पितृपक्ष श्राद्ध का महत्व : परंपरा, पितरों का ऋण और कर्तव्य

विनोद कुमार झा

भारतीय संस्कृति की जड़ें केवल भौतिक जीवन में नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और ऋणात्मक जीवनदर्शन में भी गहराई से जुड़ी हैं। इन्हीं में से एक है पितृपक्ष श्राद्ध। भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर अश्विन अमावस्या तक के पंद्रह दिन महालय या श्राद्ध पक्ष कहलाते हैं। यह कालखंड पितरों की स्मृति, तर्पण और कृतज्ञता के लिए समर्पित है।

हमारे शास्त्रों में मनुष्य को तीन प्रमुख ऋण बताए गए हैं जो इस प्रकार है।

1. देव ऋण – देवताओं की उपासना से निवृत्ति।

2. ऋषि ऋण – वेद और ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाने से निवृत्ति।

3. पितृ ऋण – पूर्वजों के प्रति आभार और उनके उद्धार से निवृत्ति।

मनुस्मृति (6/35) में कहा गया है, ऋषिभ्यः अध्ययनं दत्त्वा यज्ञैः देवांश्च पूजयेत्। पितृभ्यश्च प्रयत्नेन प्रजया च पितृऋणम्॥

अर्थात्, वेदाध्ययन से ऋषि ऋण, यज्ञ-उपासना से देव ऋण और संतानोत्पत्ति व श्राद्धकर्म से पितृ ऋण की निवृत्ति होती है।

श्राद्ध और तर्पण की परंपरा : श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है, अर्थात् श्रद्धा भाव से किया गया कर्म। गरुड़ पुराण (पूर्व खंड 10/20) में उल्लेख है, श्रद्धया यत् क्रियते यत् च पितृभ्यः प्रयुज्यते। तद् एव श्राद्धमाख्यातं सर्वपितृप्रियं भवेत्॥

अर्थात्, श्रद्धा से पितरों के लिए जो अर्पण किया जाए, वही श्राद्ध कहलाता है और वही पितरों को प्रिय होता है।

तर्पण का शाब्दिक अर्थ है – तृप्त करना। जल, तिल और कुश के माध्यम से पितरों का स्मरण कर उन्हें तृप्त किया जाता है। पिंडदान में अन्न के गोले (जौ, तिल, चावल मिश्रित) अर्पित कर पितरों के अस्तित्व और वंश परंपरा को जीवित रखने का संदेश दिया जाता है।

पितरों का आशीर्वाद : गरुड़ पुराण (पूर्व खंड 5/10) में कहा गया है- पितरः प्रीयमाणा हि प्रीयन्ते सर्वदेवताः। पितृदोषकृतं सर्वं नश्यत्येव न संशयः॥

अर्थात्, जब पितर प्रसन्न होते हैं तो समस्त देवता भी प्रसन्न होते हैं और पितृदोष से उत्पन्न सभी विघ्न दूर हो जाते हैं। श्राद्ध करने वाले पुत्र को पितरों का आशीर्वाद मिलता है, जिससे परिवार में सुख, शांति और समृद्धि बनी रहती है।

पुत्र के लिए श्राद्ध क्यों अनिवार्य?

पौराणिक मान्यता के अनुसार “पुत्र” शब्द का अर्थ है— पु नरकात् त्रायते इति पुत्रः यानी जो पितरों को नरक से तार दे, वही पुत्र है। महाभारत (अनुशासन पर्व, अध्याय 106) में भी कहा गया है कि पुत्र अपने कर्मों और श्राद्धकर्म से पितरों का उद्धार करता है। इसी कारण पितृपक्ष में श्राद्ध और तर्पण करना पुत्र का नैतिक व धार्मिक कर्तव्य माना गया है।

श्राद्ध केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आभार और कृतज्ञता का संस्कार है। यह परंपरा सिखाती है कि परिवार और समाज की प्रगति तभी संभव है, जब वह अपने अतीत और पूर्वजों को सम्मान देता है। आज के समय में जब आधुनिकता के नाम पर परंपराएं भुलाई जा रही हैं, पितृपक्ष हमें अपनी जड़ों से जुड़े रहने का अवसर प्रदान करता है।

पितृपक्ष केवल कर्मकांड का पर्व नहीं, बल्कि पितरों की स्मृति, आभार और ऋणमुक्ति का आध्यात्मिक उत्सव है। मनुस्मृति, गरुड़ पुराण और महाभारत जैसे धर्मग्रंथ स्पष्ट रूप से बताते हैं कि पितरों के तर्पण और श्राद्ध से जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाएँ दूर होती हैं और वंश की समृद्धि बनी रहती है। इसलिए पुत्र के लिए श्राद्ध और पिंडदान न केवल शास्त्रीय अनिवार्यता है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति का वह स्तंभ है, जो हमें यह सिखाता है कि पूर्वजों का सम्मान ही भविष्य का आधार है।

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