मकड़ जाल में घुमती ज़िंदगी

लेखक: विनोद कुमार झा

ज़िंदगी कभी-कभी उस मकड़ी के जाल जैसी लगती है जिसे हमने खुद ही बुना होता है चाहतों के धागे से, महत्वाकांक्षा के रेशों से, और झूठे सपनों की नमी से। लेकिन जब वही जाल हमारे चारों ओर कसता जाता है, तो हम न तो उड़ पाते हैं, न ही छूट पाते हैं। बस उस जाल में फँसकर तिल-तिल घुमते रहते हैं जैसे कोई बेबस कीड़ा जो अपनी ही बनायी दुनिया में कैद हो गया हो।

 शुरूआत का चमकता सपना : दिल्ली की भीड़ में भागती एक लड़की  अनन्या शर्मा। उम्र मुश्किल से 24, चेहरा भोला मगर आंखों में एक अनोखी चमक। वो हर सुबह अपने छोटे से किराए के कमरे से निकलती, मेट्रो पकड़ती और कनॉट प्लेस के एक कॉर्पोरेट ऑफिस में रिसेप्शनिस्ट के तौर पर काम करती थी। दिल्ली उसके लिए सपनों का शहर था। बिहार के छोटे से कस्बे से आई अनन्या ने हमेशा चाहा था कि वो “कुछ बड़ी बने”, अपने गांव के हर उस इंसान को जवाब दे सके जिसने कहा था  “लड़कियाँ तो शादी के लिए होती हैं, नौकरी-वोकरी नहीं।”

पहले कुछ महीनों तक सब अच्छा चला। नया शहर, नए कपड़े, पहली तनख्वाह, मोबाइल, और इंस्टाग्राम पर सजे सेल्फ़ी के पल  उसे लगा ज़िंदगी अब पटरी पर है। मगर धीरे-धीरे वही सपनों का शहर उसे निगलने लगा।

चमक के पीछे का अंधेरा: अनन्या का ऑफिस बड़ा था, लेकिन इंसान छोटे। वहां हर कोई किसी न किसी मकसद से जुड़ा था  कोई बॉस की नज़रों में आने को बेचैन, कोई प्रमोशन की दौड़ में।

उसी ऑफिस में उसकी मुलाकात हुई राघव मेहरा से  कंपनी का मार्केटिंग हेड। उम्र में लगभग 10 साल बड़ा, स्मार्ट, बोलचाल में नफासत और मुस्कान में गहराई। राघव ने अनन्या की मेहनत को नोटिस किया, उसकी तारीफ़ की, उसे कॉफ़ी पर बुलाया।धीरे-धीरे वह अनन्या की दुनिया में शामिल होने लगा। काम के बाद देर रात की बातें, ऑफिस पार्टियों में साथ नाचना, और फिर… “केवल दोस्ती से कुछ ज़्यादा” की शुरुआत।

राघव शादीशुदा था, मगर कहता , “हमारा रिश्ता अब बस नाम का है… तुमसे पहले कोई समझा ही नहीं।”अनन्या उसकी बातों में खो गई। उसे लगा यही प्यार है, यही अपनापन। लेकिन यह बस मकड़ जाल का पहला धागा था।

जब रिश्ते सौदे बन जाते हैं : समय बीतता गया। राघव के साथ बिताए पल अनन्या के लिए नशे जैसे बन गए। मगर अब वो उसकी ज़रूरत नहीं रही बल्कि उसकी आदत बन चुकी थी।राघव का इस्तेमाल धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा। वह उसे मीटिंग्स में अपने साथ ले जाता, दिखाता कि “ये मेरी टीम की सबसे भरोसेमंद लड़की है”, लेकिन उसके बदले हर महीने की प्रमोशन और बोनस अनन्या को नहीं मिलती।

कभी-कभी वो राघव के घर के पास तक जाती, जहां उसकी पत्नी और बच्चे रहते। वो खिड़की से देखती, राघव अपने बेटे को गोद में उठाए हँस रहा होता। उस दृश्य में अनन्या की आँखें नम हो जातीं क्या वो भी बस एक खेल थी?

