विनोद कुमार झा
आने वाले समय में बच्चे पूछेंगे, "दादी, सोना कैसा होता है?"
कभी सोना सिर्फ धातु नहीं था, यह विश्वास, भावनाओं और परंपरा का प्रतीक था। यह घर की इज्ज़त का हिस्सा था, माँ के गले की माला में सजी उम्मीदों का प्रतीक था, दादी की चूड़ियों की खनक में छिपी सुरक्षा का एहसास था। पर अब, सोना धीरे-धीरे आम आदमी के जीवन से दूर जा रहा है इतना दूर कि आने वाले समय में शायद बच्चे अपने दादा-दादी या नाना-नानी से पूछेंगे, “दादी, सोना कैसा होता है?”
कभी जो धातु हर घर की अलमारी में, हर बेटी की साख में, हर त्यौहार के उपहार में जगह रखती थी, वह अब संग्रहालयों, किताबों और इंटरनेट के पन्नों तक सिमटती जा रही है।
पहले सुनाई जाती थी सोने सी कहानियाँ : पहले के बच्चे अपने दादा-दादी से “राजा-रानी” की कहानियाँ सुना करते थे जिनकी गलियों में सोने की जंजीरें, राजमहलों में सोने की छतें और महलों के द्वारों पर सोने की जड़ाई होती थी। पर अब वह सोने की दुनिया सिर्फ कहानी बनती जा रही है। आज के बच्चों की कहानियाँ मोबाइल स्क्रीन पर चमकती हैं, जिनमें सोना नहीं, बिटकॉइन और ई-वॉलेट का “डिजिटल धन” है।
गाँव की शादी-ब्याह में जब दूल्हा सोने की चेन पहनता था, तो यह गर्व का नहीं, अपनत्व का प्रतीक होता था। दुल्हन की मँगनी की अंगूठी में सिर्फ गहना नहीं, परिवार का मान-सम्मान झलकता था। लेकिन आज, शादी के गहनों की जगह अब “इमिटेशन ज्वेलरी” ने ले ली है। और यही सच्चाई धीरे-धीरे एक बड़ी सामाजिक कहानी लिख रही है सोना अब हर किसी की पहुँच से बाहर होता जा रहा है।
सोना अब सपना है, संपत्ति नहीं : कुछ दशक पहले तक आम परिवार हर त्योहार या हर बोनस पर थोड़ा-थोड़ा सोना खरीदता था पर अब आर्थिक हकीकत इतनी बदल चुकी है कि वही सोना जो कभी 10,000 रुपये तोले में मिलता था आज सबा लाख रुपये पार कर गया है। मध्यमवर्गीय परिवार अब उसे खरीदने की नहीं, सिर्फ देखने की हिम्मत रखता है। सोने का भाव अब ऐसा हो गया है जैसे किसी पुरानी कविता की पंक्तियाँ सुंदर, चमकीली, पर वास्तविकता से बहुत दूर है। जो गहने पहले पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत बनते थे, अब वही गहने लॉकर्स में बंद हो गए हैं।
कुछ लोग बेचने पर मजबूर हैं, कुछ गिरवी रखकर बच्चों की पढ़ाई या मकान का लोन चुका रहे हैं। आज सोना “सुरक्षा” का नहीं, “सपनों के बोझ” का प्रतीक बनता जा रहा है।
सिर्फ बाजार नहीं, भावनाएँ भी महंगी हुई हैं
जब कोई बेटी की शादी में माँ अपने गहनों से उसके गले में हार पहनाती थी, तो वह सिर्फ आभूषण नहीं था यह विश्वास का हस्तांतरण था। आज की माँ के पास वही भावना है, पर वह “सोनू के ज्वेलर्स” नहीं जा सकती। वह अब डिजिटल गोल्ड या म्यूचुअल फंड में निवेश का सुझाव देती है लेकिन वह चमक अब उसकी आँखों में नहीं दिखती। यह सिर्फ महंगाई का सवाल नहीं, संवेदनाओं के क्षय का संकेत है। क्योंकि सोना हमारे समाज में सिर्फ “कीमत” नहीं रखता था वह एक संस्कृति था, एक परंपरा थी।
आर्थिक दृष्टि से देखें तो... सोने की बढ़ती कीमतों के पीछे कई कारण हैं । वैश्विक अनिश्चितता और डॉलर की मजबूती, निवेशकों का सुरक्षित विकल्प के रूप में सोना चुनना, उत्पादन लागत में वृद्धि और सबसे बड़ा, भारत में सोने की सांस्कृतिक मांग।
भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सोना उपभोक्ता देश है। हर साल लाखों टन सोना यहाँ खरीदा जाता है भले ही वह गहनों के रूप में हो, सिक्कों के रूप में या डिजिटल गोल्ड के रूप में।परंतु पिछले एक दशक में सोने की मांग शहरी अमीर वर्ग तक सीमित हो गई है।
