बिहार की राजनीति अपने आप में एक प्रयोगशाला है, जहाँ हर चुनाव नए समीकरण और अप्रत्याशित मोड़ लेकर आता है। इस बार भी कुछ अलग नहीं है सीट बंटवारे से उपजे असंतोष, पारिवारिक टकराव और गठबंधन की अंतर्कलह के बीच भाजपा के रणनीतिकार और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक बार फिर अपने ‘संकटमोचक’ रूप में मैदान संभाल लिया है। दरअसल, बिहार चुनाव में एनडीए के भीतर टिकट बंटवारे को लेकर जिस प्रकार से ‘भीतरघात’ की आशंका बढ़ी, उसने गठबंधन की एकता पर सवाल खड़े कर दिए थे। पटना साहिब जैसी हाई-प्रोफाइल सीट पर नंदकिशोर यादव की जगह रत्नेश कुशवाहा को टिकट दिए जाने से असंतोष की लहर थी। नंदकिशोर यादव का राजनीतिक कद और लंबे अनुभव को किनारे कर नए चेहरे को आगे बढ़ाने का फैसला भाजपा की ‘नई सोच’ का संकेत था जातीय संतुलन और युवा नेतृत्व का विस्तार। लेकिन इसके साथ ही पार्टी को बगावत की चुनौती भी झेलनी पड़ी।
मेयर सीता साहू के बेटे शिशिर कुमार द्वारा निर्दलीय पर्चा दाखिल करना, भाजपा के लिए एक झटका था। परंतु शाह के हस्तक्षेप के बाद जो समाधान निकला, उसने यह साफ कर दिया कि भाजपा संगठनात्मक अनुशासन के साथ-साथ व्यक्तिगत संवाद की राजनीति में भी दक्ष है। शाह ने सीधे संवाद, समझाइश और राजनीतिक दृष्टि से यह सुनिश्चित किया कि न तो वोटों का बिखराव हो, न ही भाजपा के भीतर कोई दरार गहरी हो। यह वही रणनीति है जिसे भाजपा की “डैमेज कंट्रोल” कला कहा जाता है। अमित शाह ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि एनडीए का लक्ष्य सत्ता की निरंतरता है, न कि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री कौन होगा, यह फैसला चुनाव परिणाम आने के बाद विधायक दल करेगा। यह बयान भले ही औपचारिक प्रतीत हो, लेकिन इसके राजनीतिक मायने गहरे हैं। पहली बार भाजपा और जेडी(यू) बराबर संख्या 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में शाह का यह रुख न केवल भाजपा के आत्मविश्वास को दर्शाता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि सत्ता संतुलन की दिशा बदल सकती है।
नीतीश कुमार, जो अब भी एनडीए का “सबसे अनुभवी चेहरा” हैं, के सामने चुनौती दोहरी है एक ओर अपनी विश्वसनीयता और नेतृत्व को बनाए रखना, दूसरी ओर भाजपा के बढ़ते प्रभाव को संभालना। जेडी(यू) की ओर से नीतीश को लेकर आई ‘जल्दबाजी में सफाई’ इस बात की ओर इशारा करती है कि पार्टी के भीतर भी भविष्य की राजनीति को लेकर आशंका बनी हुई है। दूसरी तरफ, लोजपा (रामविलास) के चिराग पासवान की भूमिका इस बार भी एनडीए के लिए उतनी ही दिलचस्प है जितनी चुनौतीपूर्ण। पासवान “नव नेतृत्व” और “नव संकल्प” की बात करते हुए खुद को भविष्य की राजनीति में एक मजबूत विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं। उनकी भाजपा से निकटता जेडी(यू) को असहज कर रही है, जबकि शाह के साथ उनकी मुलाकात ने यह संकेत दिया कि भाजपा पासवान को पूरी तरह हाशिए पर नहीं रखना चाहती। 2020 के चुनावों की यादें अब भी ताजा हैं, जब लोजपा ने भाजपा के मौन समर्थन से जेडी(यू) के खिलाफ कई सीटों पर खेल बिगाड़ दिया था। इस बार भाजपा उस गलती को दोहराने के मूड में नहीं दिखती। शाह का यह ‘प्रोएक्टिव इंटरवेंशन’ इस बार एनडीए के भीतर समन्वय और संवाद दोनों को मज़बूत करने की कोशिश है। परंतु, तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि भाजपा अब बिहार की राजनीति में “समान साझेदारी” से आगे बढ़कर “नेतृत्व की स्थिति” हासिल करने की दिशा में है। नीतीश कुमार की घटती लोकप्रियता और भाजपा की स्थायी संगठनात्मक ताकत मिलकर भविष्य के सत्ता समीकरणों को बदल सकती है। साफ है, अमित शाह के आगमन ने बिहार चुनाव का स्वरूप बदल दिया है। जहां विपक्षी महागठबंधन चेहरे के संकट और सीटों के बिखराव में उलझा है, वहीं एनडीए अपने भीतर की दरारों को भरने में जुटा है। शाह की रणनीति यह सुनिश्चित करने की है कि कोई भी सीट असंतोष की भेंट न चढ़े। बिहार का यह चुनाव केवल गठबंधनों की परीक्षा नहीं, बल्कि नेतृत्व की परिपक्वता का भी इम्तिहान है। अमित शाह की भूमिका यहां सिर्फ एक प्रचारक की नहीं, बल्कि एक संतुलनकारी रणनीतिकार की है, जो भीतरघात को एकता में बदलने की कोशिश कर रहे हैं। आने वाले समय में यह तय करेगा कि बिहार की राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ती है — पुराने समीकरणों की ओर या नए सत्ता संतुलन की ओर।
— विनोद कुमार झा (संपादकीय विश्लेषण)