लेकिन अब वह इतनी उलझ चुकी थी कि निकल नहीं पा रही थी। हर बार जब छोड़ने की कोशिश करती, राघव की आवाज़ कानों में गूंज जाती ,“अनन्या, तुम जाओगी तो मैं टूट जाऊँगा।”और वह फिर लौट आती, अपने ही भावनाओं के जाल में फँसी हुई।

 सोशल मीडिया का मुखौटा : ऑफिस से बाहर की दुनिया में अनन्या की पहचान एक “स्टाइलिश, आत्मनिर्भर, खुशहाल लड़की” के रूप में बन चुकी थी। इंस्टाग्राम पर उसकी तस्वीरें चमकतीं , कॉफी मग, किताबें, सूरज की रोशनी में मुस्कराता चेहरा। लोग कहते “कितनी खुश लगती हो तुम!”

मगर हकीकत यह थी कि वो हर रात मोबाइल स्क्रीन की रोशनी में अकेली रोती थी। उसके पास सब कुछ था  फ़ोन, कपड़े, नाम  लेकिन शांति नहीं थी। धीरे-धीरे राघव उससे दूर होने लगा। नए प्रोजेक्ट्स, नए चेहरे, और फिर वही धोखे की आदत।अनन्या अब समझ चुकी थी कि वह एक भावनात्मक मकड़ जाल में फँस चुकी है  जिसे उसने खुद ही बुना था, प्यार के नाम पर।

 टूटन और पुनर्जन्म : एक रात राघव ने उसे साफ़ कह दिया,“मुझे अब थोड़ी स्पेस चाहिए, अनन्या। तुम्हारे बिना नहीं, लेकिन अभी नहीं…”वो शब्द उसके दिल में जैसे किसी ने सुई चुभो दी।उस रात वह देर तक दिल्ली की सड़कों पर चलती रही।

मेट्रो की सीढ़ियों के पास बैठकर सोचती रही ,“क्या वाकई मैं किसी की ज़रूरत थी, या सिर्फ़ उसकी सुविधा?”उसी रात उसने राघव को ब्लॉक किया। फोन बंद किया। अगले दिन ऑफिस में इस्तीफा दिया। सभी ने कहा , “पागल हो क्या? इतनी बड़ी कंपनी छोड़ रही हो?” लेकिन अनन्या मुस्करा दी।अब वो किसी जाल में नहीं रहना चाहती थी।

 आत्मबोध की शुरुआत : कुछ महीनों बाद अनन्या ने एक NGO में काम शुरू किया  उन लड़कियों के लिए जो शहरी शोषण, झूठे वादों और रिश्तों की गिरफ्त में आ चुकी थीं। वह उन्हें सिखाने लगी  “किसी भी जाल से निकलने का रास्ता बाहर नहीं, अंदर से शुरू होता है।”

धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास लौटने लगा। अब वो अपने दर्द को अपनी ताकत बना चुकी थी।रातों की तन्हाई अब उसे डराती नहीं थी, क्योंकि उसे अब खुद से मोहब्बत हो गई थी।जाल से बाहर की हवा : एक दिन जब वह बस स्टॉप पर खड़ी थी, अचानक सामने से एक छोटा बच्चा आकर बोला ,“दीदी, आपने हमें पढ़ाया था न? मैंने स्कूल में टॉप किया!

”उसकी मुस्कान में अनन्या को वो सुकून मिला, जो राघव की हर तारीफ़ में नहीं था। उसे लगा ,ज़िंदगी अब भी वैसी ही है, लेकिन अब वह खुद उस जाल की मकड़ी नहीं रही, बल्कि वह वो तितली बन गई है जिसने अपने पंख फिर से फैलाए हैं।

मकड़ जाल से मुक्ति :अनन्या ने अपनी डायरी में लिखा , “ज़िंदगी हमेशा उलझन में नहीं रहती। अगर हम चाहें, तो हर जाल से बाहर निकल सकते हैं। फर्क बस इतना है कि पहले मैं चाहती थी कि कोई मुझे बचा ले,अब मैं खुद को बचाना जानती हूँ।”

रात के सन्नाटे में उसने आसमान की ओर देखा ,एक मकड़ी अपने जाल में उलझी थी, मगर हवा के झोंके से कुछ रेशे टूट चुके थे। वो मुस्कराई ,“अब मेरी ज़िंदगी नहीं घूमेगी उस जाल में… अब मैं आज़ाद हूँ।”

कभी-कभी हम अपनी ज़िंदगी को चमकदार बनाने के चक्कर में ऐसे जाल बुन लेते हैं जिनसे निकलना मुश्किल होता है।लेकिन याद रखना  कोई भी जाल हमेशा के लिए नहीं होता।बस एक निर्णय, एक साहस, और थोड़ी आत्म-स्वीकृति…बस वहीं से शुरू होती है  नई ज़िंदगी।

समाप्त


Post a Comment

Previous Post Next Post