संघर्षविराम पर ट्रंप की 'मदद' और भारत की स्पष्टता

विनोद कुमार झा

भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से चले आ रहे तनाव और संघर्ष विराम जैसे मुद्दों पर जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जैसे वैश्विक नेता अपनी भूमिका को लेकर बार-बार बयान बदलें, तो यह न केवल कूटनीतिक हलकों में संशय पैदा करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि वैश्विक मध्यस्थता की भूमिका में कितनी गंभीरता और संतुलन की आवश्यकता होती है।

हाल ही में ट्रंप ने अपने उस दावे से कदम पीछे खींच लिए हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत-पाकिस्तान के बीच हुए संघर्षविराम का श्रेय सीधे-सीधे अमेरिका को जाता है। अब उनका बयान अधिक संतुलित और सतर्क दिखता है। उन्होंने कहा कि उन्होंने ‘मदद’ की है, न कि ‘मध्यस्थता’। इस ‘मदद’ की परिभाषा क्या है, इसका कोई स्पष्ट खाका ट्रंप ने नहीं दिया, लेकिन उनकी भाषा से यह साफ झलकता है कि वे इस संवेदनशील क्षेत्रीय मसले पर खुद को एक ‘संकट-मुक्तिदाता’ के रूप में स्थापित करना चाहते हैं चाहे इसके पीछे वास्तविकता हो या कूटनीतिक स्वार्थ।

यह पहली बार नहीं है जब डोनाल्ड ट्रंप ने भारत-पाकिस्तान संबंधों को लेकर कोई विवादास्पद बयान दिया हो। इससे पहले भी उन्होंने कई बार यह दावा किया था कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें कश्मीर मसले पर ‘मध्यस्थ’ बनने को कहा है जिसे भारत ने स्पष्ट रूप से खारिज किया था। भारत की विदेश नीति सदैव इस सिद्धांत पर आधारित रही है कि जम्मू-कश्मीर का मामला द्विपक्षीय है और इसमें किसी तीसरे पक्ष की भूमिका नहीं हो सकती।

ट्रंप का यह कहना कि “मैं नहीं कहना चाहता कि मैंने यह किया, लेकिन मैंने मदद की”, एक कूटनीतिक बैकफुट की ओर इशारा करता है। इससे यह प्रतीत होता है कि अमेरिका की भूमिका केवल ‘परामर्श’ या ‘प्रेरणा’ तक सीमित रही होगी, न कि सक्रिय हस्तक्षेप तक। उनकी यह स्वीकारोक्ति कि “मैं नहीं चाहता कि दो दिन बाद फिर से कोई मिसाइल दागी जाए” दक्षिण एशिया की स्थिति की संवेदनशीलता को रेखांकित करती है, लेकिन साथ ही यह भी दर्शाती है कि उनका दृष्टिकोण अधिक ‘व्यक्तिपरक’ और ‘राजनीतिक मंच आधारित’ है, न कि रणनीतिक और दीर्घकालिक।

इस संदर्भ में भारत का रुख बिल्कुल स्पष्ट, तर्कसंगत और परिपक्व रहा है। भारत ने न केवल किसी भी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को अस्वीकार किया है, बल्कि यह भी कहा है कि पाकिस्तान से बातचीत केवल पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) और आतंकवाद पर ही सीमित रहेगी। भारत यह जानता है कि किसी बाहरी ताकत की ‘मदद’ लंबे समय तक स्थायी समाधान नहीं ला सकती, विशेषकर तब जब पाकिस्तान आतंकवाद को एक रणनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग करता रहा है।

ट्रंप ने दोहा में हुए एक कार्यक्रम में यह भी कहा कि भारत और अमेरिका के बीच व्यापार को लेकर सकारात्मक वार्ता चल रही है। उन्होंने यह संकेत दिया कि भारत अमेरिका को ऐसे व्यापार प्रस्ताव दे रहा है जिसमें टैरिफ लगभग शून्य हैं। यह व्यापार की दिशा में एक सकारात्मक संकेत हो सकता है, लेकिन यदि इसे भारत-पाक तनाव के संदर्भ में जोड़ा जाए तो यह एक कूटनीतिक संदेह उत्पन्न करता है क्या अमेरिका तनाव को नियंत्रित कर व्यापारिक लाभ लेना चाहता है?

ट्रंप द्वारा एप्पल को भारत में मैन्युफैक्चरिंग की योजना छोड़ने और अमेरिका में उत्पादन बढ़ाने की सलाह देना, यह दिखाता है कि उनका हर कूटनीतिक कदम कहीं न कहीं घरेलू आर्थिक एजेंडा से जुड़ा होता है। उनके लिए भारत-पाकिस्तान के बीच शांति केवल एक अंतरराष्ट्रीय समस्या नहीं, बल्कि अमेरिकी उद्योग, चुनावी राजनीति और वैश्विक प्रभाव के त्रिकोण का हिस्सा है।

भारत को चाहिए कि वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी स्वायत्त नीति को और अधिक मजबूत बनाए रखे। अमेरिका जैसे देशों की भूमिका का स्वागत किया जा सकता है यदि वह सहायक और सकारात्मक हो, लेकिन यह भी आवश्यक है कि भारत अपनी सीमाओं, हितों और संवेदनशील मुद्दों पर कोई समझौता न करे।

कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है। यह मुद्दा तब तक जटिल बना रहेगा जब तक पाकिस्तान अपनी ज़मीन से आतंकवाद को समर्थन देना बंद नहीं करता। ट्रंप जैसे नेता जब यह कहते हैं कि वे “हर समस्या का समाधान कर सकते हैं,” तो यह उनकी राजनीतिक शैली का हिस्सा होता है, न कि कूटनीतिक यथार्थ का। दक्षिण एशिया में स्थायी शांति का मार्ग केवल विश्वास, सम्वाद और आतंकवाद के खात्मे से होकर जाता है—मंचीय बयानबाज़ियों से नहीं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का बयान चाहे जितना भी लचीला और उदार दिखे, भारत को इस पर अधिक उत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है। भारत को चाहिए कि वह अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए आत्मनिर्भर और सतर्क कूटनीति अपनाए और हर बयान के पीछे छिपे संदेश को ठीक से पढ़े। क्योंकि कूटनीति में कभी-कभी ‘मदद’ भी दबाव का दूसरा नाम होती है।


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