आखिर कब तक जातिवाद के चेहरे से महागठबंधन लड़ेगा चुनाव?

 बिहार की राजनीति में चेहरे तो बदलते रहे, लेकिन समीकरण वही पुराने रहे जाति आधारित वोट बैंक की राजनीति। एक बार फिर महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाकर चुनावी मैदान में उतारा है। सवाल यह नहीं कि तेजस्वी यादव कितने योग्य या अयोग्य हैं, सवाल यह है कि क्या बिहार की राजनीति अब भी जाति के खांचे से बाहर नहीं निकल पा रही है? तेजस्वी यादव, जो 2020 में महागठबंधन को बहुमत के बेहद करीब ले गए थे, अब फिर उसी भरोसे मैदान में हैं। लेकिन उनके नेतृत्व में आरजेडी की राजनीति का मूल केंद्र अब भी ‘MY समीकरण’ यानी मुसलमान और यादव पर टिका हुआ है। पार्टी ने एक बार फिर अपने उम्मीदवार चयन में यही संदेश दिया है कि सत्ता की राह जातीय गोलबंदी से होकर ही गुजरती है। 104 सीटों में 52 यादव उम्मीदवारों का उतारा जाना इसका प्रमाण है। सवाल यह उठता है कि क्या बिहार की राजनीति में विकास, शिक्षा, रोजगार और सुशासन से ज्यादा अहम जातीय पहचान रह गई है? 

कांग्रेस और वीआईपी जैसी सहयोगी पार्टियों के बीच सीटों की खींचतान ने यह भी साफ कर दिया है कि महागठबंधन में विचारधारा से ज्यादा अहम “संतुलन और समीकरण” है। कांग्रेस जहां अपनी मजबूत सीटों पर दावा ठोक रही थी, वहीं तेजस्वी ने यह दिखा दिया कि महागठबंधन में असली नेता वही हैं। यह नेतृत्व की परिपक्वता हो सकती है, लेकिन साथ ही यह गठबंधन की सीमाओं को भी उजागर करती है। तेजस्वी यादव अब खुद को “ए टू जेड पार्टी” के रूप में पेश करना चाहते हैं  यानी सभी जातियों और वर्गों की पार्टी। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि उनकी राजनीति का केंद्र अब भी वही है, जहाँ उनके पिता लालू प्रसाद यादव ने इसे छोड़ा था जातीय गोलबंदी और सामाजिक संदेशवाद का मिश्रण। तेजस्वी बेरोजगारी, शिक्षा, महिलाओं के सशक्तिकरण और बिजली जैसी जन समस्याओं पर वादे करते हैं, लेकिन जब उम्मीदवार चयन की बात आती है, तो पुराने जातीय गणित हावी हो जाते हैं।

बिहार में जातिवाद अब किसी पार्टी का नहीं, बल्कि राजनीति की रगों में समाया हुआ चरित्र बन चुका है। नीतीश कुमार हों या तेजस्वी यादव दोनों अपने-अपने सामाजिक आधार से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं, लेकिन हर चुनाव आते-आते वही समीकरण फिर लौट आते हैं। इससे न सिर्फ बिहार की राजनीतिक बहस सीमित होती है, बल्कि राज्य की विकास यात्रा भी पिछड़ जाती है। महागठबंधन के पास इस बार अवसर था कि वह जातिवाद की छवि से ऊपर उठकर एक नया एजेंडा पेश करे रोजगार, शिक्षा, उद्योग, और सुशासन का। लेकिन तेजस्वी यादव की “पुरानी पहचान” ने इस मौके को फिर जातीय रणनीति में बदल दिया।

तेजस्वी के लिए चुनौती अब सिर्फ नीतीश कुमार या एनडीए नहीं हैं, बल्कि उनकी अपनी छवि भी है। अगर वे सच में बिहार को “नए युग” की ओर ले जाना चाहते हैं, तो उन्हें अपने राजनीतिक आधार को “जाति” से “काम” की राजनीति की ओर मोड़ना होगा। बिहार के मतदाता अब यह पूछ रहे हैं क्या हर चुनाव सिर्फ चेहरे बदलने का खेल है, या सोच बदलने का भी वक्त आ गया है? महागठबंधन के लिए तेजस्वी यादव का चेहरा भरोसे का प्रतीक हो सकता है, लेकिन अगर राजनीति का चेहरा जातिवाद ही बना रहा, तो बिहार की तकदीर में बदलाव की उम्मीद फिर अधूरी रह जाएगी।

- विनोद कुमार झा


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