छठ महापर्व 2025: पौराणिक कथा, व्रत की विधि और शुभ मुहूर्त

विनोद कुमार झा

भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में छठ महापर्व का स्थान सबसे ऊँचा माना जाता है। यह पर्व न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह शुद्धता, आस्था, त्याग और आत्मसंयम का प्रतीक भी है। बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में विशेष रूप से मनाया जाने वाला यह पर्व आज पूरे भारत और विश्व के हर उस कोने में फैल चुका है जहाँ भारतीय समुदाय निवास करता है।

छठ महापर्व की तिथियाँ और शुभ मुहूर्त

वर्ष 2025 में छठ महापर्व की शुरुआत 25 अक्टूबर (शनिवार) से होगी जब व्रती नहाय-खाय के साथ इस पवित्र पर्व का आरंभ करेंगे।

  • 25 अक्टूबर – नहाय खाय (शनिवार)
  • 26 अक्टूबर – खरना (रविवार)
  • 27 अक्टूबर – संध्या अर्घ्य (सोमवार)
  • 28 अक्टूबर – उषा अर्घ्य (मंगलवार)

संध्या अर्घ्य का मुहूर्त: सूर्यास्त के समय लगभग 5:18 बजे से 5:35 बजे तक शुभ रहेगा।
उषा अर्घ्य (सूर्योदय अर्घ्य) का मुहूर्त सुबह 6:08 बजे से 6:20 बजे के बीच रहेगा।
(स्थानीय समयानुसार कुछ मिनटों का अंतर हो सकता है।)

छठ महापर्व की पौराणिक कथाएँ 

छठ पर्व की उत्पत्ति को लेकर अनेक पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। ये कथाएँ भले ही विविध हैं, परंतु सभी का सार यही है कि यह पर्व सूर्य देव और षष्ठी माता की आराधना के माध्यम से मानव जीवन में स्वास्थ्य, समृद्धि, संतान सुख और दीर्घायु की कामना का प्रतीक है।

1. सूर्यपुत्री छठी मैया की कथा

मान्यता है कि जब सृष्टि की रचना हुई, तब ब्रह्मा जी ने सृष्टि के संचालन के लिए सूर्य देव को प्रकट किया। सूर्य देव की एक किरण से षष्ठी देवी या छठी मैया का जन्म हुआ। ये देवता और मानव के बीच सेतु बनीं संतान सुख और जीवन के रक्षक के रूप में।
कहा जाता है कि जब धरती पर मानव जीवन का विस्तार हुआ, तब सूर्य की ऊर्जा और प्रकाश से जीवन चलने लगा। उस ऊर्जा की आराधना के लिए मानव ने सूर्य और उनकी शक्ति ‘षष्ठी’ की पूजा आरंभ की, जो आगे चलकर छठ व्रत के रूप में प्रसिद्ध हुई।

2. राजा प्रियव्रत और मलयध्वजा की कथा

भागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि मनु पुत्र राजा प्रियव्रत की कोई संतान नहीं थी। अत्यंत दुखी होकर उन्होंने महर्षि कश्यप से उपाय पूछा। ऋषि ने पुत्र प्राप्ति के लिए एक यज्ञ करने का निर्देश दिया। यज्ञ के प्रभाव से रानी मालिनी ने पुत्र को जन्म दिया, परंतु वह शिशु मृत पैदा हुआ। राजा अत्यंत शोकाकुल हुए और तब उन्होंने छह दिव्य देवियों से प्रार्थना की। तभी आकाशवाणी हुई  “हम षष्ठी देवी हैं, हम बालकों की रक्षक हैं।” देवी के आशीर्वाद से राजपुत्र जीवित हो उठा। उस दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि थी। तभी से यह व्रत “षष्ठी मैया” के रूप में पूजित होने लगा।

3. द्रौपदी और पांडवों की कथा

महाभारत काल में जब पांडवों को अपना राज्य खोना पड़ा और वे वनवास में थे, तब द्रौपदी ने अपने परिवार के उद्धार के लिए सूर्य देव की उपासना की। उन्होंने निर्जला व्रत रखा, सूर्य की संध्या और उषा दोनों बेला में अर्घ्य दिया। उनकी भक्ति और तपस्या से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने उन्हें “अखंड सौभाग्य” और पांडवों को विजय का वरदान दिया। कहते हैं, यह वही व्रत था जो आज छठ पर्व के रूप में जाना जाता है। 

