विनोद कुमार झा
कभी-कभी एक मुस्कान की झलक, या होंठों पर खामोश लाली, किसी शहर की हर गली को रंगीन बना देती है। जब प्रेम चुपचाप आंखों से बहता है, तो होंठों की लाली किसी इज़हार से कम नहीं होती। यह कहानी है उन गलियों की, जो किसी लड़की की मुस्कान को दिनभर निहारती रहीं। यह कहानी है उन दो प्रेमियों की, जो इश्क़ में बिना बोले भी सब कह गए।
हर शहर की कुछ गलियां होती हैं जो अपने भीतर एक रहस्य समेटे होती हैं। कुछ ऐसे मोड़, जहां हवाएं भी धीरे बहती हैं, क्योंकि वहां किसी की यादों की खुशबू बसी होती है। दिल्ली की उन पुरानी गलियों में भी एक रहस्य था नीरा की मुस्कान का। और उस मुस्कान में बसी थी एक ऐसी लाली, जिसे देखकर आरव ने बोलना तो नहीं सीखा, मगर चित्र बनाना जरूर सीख गया।
दिल्ली की गीली गलियों में सुबह की पहली किरण जब मंदिर की घंटियों से टकराती, तो हर घर में तुलसी के पत्तों की खुशबू बिखर जाती। ऐसी ही एक सुबह, मंदिर की सीढ़ियों से उतरती नीरा की पायल की झंकार सुनाई देती थी। वह चुपचाप चलती थी, मगर उसकी चाल में संगीत था।
नीरा कोई साधारण लड़की नहीं थी वह हर मौसम में कुछ खास लेकर आती थी। कभी हरे रंग की चूड़ियों में सावन बसता, तो कभी उसके लाल दुपट्टे में बसा होता होली का रंग। लेकिन जो चीज सबसे ज़्यादा आकर्षक थी, वह थे उसके होंठ जिन पर सजी रहती थी एक खामोश सी लाली।
वहीं, गली के नुक्कड़ पर एक पुरानी हलवाई की दुकान के ऊपर की छत पर बैठा होता था आरव अपनी स्केचबुक और पेंसिल के साथ।
आरव न तो बहुत बोलता था, न ही बहुत मिलता-जुलता था। वह बस देखता था ध्यान से। उसकी आँखों में दुनिया को देखने का एक अलग ही ज़रिया था। वह हर चीज़ को उसकी आत्मा से देखता, और फिर अपनी स्केचबुक में उतार लेता। नीरा उसकी पहली और आखिरी प्रेरणा थी। लेकिन वह यह बात कभी कह नहीं पाया।
हर सुबह वह नीरा को देखता, उसकी मुस्कान को, उसके होंठों की उस लाली को, और फिर रेखाओं में उसे उतारता चला जाता। लेकिन एक बात हमेशा करता उस तस्वीर को शाम ढलते ही जला देता। क्योंकि उसके मन में एक डर था कि कहीं वह उसे देख ना ले, और उसकी दुनिया चुपचाप बिखर जाए।
एक दिन नीरा गलियों से होते हुए अचानक ही उस दुकान के पास रुक गई। उसके हाथ में थी एक किताब, जिसे वह छोड़कर कहीं चली गई थी। जब वह लौटकर आई, तो उसकी नजर स्केचबुक पर पड़ी। उसमें उसका चेहरा, उसकी मुस्कान, उसकी लाली सब कुछ था।पर वह कुछ नहीं बोली। बस मुस्कराई और एक पेज पलटा। अगला पन्ना फिर वही नीरा।
वह बोली, "तुम मुझे हर दिन बनाते हो, पर कहते कुछ नहीं। क्या इन तस्वीरों के पीछे कोई बात छुपी है?"
आरव घबरा गया। उसने झट से स्केचबुक बंद की और बोला,
"मैं सिर्फ रेखाएं बनाता हूं। शब्दों से डर लगता है।" नीरा कुछ देर चुप रही और फिर मुस्कराते हुए बोली,"अगर रेखाएं बोलती हैं, तो मैं सुन सकती हूं।"
उस दिन के बाद सब कुछ बदल गया। नीरा रोज़ आरव की स्केचबुक देखती। कभी बैठ जाती, कभी मुस्कराती, कभी कहती "आज मेरी पायल ठीक से बनी है या नहीं?"
आरव अब तस्वीरें नहीं जलाता था। वह अब उन्हें संजोता, रंगता, सजाता और उनमें अपने दिल के शब्द छुपाता। एक दिन नीरा ने कहा, "आरव, एक बार मेरे होंठों की लाली को रंग से भरो। जैसे तुम मुझे देखते हो।" वह चुपचाप अपनी रंगतों की पेटी उठाकर बैठ गया। लेकिन जब उसने ब्रश होंठों पर रखा, हाथ कांप गया।
"मैं डरता हूं," उसने कहा।
"किससे?"
"कि कहीं मैं तुम्हारी मुस्कान को बिगाड़ न दूं।"
नीरा ने उसका हाथ पकड़ लिया, "अब अगर बिगड़ा भी, तो साथ में ठीक करेंगे। "अब वे दोनों साथ बैठते, साथ स्केच बनाते, और कभी-कभी बिना बोले घंटों एक-दूसरे को देखते। प्रेम अब रंगों में था, मुस्कानों में था, चुपचाप लम्हों में था।
आरव ने पहली बार एक स्केच बनाया जिसमें वह और नीरा एक साथ थे मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे, नीरा के होंठों पर वही लाली, और आरव के चेहरे पर सुकून।
इस स्केच को नीरा ने अपने कमरे की दीवार पर टांग दिया।समय बीतता गया। अब वृंदावन की गलियों में लोग एक नई कहानी सुनाते उस चित्रकार की, जिसने अपनी प्रेमिका की मुस्कान को रेखाओं में अमर कर दिया।
आरव और नीरा की शादी एक साधारण समारोह में हुई। लेकिन उसकी सबसे बड़ी खास बात थी वे vows नहीं बोले गए, वे तस्वीरों में कहे गए। हर मेहमान को एक स्केच गिफ्ट मिला नीरा के मुस्कान का।
आज भी, वृंदावन की उन्हीं गलियों में हर सुबह नीरा की पायल की झंकार सुनाई देती है, और आरव अपनी दुकान के सामने बैठा नई पीढ़ी को सिखाता है ,"अगर प्रेम सच्चा हो, तो वह होंठों की लाली में भी बोल उठता है।"
होंठों की लाली को निहारते गलियां केवल प्रेम कहानी नहीं है, यह एक अहसास है। एक मौन भाषा है, जिसमें प्रेम शब्दों का मोहताज नहीं होता। यह कहानी उन सभी के लिए है, जो अपनी भावना को कह नहीं पाते, लेकिन उसे जिए बिना रह भी नहीं पाते।