नहाय-खाय से शुरू हुआ लोक आस्था का महापर्व छठ

नहाय-खाय के साथ भक्तों ने किया पवित्र व्रत का आरंभ, चार दिनों का तप, आस्था और आत्मशुद्धि का अद्भुत संगम

विनोद कुमार झा

त्योहारों का भारत से जितना गहरा रिश्ता है, उतना शायद ही किसी देश का हो। यहाँ हर मौसम, हर महीने और हर अवसर के साथ कोई न कोई पर्व जीवन को नई ऊर्जा और उत्साह से भर देता है। दीपों की जगमगाहट से सजी दीपावली, स्नेह से सराबोर भाई दूज और श्रद्धा से पूजित गोवर्धन पूजा की श्रृंखला जैसे ही समाप्त होती है, देश-विदेश में रहने वाले करोड़ों भारतीयों के बीच लोक आस्था के महान पर्व छठ की तैयारियां पूरे उत्साह के साथ शुरू हो जाती हैं।

आज से इस महापर्व की शुरुआत नहाय-खाय के साथ हो चुकी है। यह पर्व चार दिनों तक चलने वाला एक कठोर तप, शुद्ध आस्था और आत्म-शुद्धि का प्रतीक है। छठ केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह प्रकृति, सूर्य और जल के प्रति भारतीय संस्कृति की कृतज्ञता का सर्वोच्च प्रतीक है।

छठ पर्व का आरंभ नहाय-खाय से होता है। इस दिन व्रती (व्रत करने वाले) सूर्योदय से पहले उठकर गंगा या किसी पवित्र नदी, तालाब या पोखरे में स्नान करते हैं। स्नान के बाद घर को शुद्ध कर भोजन तैयार किया जाता है। इस दिन अरवा चावल, लौकी की सब्जी और चने की दाल का प्रसाद ग्रहण किया जाता है। यही भोजन पर्व की पवित्रता और आत्मसंयम की शुरुआत का प्रतीक है।

दूसरे दिन खरना का आयोजन होता है। यह दिन सबसे पवित्र माना जाता है, क्योंकि पूरे दिन निर्जला व्रत के बाद व्रती शाम को सूर्यास्त के समय गंगाजल या पवित्र नदी के जल से स्नान कर, शुद्धता से गुड़ और दूध से बनी खीर, रोटी और केले का प्रसाद तैयार करते हैं। परिवार और पड़ोस के लोगों के साथ यह प्रसाद ग्रहण कर व्रत का संकल्प लिया जाता है। खरना का प्रसाद स्वाद में जितना सरल होता है, उसकी आध्यात्मिक महत्ता उतनी ही गहरी होती है  यह त्याग, संयम और आत्मबल का प्रतीक है।

तीसरे दिन का विशेष महत्व होता है। संध्या के समय व्रती साफ-सुथरे वस्त्रों में सजकर घाटों की ओर प्रस्थान करते हैं। महिलाएँ पारंपरिक गीत गाती हुईं डालों और सूपों में ठेकुआ, फल, नारियल और दीपक लेकर सूर्यदेव को अर्घ्य अर्पित करती हैं। अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देना कृतज्ञता और आभार की अभिव्यक्ति है  क्योंकि सूर्य ही जीवन के स्रोत हैं, जिनके बिना सृष्टि का अस्तित्व संभव नहीं। घाटों पर लोकगीतों की गूंज, सजे हुए घाट और हजारों दीपों की ज्योति एक अलौकिक दृश्य प्रस्तुत करती है।

छठ पर्व का समापन चौथे दिन उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देने के साथ होता है। व्रती परिवार और श्रद्धालु सुबह-सुबह घाटों पर पहुँचकर उगते सूर्य को जल, दूध और अर्घ्य अर्पित करते हैं। यह क्षण अत्यंत भावनात्मक होता है  भक्तों की आँखों में आस्था, कृतज्ञता और नई उम्मीद की चमक होती है। अर्घ्य के बाद व्रत का समापन होता है और प्रसाद वितरण के साथ चार दिन का यह पवित्र पर्व पूर्णता को प्राप्त करता है।

छठ महापर्व केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक समरसता का अद्भुत उदाहरण है। इस पर्व में इस्तेमाल होने वाली सारी वस्तुएँ प्राकृतिक और जैविक होती हैं मिट्टी के दीपक, बाँस के सूप-दलिया, केले, नारियल, गन्ना, अदरक, गुड़ आदि। यह पर्व समाज में स्वच्छता, सामूहिकता और सहयोग की भावना को भी बढ़ाता है। गाँवों से लेकर महानगरों तक, छठ घाटों की सफाई और सजावट में हर वर्ग का व्यक्ति सहभागी बनता है।

छठ महापर्व की जड़ें बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में हैं, लेकिन आज यह विश्व स्तर पर भारतीय संस्कृति की पहचान बन चुका है। विदेशों में बसे भारतीय भी इसे उसी श्रद्धा और भक्ति से मनाते हैं। अमेरिका, मॉरीशस, दुबई, लंदन और सिंगापुर तक आज छठ की गूंज सुनाई देती है। छठ पर्व हमें यह सिखाता है कि आस्था जब सच्ची होती है, तो वह सीमाओं से परे हो जाती है। इस पर्व की पवित्रता केवल सूर्य की उपासना में नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धता और प्रकृति के प्रति हमारी विनम्रता में निहित है। दीपावली की जगमगाहट के बाद जब सूर्य की सुनहरी किरणें घाटों पर पड़ती हैं, तब लगता है कि मानव जीवन का सच्चा प्रकाश  भक्ति, संयम और कृतज्ञता ही है।

त्योहार आते-जाते रहते हैं, लेकिन छठ महापर्व का भाव हर मन में स्थायी रहता है। यह पर्व केवल पूजा का अवसर नहीं, बल्कि यह जीवन में अनुशासन, स्वच्छता, त्याग और श्रद्धा का प्रतीक है। यही कारण है कि हर वर्ष जब दीपावली की रोशनी मंद पड़ती है, तब छठ की आराधना से पूरा देश फिर से आस्था की ज्योति से आलोकित हो उठता है।

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