विनोद कुमार झा
त्रेतायुग में एक दिन अयोध्या नगरी में उस समय गहन शोक और अशांति फैल गई थी। कारण था श्रीराम के वनवास के पश्चात भरत का व्रत, तप और उपवास। वे अपने प्रिय बड़े भाई राम की अनुपस्थिति में राजकाज तो संभाल रहे थे, परंतु उनका मन वन में रह रहे राम, लक्ष्मण और सीता में ही लगा रहता था। राम की खड़ाऊँ सिंहासन पर रखकर वे स्वयं पृथ्वी पर बैठते और राज्य को उसी के माध्यम से चलाते थे।
परंतु समय के साथ भरत का तप अत्यधिक कठोर होता गया। वे केवल फलों और जल पर ही रहते, दिन-रात राम का स्मरण करते और कभी-कभी घंटों ध्यान में लीन रहते। शरीर क्षीण होता जा रहा था। गुरु वशिष्ठ ने कई बार समझाया, परंतु भरत की भक्ति अडिग थी। धीरे-धीरे स्थिति ऐसी हो गई कि उनका प्राण संकट में पड़ गया।
एक दिन भरत गहन ध्यान में लीन थे। उनके हृदय में राम-वियोग की पीड़ा तीव्र होने लगी। उसी वेदना में उनका शरीर डगमगाया और वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े। राजवैद्य और ऋषि-मुनि एकत्र हुए, परंतु किसी की समझ में कुछ नहीं आया। उनकी प्राणवायु अत्यंत क्षीण हो चुकी थी।
आश्रम में भय और चिंता फैल गई यदि भरत को कुछ हो गया, तो रामराज्य का आधार ही समाप्त हो जाएगा!
उधर दूर दंडकारण्य में राम, लक्ष्मण और सीता विश्राम कर रहे थे। तभी राम को अकस्मिक पूर्वाभास हुआ जैसे किसी ने हृदय को मथ दिया हो।
राम बोले, “लक्ष्मण! ऐसा प्रतीत होता है कि अयोध्या में कोई बड़ा संकट उपस्थित है, और वह संकट हमारे भरत पर है।”
लक्ष्मण और सीता भी चिंतित हुए। तभी पास ही बैठे महावीर हनुमान ने अपने स्वामी की व्याकुलता समझ ली।
हनुमान folded hands और बोले,“प्रभो! आप चिंता त्यागें। जब तक हनुमान देह धारण किए हुए है, कोई संकट आपके भाई को स्पर्श नहीं कर सकता। अनुमति दें, मैं तुरंत अयोध्या जाकर स्थिति जान आऊँ।”
राम ने आशीर्वाद दिया, और हनुमान पवनवेग से उड़ते हुए अयोध्या की ओर चल पड़े।
हनुमान महल पहुँचे तो देखा कि राजमहल शोक में डूबा है, गुरु वशिष्ठ, शत्रुघ्न और मंथरा तक विलाप कर रहे हैं। भरत पलंग पर लेटे हैं दुर्बल, पीले, और प्राण जैसे बस डोर के सहारे अटके हों।
वशिष्ठजी बोले,“हनुमान! यह राम-वियोग के कारण प्राणत्याग कर रहे हैं। कोई औषधि काम नहीं कर रही।”
हनुमान ने भरत के समीप जाकर उनके सिर पर हाथ रखा।
फिर वे धीरे से बोले, “भरत प्रभु, आंखें खोलिए। श्रीराम ने आपको स्मरण किया है।”
यह सुनते ही भरत की बंद पलकों में हलचल हुई। हनुमान समझ गए कि बचाव की राह है।
हनुमान ने भरत के कानों में प्रेमभरी ध्वनि से राम का नाम जपना शुरू किया, “श्रीराम… श्रीराम… श्रीराम…”
उनके जप में अपार शक्ति थी, भक्ति थी, और राम का संकल्प भी। जैसे ही राम-नाम की ध्वनि वातावरण में गूँजी, भरत के जीवन में नई ऊर्जा प्रवाहित होने लगी। लेकिन फिर भी भरत पूरी तरह उठ नहीं पाए। उनका शरीर अभी भी कमजोर था।
हनुमान को तुरंत स्मरण हुआ जैसे लंका युद्ध में लक्ष्मण के लिए संजीवनी लाई थी, उसी प्रकार किसी दिव्य औषधि की आवश्यकता अभी भी है। वे वन की ओर उड़े, जहाँ दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ होती थीं, और शीघ्र ही कुछ दिव्य सुगंधित औषधियाँ लेकर लौट आए।
भरत के कंठ पर औषधि रखी गई, माथे पर लेप लगाया गया, और हनुमान ने राम-नाम का उच्चारण जारी रखा।
कुछ ही क्षणों में भरत ने आँखें खोल दीं और धीरे से कहा—
“हनुमान… क्या श्रीराम कुशल से हैं?”
हनुमान मुस्कुराए,“प्रभो! रामकृपा और आपकी भक्ति से कुछ भी असंभव नहीं।”
भरत के पूर्णतः स्वस्थ होने पर हनुमान ने राम का संदेश सुनाया, “भरत को कहना, उनका राम उनसे उतना ही प्रेम करता है जितना वे राम से। मेरा जीवन और मेरा धर्म, भरत के कल्याण में ही है।”
यह सुनकर भरत अश्रुपूर्ण हो उठे और बोले, “हनुमान! आज तुमने केवल मेरे प्राण ही नहीं बचाए, बल्कि राम भक्तों का कर्तव्य भी संसार को दिखा दिया।”
यह कथा बताती है कि राम-भक्ति में अपार शक्ति है, सच्चा सेवक (जैसे हनुमान) अपने प्रभु के परिवार को अपना परिवार मानता है,और भाईचारे, निष्ठा व प्रेम से बड़ा कोई धर्म नहीं।हनुमान जी केवल बल के अधिपति नहीं, बल्कि करुणा और सेवा के प्रतीक भी हैं, जिन्होंने राम के प्रिय भाई भरत के प्राण बचाकर सच्ची भक्ति का संदेश दिया।
-समाप्त