गाँवों और कस्बों में जहाँ पहले हर सावन या दीवाली पर कुछ न कुछ सोना खरीदा जाता था, वहाँ अब खरीदारी बंद हो चुकी है।आंकड़ों के अनुसार, ग्रामीण भारत में सोने की खरीद पिछले दस वर्षों में लगभग 35 प्रतिशत घट गई है। यह सिर्फ एक आर्थिक संकेत नहीं यह उस भावनात्मक जुड़ाव के टूटने की कहानी भी है जो “सोना” और “घर” के बीच था।
सांस्कृतिक बदलाव का प्रतीक बनता सोना : हमारे समाज में सोना कभी “संपत्ति” नहीं, बल्कि “संस्कार” माना गया। बच्चे के जन्म पर, विवाह में, दीवाली या अक्षय तृतीया पर सोना खरीदना शुभ माना जाता था पर अब लोग कहते हैं, “सोना नहीं, शेयर मार्केट में पैसा लगाओ, वहां ज़्यादा रिटर्न है।” यह सोच बदलाव की निशानी है पर इसके साथ एक संस्कृति की परत भी खत्म हो रही है। सोना वह धागा था जो भावनाओं को जोड़ता था, और अब वह धागा धीरे-धीरे टूट रहा है।
भविष्य की तस्वीर : कल्पना कीजिए, बीस साल बाद की दुनिया। जब बच्चे किताब में देखेंगे “Gold: A precious yellow metal”तो वे पूछेंगे, “दादी, क्या ये सच में पीला होता था?”और दादी मुस्कुराते हुए कहेंगी “हाँ बेटा, ये सूरज की तरह चमकता था। तुम्हारे दादा की चेन ऐसी ही थी।”पर फिर वह ठंडी सांस लेकर कहेंगी “अब तो ये सब बस यादें हैं।”यह वह दौर होगा जब शायद “म्यूजियम ऑफ़ ट्रेडिशनल इंडिया” में एक शीशे के अंदर रखी सोने की चूड़ी पर लिखा होगा “Used in Indian marriages during the 20th century.”और तब हमारे बच्चे सोचेंगे क्या ये वही देश है जहाँ ‘सोने की चिड़िया’ बसती थी?
भारत को कभी “सोने की चिड़िया” कहा गया। इतिहास बताता है कि जब विदेशी आक्रमणकारी यहाँ आए, तो वे सोने-चाँदी के भंडार देखकर चकित रह गए। पर आज वही भारत, सोना देखने के लिए विदेशी वेबसाइटों पर भाव चेक करता है।हमने विकास तो किया है तकनीक, उद्योग, अर्थव्यवस्था में पर उस विकास ने हमें भावनात्मक रूप से गरीब कर दिया है। हमारे पास अब गहनों की नक़ल है, लेकिन वास्तविक चमक नहीं।हमारे पास ब्रांडेड घड़ियाँ हैं, पर दादी की चूड़ी की खनक जैसी गर्माहट नहीं।
क्या सोना लौट सकता है?
आर्थिक दृष्टि से देखें तो सोने की मांग फिर भी कभी खत्म नहीं होगी। क्योंकि यह सिर्फ निवेश नहीं, हमारी आत्मा का हिस्सा है। भले ही हम उसे न खरीद पाएँ, पर “सोने का रंग” हमारे दिल में बसा रहेगा। वह रंग हमें याद दिलाएगा कि एक समय था जब सोना सिर्फ धातु नहीं, जीवन का उजाला था। सरकारें गोल्ड बॉन्ड या डिजिटल गोल्ड के रूप में विकल्प दे रही हैं, पर उनमें वह चमक नहीं है जो माँ की चूड़ी में थी। और शायद कभी नहीं होगी क्योंकि सोना सिर्फ चमकता नहीं, महकता भी था, भावनाओं से।
आज के युग में “सोने का रंग” अब किसी आभूषण में नहीं, बल्कि इंसान के भीतर चमकना चाहिए। जो ईमानदारी से काम करता है, जो अपने वादे निभाता है, जो रिश्तों की कीमत समझता है वही आज का असली “सोना” है। भविष्य में चाहे बच्चे सोने को किताबों में देखें या संग्रहालय में, पर अगर हमने अपनी मानवीय चमक बरकरार रखी, तो वे कहेंगे “दादी, सोना तो अब भी है… बस अब वो लोगों के दिलों में रहता है।”
सोना चाहे महंगा हो गया हो,पर उसकी असली कीमत अब हमारे संस्कारों, रिश्तों और ईमानदारी में दिखनी चाहिए। क्योंकि असली “सोने का रंग” धातु में नहीं, बल्कि उस मनुष्य में है जो अब भी उजाला बाँटता है।