बिहार में चुनावी संग्राम : विकास बनाम भ्रष्टाचार का विमर्श

बिहार में एक बार फिर चुनावी तापमान चरम पर है। राजनीतिक मंचों से आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगी है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और विपक्षी नेता तेजस्वी यादव की रैलियों ने इस जंग को और धारदार बना दिया है। जहां शाह ने महागठबंधन पर “भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद” का आरोप लगाते हुए विकास की राजनीति को केंद्र में रखने की बात कही, वहीं तेजस्वी यादव ने “हर परिवार को नौकरी” देने का वादा कर जनता को सपनों की नई तस्वीर दिखाने का प्रयास किया है। अमित शाह के भाषण में स्पष्ट रूप से यह संदेश दिया गया कि यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि राज्य की दिशा तय करने का है। उन्होंने महागठबंधन को “भ्रष्टाचार का प्रतीक” बताते हुए कहा कि जिनके खाते में सिर्फ घोटालों का इतिहास है, वे विकास की नई कहानी नहीं लिख सकते। शाह का यह वक्तव्य न केवल विरोधियों पर प्रहार है, बल्कि भाजपा-नीतीश गठबंधन के “विकास बनाम जंगलराज” के पुराने नैरेटिव को भी दोहराता है। घुसपैठियों का मुद्दा उठाकर उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा की भावना को भी स्थानीय राजनीति से जोड़ने की कोशिश की  जो भाजपा की पारंपरिक रणनीति का हिस्सा रही है।

दूसरी ओर, तेजस्वी यादव ने “बदलाव” की राजनीति को केंद्र में रखते हुए रोजगार का बड़ा वादा किया है। उनका कहना कि “20 दिन में हर परिवार को सरकारी नौकरी देने का कानून बनेगा”, जनता के दिलों को छूने वाला वादा जरूर है, पर यह सवाल भी उठता है कि क्या यह व्यावहारिक रूप से संभव है? बिहार जैसे सीमित संसाधनों वाले राज्य में सरकारी नौकरी हर परिवार तक पहुंचाना क्या एक व्यवहारिक नीति है या सिर्फ चुनावी वादा?

बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरणों, रोजगार, और विकास के वादों पर घूमती रही है। लेकिन इस बार की चुनावी लड़ाई में “भ्रष्टाचार बनाम विकास” और “यथार्थ बनाम वादों” का संघर्ष ज्यादा स्पष्ट दिख रहा है। भाजपा और जदयू गठबंधन यह बताने की कोशिश में है कि स्थायित्व और नीति आधारित शासन ही विकास का मार्ग प्रशस्त करेगा, जबकि विपक्ष जनता के भीतर परिवर्तन की ललक को रोजगार जैसे भावनात्मक मुद्दों के सहारे भुनाना चाहता है।

सच्चाई यह है कि बिहार को अब ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो न तो भ्रष्टाचार की छाया में पलने वाला हो और न ही हवा में सपने बेचने वाला। विकास की बुनियाद ईमानदारी, पारदर्शिता और नीति की निरंतरता पर टिकती है। राजनीतिक पार्टियों को यह समझना होगा कि जनता अब केवल नारों से नहीं, नीतियों के परिणामों से प्रभावित होती है।

बिहार की जनता इस बार एक कठिन विकल्प के सामने है  एक तरफ स्थायित्व और विकास के दावे हैं, तो दूसरी तरफ बदलाव और अवसर के सपने। यह चुनाव इस बात का फैसला करेगा कि बिहार जंगलराज की पुरानी गलियों में लौटेगा या विकास के नए युग की ओर बढ़ेगा।

बिहार की असली जरूरत न तो सिर्फ रोजगार के वादे हैं, न ही विरोधियों पर प्रहार  बल्कि ऐसे ठोस नीतिगत निर्णय हैं जो भ्रष्टाचारमुक्त, पारदर्शी और भविष्यमुखी शासन की नींव डालें। जनता को इस बार यह तय करना है कि वह “भ्रष्टाचार के रिकॉर्ड” पर वोट देगी या “विकास के रिकॉर्ड” पर। यही लोकतंत्र की असली परीक्षा है, और यही बिहार का भविष्य तय करेगा।

विनोद कुमार झा

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