विनोद कुमार झा
शरद ऋतु की यह शाम जैसे-जैसे ढलती है, आसमान में हल्की ठंडक और मिट्टी में घुली नमी का एहसास गहरा होता जाता है। लोगों के मन में दीपावली के दीयों की टिमटिमाहट और छठ के गीतों की लय एक साथ गूंजने लगती है। किसी गांव की चौपाल पर बच्चे मिट्टी के दिए रंग रहे हैं, कहीं शहर की छत पर कोई परदेशी दिल में गांव की याद लिए बैठा है। यह वही मौसम है जब रोशनी और आस्था मिलकर भारतीय समाज की सबसे बड़ी सांस्कृतिक लहरें पैदा करते हैं एक तरफ दीपों की उजास, दूसरी ओर छठ की सूरज आराधना।
लेकिन इस बार की रोशनी सिर्फ घरों में नहीं, बल्कि दिलों में भी है क्योंकि यह समय बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों में लोकतंत्र के दीपोत्सव का भी है। बिहार विधानसभा चुनाव का रंग अब गांव-गांव तक फैल चुका है। कहीं उम्मीदवार की गाड़ी पर लाउडस्पीकर से घोषणा होती है, तो कहीं चौपाल पर राजनीतिक बहसों में रातें बीतती हैं। इन सबके बीच, लोगों के मन में एक ही सवाल तैरता है “इस बार कौन लाएगा गांव के विकास की रोशनी?”
टिमटिमाते दीए और यादों की लहरें : दीपावली सिर्फ त्योहार नहीं, बल्कि स्मृतियों का पुल है। जब पहली बार घर से दूर किसी महानगर में दीपावली आती है, तो सबसे पहले याद आता है गांव का वह छोटा-सा आंगन, जहां मिट्टी के दीए तेल की हल्की गंध के साथ जलते थे। मां तुलसी चौरा के पास दिए जलाकर गुनगुनाती थी, पिता बाहर आंगन में रंगोली बनाते हुए बच्चों से हंसते-बोलते रहते थे, और घर के अंदर से पकवानों की महक हर कोने में फैल जाती थी।
अब वही बेटा किसी अंजान शहर में किसी दफ्तर के ऊँचे टॉवर में बैठा है। चारों तरफ जगमग रोशनी तो है, लेकिन मन में अंधेरा-सा सन्नाटा। शहर की रोशनी में भी उसे गांव के दीयों की लौ याद आती है, जो बिना बिजली के भी घर-आंगन को रोशन करती थी। यह दीपावली केवल रोशनी की नहीं, अपनों के पास लौटने की लालसा की भी कहानी बन जाती है।
पटाखों की आवाज और सन्नाटे की गूंज : गांव में दीपावली का मतलब सिर्फ दीए जलाना नहीं होता यह समुदाय की खुशियों का उत्सव होता है। मोहल्ले के बच्चे मिलकर पटाखे फोड़ते हैं, हर घर से एक जैसी आवाजें आती हैं “सावधान रहना, कान में मत डालना, चिंगारी उधर मत करना।” लेकिन आज के शहरी जीवन में पटाखों की आवाज के पीछे शोर नहीं, बल्कि एकाकीपन की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। जहां गांव में हर घर की दीवारों पर पड़ोसी की हंसी गूंजती थी, वहीं शहर में लोग खिड़की से झांककर बस किसी का दीपक जलता देख मुस्कुरा भर लेते हैं। दीपावली अब सामाजिक नहीं, व्यक्तिगत उत्सव बन गई है और यही भारत के बदलते सामाजिक ताने-बाने की झलक है।
गांव की काली पूजा और मेले की मिठास : बिहार और बंगाल के गांवों में दीपावली की रात सिर्फ लक्ष्मी पूजा तक सीमित नहीं होती। वहां यह काली पूजा का महोत्सव भी होती है। मिट्टी के बने विशाल काली प्रतिमा के सामने गांव के नौजवान पूरी रात जागते हैं। ढोलक की थाप पर नाचते-गाते लोग, जलते धूप-अगरबत्तियों की गंध, और मां काली के जयकारे यह सब कुछ मिलकर एक ऐसी ऊर्जा पैदा करते हैं, जिसे किसी शहर की बिजली की रोशनी भी नहीं दे सकती।
दीपावली के बाद गांव का मेला लगता है वही मेला, जहां बचपन में लकड़ी की तलवार, गुब्बारे और जलेबियां खरीदी जाती थीं। आज भी वही दुकानें हैं, वही हलवाई की आवाज “गरम-गरम जलेबी ले लो...” लेकिन फर्क सिर्फ इतना है कि अब वे बच्चे बड़े हो चुके हैं और किसी शहर की मशीनों में खो गए हैं। गांव का मेला अब भी बुलाता है, लेकिन वक्त की रेल हमेशा कुछ मिनट लेट हो जाती है।
