिए। मैं अपने पति के बिना नहीं रह सकती...”
“सावित्री और धर्मराज का संवाद”
धर्मराज यमराज सत्यवान के प्राणों को लेकर दक्षिण दिशा की ओर बढ़े। सावित्री पीछे-पीछे चलने लगीं। यमराज ने मुड़कर देखा और बोले ,“हे सती! तुम यहाँ तक कैसे आईं? तुम्हारे पति के प्राण अब मेरे अधीन हैं। तुम्हारा कर्तव्य अब घर लौट जाना है। सती को शोक नहीं करना चाहिए, तुम्हें लौट जाना चाहिए।”
सावित्री ने सिर झुकाकर विनम्र स्वर में कहा ,“हे धर्मराज! मैं धर्मपत्नी हूँ, और धर्म के अनुसार जहाँ पति जाता है, पत्नी भी वहीं जाती है। जब तक मेरे प्राण हैं, मैं पति के वियोग में चैन नहीं ले सकती।”
यमराज सावित्री की धर्मनिष्ठा से प्रभावित हुए। बोले ,“हे व्रतवती स्त्री! तुम्हारी बातें धर्मयुक्त हैं। तुमने मुझे प्रसन्न किया है। तुम मुझसे कोई एक वर मांग सकती हो परंतु अपने पति के जीवन को छोड़कर।”
सावित्री ने कहा ,“हे धर्मराज! कृपा करके मेरे सास-ससुर को उनकी खोई हुई दृष्टि और पुराना राज्य पुनः प्रदान करें।”
यमराज बोले , “एवमस्तु!”और वे फिर आगे बढ़ने लगे। परंतु सावित्री अब भी उनके पीछे चलती रहीं।
यमराज ने फिर कहा ,“हे देवी! तुम थक जाओगी। लौट जाओ। पति के बिना यह मार्ग कठिन है।”
सावित्री बोलीं ,“जहाँ धर्म है, वहीं मैं हूँ। आप धर्म के अधिपति हैं और मैं धर्म की अनुसरण करने वाली स्त्री हूँ। आपके साथ चलना मेरे लिए पुण्य का कारण है।”
यमराज और प्रसन्न हुए। बोले ,“एक और वर मांग लो परंतु सत्यवान का जीवन छोड़कर।”
सावित्री ने कहा,“मेरे पिता राजा अश्वपति की गोत्र-परंपरा न टूटे, उन्हें सौ पुत्रों की प्राप्ति हो।”
यमराज बोले ,“एवमस्तु।”
वे फिर आगे बढ़ने लगे, पर सावित्री अब भी चुपचाप पीछे चलती रहीं।
तीसरी बार यमराज ने कहा,“हे पतिव्रता! तुम्हारा साहस, भक्ति और धर्मनिष्ठा अत्यंत अद्भुत है। फिर एक वर मांगो सत्यवान के प्राण छोड़कर।”
सावित्री ने हाथ जोड़कर कहा,“मुझे सौ पुत्रों का वर दीजिए जो सत्यवान से उत्पन्न हों।”
यमराज क्षणभर ठिठक गए,“यह कैसे संभव होगा जब सत्यवान जीवित ही नहीं है?”
सावित्री ने अत्यंत शांत स्वर में कहा ,“प्रभु! आपने स्वयं कहा कि मैं सत्यवान को छोड़कर वर मांगूं, पर यदि पुत्र सत्यवान से नहीं होंगे तो यह वर कैसे पूर्ण होगा? क्या आप धर्म को तोड़ना चाहेंगे?”
अब यमराज चकित रह गए। सावित्री की बुद्धि, धर्मपरायणता और पति-भक्ति से उनका हृदय भर आया। उन्होंने कहा ,“हे पतिव्रता! तुमने मुझे वश में कर लिया है। मैं तुम्हें सत्यवान के प्राण लौटा देता हूँ। तुम्हारा पति जीवित रहेगा और दीर्घायु होगा।”यह कहकर यमराज ने सत्यवान के प्राण सावित्री को सौंप दिए और अंतर्ध्यान हो गए।
सावित्री भागते हुए सत्यवान के पास आईं। उन्होंने देखा सत्यवान की आँखें खुल रही हैं। वह धीरे-धीरे उठ बैठा और बोला ,“प्रिये! मुझे ऐसा लगा जैसे मैं सो गया था। पर यह वन इतना शांत क्यों है?”
सावित्री ने आँसू पोंछते हुए कहा ,“नाथ! यह सब ईश्वर की लीला थी। आप ठीक हैं, यही मेरे लिए सबसे बड़ा सुख है।”
दोनों एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कुराए यह मुस्कान उनकी धर्म, प्रेम और त्याग की विजय थी।
सत्यवान और सावित्री अपने आश्रम लौटे। थोड़ी ही देर में कुछ दूत आए और बोले “हे कुमार सत्यवान! आपके पिता की दृष्टि लौट आई है और उन्हें उनका पुराना राज्य भी प्राप्त हो गया है। आपको तुरंत राजधानी चलना होगा।”
सावित्री ने मन ही मन भगवान और धर्मराज को नमन किया। उन्होंने जो तप, सेवा, उपवास, और व्रत किया था, उसका यह फल था।
इसके बाद सत्यवान और सावित्री राजमहल लौटे। धूमत्सेन पुनः राज्य सिंहासन पर विराजे। सावित्री को स्त्रियों के लिए एक आदर्श के रूप में प्रतिष्ठा मिली। उनके पतिव्रत, धर्मबुद्धि और दृढ़ संकल्प की कहानियाँ लोक में गाई जाने लगीं।
वट सावित्री व्रत की महिमा
जिस प्रकार सावित्री ने वटवृक्ष के नीचे उपवास रखकर, ध्यान और भक्ति के बल पर अपने पति को यमराज से प्राप्त किया, उसी प्रतीक के रूप में स्त्रियाँ वटवृक्ष की पूजा करती हैं। वे सावित्री की तरह अपने पति की दीर्घायु और कल्याण के लिए व्रत करती हैं, वृक्ष की परिक्रमा कर पूजन करती हैं और व्रत कथा सुनती हैं।
यह व्रत पतिव्रता नारी की आस्था, तप, त्याग और प्रेम की साक्षात मिसाल है। सावित्री की यह कथा नारी शक्ति, धर्म और समर्पण की दिव्य गाथा बनकर युगों-युगों तक अमर रहेगी।
(विनोद कुमार झा)