बिहार की धरती पर फिर से चुनावी नगाड़े गूंज उठे हैं। लोकतंत्र के इस पर्व में हर ओर भाषणों की गूंज, नारों की अनुगूंज और जनता की धड़कनों का कंपन महसूस किया जा सकता है। कल बिहार में जिस तरह से राजनीतिक दिग्गजों ने मंच साझा किया, उसने चुनावी समर को और अधिक तीखा बना दिया। दरभंगा से मुजफ्फरपुर तक सड़कों पर भीड़ और मंचों पर जोश—दोनों ने इस बात का संकेत दिया कि जनता इस बार मुद्दों को सुनने और समझने के मूड में है।
केंद्रीय नेताओं राजनाथ सिंह, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ से लेकर विपक्षी पाले के राहुल गांधी और तेजस्वी यादव सभी ने अपने-अपने सुर में जनता को लुभाने की कोशिश की। आरोप-प्रत्यारोप का ऐसा दौर चला कि मंच राजनीतिक रणभूमि में तब्दील हो गए। सत्तापक्ष विकास और स्थिरता के नाम पर वोट मांग रहा है तो विपक्ष बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाकर जनता के बीच जा रहा है। शब्दों के इस संग्राम में अब जनता ही निर्णायक बनेगी कि किसकी तान में सच्चाई की झंकार है और किसके गीत में केवल सियासी शोर।
यह भी दिलचस्प है कि बिहार की राजनीति में भावनाओं और जातीय समीकरणों के साथ-साथ अब युवा मतदाता का रुझान निर्णायक होता जा रहा है। डिजिटल युग का यह युवा केवल वादे नहीं, परिणाम चाहता है। वह सुनता है, परखता है और फिर मतदान करता है। यही कारण है कि नेताओं के भाषणों में अब “विकास”, “रोजगार” और “शिक्षा” जैसे शब्द बार-बार गूंजने लगे हैं।
बिहार की यह चुनावी घुन केवल राजनीतिक दलों की परीक्षा नहीं, बल्कि लोकतंत्र के उस जनविश्वास की भी परख है जो हर पांच साल में नए सिरे से अंकित होता है। जनता सब सुन रही है कौन सच बोल रहा है, कौन छल का आलाप छेड़ रहा है। आने वाले दिनों में जब मतपेटियां खुलेंगी, तब तय होगा कि इस चुनावी संगीत का असली सुर किसके पक्ष में बजा। फिलहाल बिहार का माहौल एक बार फिर राजनीतिक उत्सव में तब्दील हो चुका है जहां जनता दर्शक नहीं, बल्कि गायक और निर्णायक दोनों है। यही तो लोकतंत्र की सबसे सुंदर तान है।
- विनोद कुमार झा
