बिहार की सियासत एक बार फिर से सीटों के समीकरण में उलझ गई है। महागठबंधन, जो भाजपा के खिलाफ एकजुटता का दावा करता रहा है, अब अपने ही आंतरिक मतभेदों के कारण चर्चा में है। कांग्रेस ने साफ़ शब्दों में कह दिया है कि उसे कम से कम 60 से 65 सीटें चाहिएं, जबकि आरजेडी 58 से अधिक सीट देने को तैयार नहीं है। सवाल यह उठता है कि जब दो प्रमुख दल आपस में ही तालमेल नहीं बैठा पा रहे, तो अन्य सहयोगी दलों को हिस्सेदारी कैसे और कहां से मिलेगी?
महागठबंधन के भीतर यह तकरार कोई नई नहीं है। हर चुनाव से पहले सीट बंटवारे को लेकर ऐसी रस्साकशी होती रही है, लेकिन इस बार हालात अधिक पेचीदा दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस की स्थिति पिछले चुनावों में भले ही कमजोर रही हो, परंतु वह अब भी अपनी पारंपरिक पहचान और वोट बैंक के आधार पर बड़ा हिस्सा चाहती है। दूसरी ओर, आरजेडी अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को लेकर कोई समझौता करने को तैयार नहीं दिखती। वह न केवल स्वयं को गठबंधन का स्वाभाविक नेता मानती है, बल्कि यह भी चाहती है कि अन्य दल उसी भूमिका को स्वीकार करें।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह संघर्ष केवल सीटों का नहीं, बल्कि वर्चस्व की लड़ाई है। कांग्रेस जहां राष्ट्रीय पहचान के बल पर अपनी भूमिका तय करना चाहती है, वहीं आरजेडी राज्य स्तरीय प्रभाव को आधार बनाकर अपनी प्राथमिकता थोप रही है। इस खींचतान के बीच वाम दलों और अन्य छोटे सहयोगी दलों की स्थिति असमंजस में है। महागठबंधन की यह मनमुटाव भले ही सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा हो, लेकिन जनता के दृष्टिकोण से यह नकारात्मक संदेश देता है। विपक्ष तब ही प्रभावी बनता है जब उसके भीतर अनुशासन और सामंजस्य हो। आपसी मतभेदों और बयानबाज़ी से जनता में यह छवि बनती है कि गठबंधन सत्ता प्राप्ति से पहले ही सत्ता की कुर्सी को लेकर बिखर रहा है।
अब नजरें आरजेडी सुप्रीमो पर टिकी हैं। यह उनके राजनीतिक कौशल की परीक्षा है कि वे कैसे सभी दलों को एक मंच पर बनाए रखते हैं। अगर वे इस बार तालमेल और समन्वय की नीति में सफल नहीं हुए, तो महागठबंधन का नुकसान केवल सीटों में नहीं बल्कि साख में भी होगा। सार यह है कि बिहार में चुनावी मुकाबला जितना बाहरी होगा, उतना ही भीतर भी। महागठबंधन को अब यह तय करना होगा कि वह विपक्ष के रूप में एकजुट रहना चाहता है या सीटों के हिसाब में ही बिखर जाना चाहता है।
विनोद कुमार झा