छठ: आस्था, अनुशासन और अपनी मिट्टी की पुकार : दीपावली के ठीक बाद जब घाटों पर सफाई शुरू होती है, तब गांव में छठ की तैयारी पूरे जोश में होती है। यह सिर्फ व्रत नहीं, मां गंगा और सूर्यदेव के प्रति भारतीय नारी की तपस्या है। छठ के गीत जब गूंजते हैं “केलवा जे फरेला घवद से...”, तो लगता है जैसे हर स्वर में गांव की मिट्टी की खुशबू घुली है।
शहरों में रह रहे प्रवासी जब अपने गांव नहीं जा पाते, तो छठ के घाटों की याद उन्हें अंदर से बेचैन करती है। वे फ्लाइट की टिकटों के दाम देखते हैं, ट्रेन की वेटिंग लिस्ट चेक करते हैं, और फिर आह भरते हैं “काश, इस बार घर जा पाता।” रेल टिकट अब सिर्फ यात्रा का साधन नहीं, बल्कि मातृभूमि से मिलने की आशा का प्रतीक बन गई है।
शहर की दौड़ और गांव की पुकार : इन दिनों महानगरों की सड़कों पर एक अजीब-सी हलचल है। ऑफिसों में छुट्टियों के आवेदन बढ़ रहे हैं, रेलवे काउंटरों पर लाइनें लंबी हैं, और हर कोई जल्दी-जल्दी किसी ट्रेन या बस का टिकट लेने में जुटा है। कारण सिर्फ त्योहार नहीं मन का खिंचाव है। वह खिंचाव जो गांव की मिट्टी से जुड़ा है, जो दीपावली की लौ और छठ के अर्घ्य में समाया है।
कई बार लगता है कि आधुनिकता ने मनुष्य को सुविधा तो दी है, पर संबंधों का समय छीन लिया है। गांव अब सिर्फ यादों में रह गए हैं, और त्योहार उनके पुल बन गए हैं। जिनके पास गांव जाने की फुर्सत नहीं, उनके लिए दीपावली और छठ बस मोबाइल स्क्रीन पर चमकते वीडियो बनकर रह जाते हैं।
लोकतंत्र का त्योहार, चुनाव की हलचल : उधर बिहार के गांवों में दीपावली और छठ के साथ-साथ चुनाव की भी गहमागहमी है। पोस्टर, नारों, सभाओं और भाषणों के बीच हर घर में एक नई चर्चा है। “इस बार कौन जीतेगा?” यह सवाल हर गली-मोहल्ले में गूंजता है। त्योहार और राजनीति का यह संगम दिलचस्प है एक तरफ धर्म और आस्था की ऊर्जा, दूसरी तरफ लोकतंत्र की भागीदारी।
किसी चौपाल पर कोई कहता है “भइया, सड़क चाहिए, कोई कहता नौकरी चाहिए, दीया बाद में जलाएंगे।”तो कहीं कोई बुजुर्ग मुस्कुराकर बोलता है “पहले पेट भरे, तब पर्व मने।”इन आवाज़ों में असली भारत बोलता है जो आस्था और आकांक्षा दोनों में एक साथ जीता है।
भावनाओं की डोर और भारत की पहचान : दीपावली, छठ, मेला, चुनाव ये सब सिर्फ घटनाएं नहीं, बल्कि भारतीय समाज की आत्मा की झलक हैं। हर बार जब कोई व्यक्ति किसी दूर शहर में दीप जलाता है या छठ का प्रसाद बनाता है, तो वह अपने गांव, अपनी जड़ों, अपनी पहचान से जुड़ जाता है।आधुनिक भारत के इस संक्रमणकाल में यह जुड़ाव ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है। आज भी किसी महानगर की भीड़ में कोई प्रवासी जब दीपक जलाता है, तो उसके मन में सिर्फ रोशनी नहीं, अपनेपन की लौ जलती है। क्योंकि हर दीपावली उसे याद दिलाती है कि वह जहां भी हो, उसकी आत्मा अब भी गांव की चौखट पर टिमटिमा रही है।
रोशनी वहीं पूरी है, जहां मन अपनों के पास है। त्योहार सिर्फ तिथि नहीं, भावनाओं का समय हैं। दीपावली हमें रोशनी का अर्थ सिखाती है, छठ हमें संयम का, और गांव हमें आत्मीयता का। चुनाव हमें उम्मीद का अर्थ समझाते हैं, और शहर हमें मेहनत का लेकिन जब ये सब एक साथ मिलते हैं, तो भारत अपने सबसे जीवंत रूप में नजर आता है।
आज जब हर कोई किसी न किसी दौड़ में व्यस्त है, तो शायद यह मौसम हमें ठहरकर यह सोचने पर मजबूर करता है क्या हम सच में उजाले की ओर बढ़ रहे हैं, या सिर्फ चमक का पीछा कर रहे हैं? हो सकता है कि गांव के मिट्टी के दिए उतनी रोशनी न फैलाएं, लेकिन वे दिल में जो उजाला करते हैं, वह किसी बिजली के बल्ब से कहीं ज्यादा स्थायी होता है। क्योंकि रोशनी वहीं पूरी है,ज जहांमन अपनों के पास है।