4. रामायण कालीन कथा

कहा जाता है कि जब भगवान श्रीराम और माता सीता चौदह वर्ष का वनवास पूरा कर अयोध्या लौटे, तब उन्होंने राज्याभिषेक के पश्चात कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना की थी। माता सीता ने स्वयं व्रत रखा और उषा काल में सूर्य को अर्घ्य दिया। तभी से यह परंपरा आरंभ हुई।

5. कर्ण और सूर्य आराधना

महाभारत में वर्णित सूर्यपुत्र कर्ण प्रतिदिन उगते और अस्त होते सूर्य को अर्घ्य दिया करते थे। वे जानते थे कि सूर्य ही उनकी जीवन-ऊर्जा हैं। यह अर्घ्य-परंपरा आगे चलकर लोकाचार में रच-बस गई, जिसे आज छठ व्रत के रूप में श्रद्धापूर्वक निभाया जाता है।

व्रत की विधि: छठ महापर्व का प्रत्येक चरण अत्यंत शुद्धता, नियम और संयम से जुड़ा होता है। व्रती चाहे स्त्री हो या पुरुष पूरे चार दिनों तक कठोर तप की तरह इस व्रत को निभाते हैं।पहला दिन – नहाय खाय : पहले दिन व्रती गंगा या पवित्र नदी में स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करते हैं। इसके बाद लौकी-भात, चना दाल और अरवा चावल का प्रसाद बनता है। यह भोजन शुद्ध घी में बनाया जाता है। इसे ग्रहण करने के बाद व्रती अगले तीन दिनों तक सात्विकता का पालन करते हैं।

दूसरा दिन – खरना : खरना के दिन व्रती दिनभर निर्जला उपवास रखते हैं। शाम को सूर्यास्त के बाद गुड़-चावल की खीर, रोटी और फल बनाकर सूर्य देव को अर्पित करते हैं। इसके बाद उसी प्रसाद को ग्रहण कर अगले 36 घंटे का निर्जला उपवास आरंभ करते हैं। 

तीसरा दिन – संध्या अर्घ्य : सूर्यास्त के समय व्रती घाट पर पहुँचते हैं। व्रतियों के साथ पूरा परिवार और गाँव की महिलाएँ पारंपरिक गीत गाती हैं। बाँस की सूप में ठेकुआ, फल, नारियल, केला, और गन्ना रखकर अस्ताचलगामी सूर्य को जल, दूध और अर्घ्य दिया जाता है। उस क्षण का दृश्य इतना दिव्य होता है कि सूर्य की लालिमा और भक्तों की श्रद्धा मिलकर एक अनोखी छटा बिखेरती है।

चौथा दिन – उषा अर्घ्य (सूर्योदय अर्घ्य): अगले दिन प्रातः उगते सूर्य को पुनः अर्घ्य दिया जाता है। व्रती अपने परिवार, समाज और समस्त जगत के कल्याण की कामना करते हैं। इसके बाद व्रत पारण किया जाता है और घर-घर में प्रसाद बाँटा जाता है।

छठ महापर्व न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह मानवता, समर्पण और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का उत्सव है। इसमें जल, वायु, अग्नि, भूमि और आकाश  इन पाँच तत्वों की पूजा होती है। यह पर्व सिखाता है कि जब मनुष्य संयम, श्रम और श्रद्धा से जीवन जिए, तो प्रकृति स्वयं उसके पक्ष में खड़ी हो जाती है।

हर घाट पर “छठ मइया की जय”, “सूर्य भगवान की जय” के जयकारों के बीच जब महिलाएँ सिर पर डाला उठाए जल में उतरती हैं, तो वह क्षण केवल पूजा नहीं भक्ति का महासागर बन जाता है। छठ महापर्व भारतीय लोक जीवन की आत्मा है  जहाँ आस्था नदी के जल में बहती है, गीतों में गूंजती है, और दीपों में झिलमिलाती है। यह महापर्व न केवल सूर्य आराधना का अवसर होगा, बल्कि परिवार, समाज और प्रकृति के प्रति हमारी कृतज्ञता का उत्सव भी बनेगा।

जय छठी मैया।

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