बिहार में एनडीए की बड़ी जीत, क्या सचमुच विकास मॉडल की स्वीकारोक्ति?

बिहार विधानसभा चुनावों के ताज़ा नतीजों ने एक बार फिर राज्य की राजनीतिक दिशा और जनता की प्राथमिकताओं को स्पष्ट संकेत दिया है। एनडीए को मिली भारी जीत और महागठबंधन की गंभीर हार केवल एक राजनीतिक परिणाम नहीं, बल्कि यह समझने का अवसर है कि बिहार की जनता वास्तव में किस दिशा में राज्य को आगे बढ़ते हुए देखना चाहती है। यह चुनाव परिणाम कई स्तरों पर संदेश देता है विकास मॉडल की स्वीकार्यता, नेतृत्व में भरोसा, और राजनीतिक कथा के मुकाबले जमीनी सच्चाइयों का महत्त्व।

विकास बनाम वादों की लड़ाई : पिछले दो दशकों में बिहार में विकास की बहस लगातार बदली है। कभी सड़क, बिजली और कानून-व्यवस्था जैसे बुनियादी मुद्दे चुनावी विमर्श में हावी थे। इस बार भी, भले ही राजनीतिक बयानबाज़ी में जातीय समीकरण और गठबंधन की राजनीति का बोलबाला रहा हो, लेकिन अंतिम निर्णय ‘विकास के भरोसे’ पर टिक गया। एनडीए का वोट बैंक यह संदेश दे रहा है कि स्थिर नेतृत्व और निरंतर विकास को फिलहाल जनता बदलने के मूड में नहीं है। महागठबंधन ने बेरोज़गारी, महंगाई और स्थानीय असंतोष जैसे मुद्दों को उठाया, पर जनता ने उसे ‘पर्याप्त विकल्प’ के रूप में स्वीकार नहीं किया।

नीतीश मॉडल अब भी प्रभावी या केवल भरोसे की राजनीति?

ज्यादा दिलचस्प यह है कि तमाम राजनीतिक चुनौतियों के बावजूद नीतीश कुमार का ‘गुड गवर्नेंस’ वाला मॉडल अब भी व्यापक स्तर पर स्वीकार्य दिख रहा है। यह सही है कि बिहार की विकास यात्रा अधूरी है औद्योगिक निवेश कम है, शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता और रोजगार का संकट आज भी गंभीर है लेकिन जनता ने ‘वर्तमान स्थिरता’ को ‘अनिश्चित विकल्पों’ की तुलना में बेहतर समझा। इससे यह भी संकेत मिलता है कि बिहार की राजनीति अब उन दौरों से आगे बढ़ रही है, जहां सत्ता परिवर्तन केवल ‘‘विरोध’’ की भावना से होता था। अब जनता विकल्पों का परीक्षण ज़िम्मेदारी से कर रही है।

महागठबंधन की हार रणनीतिक चूक और नेतृत्व की अस्पष्टता : महागठबंधन की हार सिर्फ राजनीतिक पराजय नहीं, बल्कि कुछ मूलभूत गलतियों का परिणाम है :-

नेतृत्व का अस्थिर संदेश: जनता को यह स्पष्ट नहीं दिखा कि वास्तविक नेतृत्व किसके हाथ में होगा और किस मॉडल के तहत सरकार चलाई जाएगी।

साझा एजेंडा की कमी: गठबंधन केवल सत्ता-गठजोड़ के रूप में दिखा, एकीकृत विकास दृष्टि नहीं दिखा सका।

युवाओं तक प्रभावी पहुँच न होना: बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर बात तो हुई, लेकिन ठोस व क्रियान्वयन योग्य रोडमैप नहीं दिया गया। परिणामस्वरूप जनता ने उन्हें ‘स्थिर विकल्प’ के रूप में नहीं देखा। 

बिहार का विकास मॉडल अब आगे क्या?

सवाल सिर्फ यह नहीं कि एनडीए जीता क्यों सवाल यह है कि अब यह जीत बिहार के भविष्य के लिए क्या मायने रखती है?यदि सरकार इस जनादेश को सही अर्थों में समझे, तो उसे तीन मोर्चों पर तुरंत काम करना चाहिए—

1. रोज़गार-सृजन और औद्योगिक निवेश: युवाओं की अपेक्षाओं को केवल योजनाओं से नहीं, वास्तविक अवसरों से जोड़ने की ज़रूरत है।

2. शिक्षा और स्वास्थ्य में संरचनात्मक सुधार: बिहार में मानव संसाधन विकास सबसे बड़ी चुनौती है।

3. युवा नेतृत्व का उद्भव: बिहार की राजनीति को अगली पीढ़ी के नेताओं की ज़रूरत है जो 21वीं सदी की समस्याओं और समाधानों को समझते हों।

जनादेश का संदेश बदलाव नहीं, सुधार की उम्मीद : बिहार की जनता ने यह साफ़ कर दिया है कि वह अराजक विकल्पों की जगह संगठित और स्थिर शासन को प्राथमिकता देती है। यह परिणाम एनडीए के लिए ‘आत्मसंतोष’ का नहीं, बल्कि बढ़ी हुई ज़िम्मेदारी का समय है। जनादेश कहता है कि लोग विकास यात्रा में व्यवधान नहीं चाहते, पर वे सुधार और तेज़ी की उम्मीद ज़रूर रखते हैं। एनडीए की भारी जीत यह संकेत है कि बिहार ने फिलहाल बदलाव की राजनीति नहीं, निरंतरता की राह चुनी है। महागठबंधन की हार यह सिखाती है कि केवल नारों से जनता प्रभावित नहीं होती उसे एक स्पष्ट मॉडल, ठोस नेतृत्व और कार्ययोजना चाहिए।

अब चुनौती यह है कि सरकार इस भरोसे को कैसे क्रियान्वित करती है और क्या यह जीत बिहार के विकास को अगले चरण में पहुंचा पाएगी। बिहार ने जनादेश दे दिया है अब बारी सरकार की है यह साबित करने की कि वह भरोसे के योग्य भी है।

- विनोद कुमार झा 

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