कांवड़ यात्रा की शुरुआत और कथाएं एवं महत्व

 विनोद कुमार झा

श्रावन मास की पावन बेला जैसे ही दस्तक देती है, समूचे देश का वातावरण "हर-हर महादेव" और "बोल बम" के जयकारों से गुंजायमान हो उठता है। यह समय है कांवड़ यात्रा का वह अनूठा आध्यात्मिक पर्व, जिसमें आस्था, तपस्या, सेवा और भक्ति का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। अब आप कहेंगे कि यह कांवड़ यात्रा की शुरुआत कब से हुआ है तो आइए जानते हैं विभिन्न ग्रंथों में वर्णित कथाओं को विस्तार से:-

 कांवड़ यात्रा की शुरुआत को लेकर कई प्रचलित कथाएं हैं, जिनमें विभिन्न पौराणिक चरित्रों का उल्लेख मिलता है। यह स्पष्ट रूप से कहना कठिन है कि सबसे पहले कांवड़ यात्रा किसने की थी, क्योंकि विभिन्न कथाएँ अलग-अलग व्यक्तियों को इसका श्रेय देती हैं। इन कथाओं का वर्णन विभिन्न पुराणों और धार्मिक ग्रंथों में मिलता है:

भगवान परशुराम:  एक प्रचलित कथाओं के अनुसार, भगवान परशुराम पहले कांवड़िया थे। उन्होंने उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के पुरा महादेव मंदिर में जलाभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाया था। आज भी लाखों श्रद्धालु इसी मार्ग पर चलकर भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं।

वर्णन: यह कथा स्थानीय मान्यताओं और पौराणिक आख्यानों में मिलती है।

 श्रवण कुमार:  कुछ विद्वानों का मानना है कि त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने कांवड़ यात्रा की नींव रखी थी। कथा के अनुसार, उन्होंने अपने अंधे माता-पिता की तीर्थ यात्रा की इच्छा पूरी करने के लिए उन्हें कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार लाए और गंगा स्नान कराया। लौटते समय वे अपने साथ गंगाजल भी ले गए, जिससे यह परंपरा शुरू हुई।

वर्णन: यह कथा रामायण और अन्य लोक कथाओं में पाई जाती है।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम: वाल्मीकि रामायण की एक कहानी के अनुसार, भगवान राम ने भी कांवड़ यात्रा की थी। कुछ मान्यताओं में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने गंगाजल से शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था।

वर्णन: यह कथा वाल्मीकि रामायण से संबंधित प्रसंगों में पाई जाती है।

दशानन रावण:  एक और मान्यता के अनुसार, रावण भगवान शिव का परम भक्त था और उसी ने सबसे पहले कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। समुद्र मंथन के दौरान हलाहल विष पीने के बाद भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया था। इस विष के प्रभाव को कम करने के लिए रावण ने हरिद्वार से गंगाजल लाकर बागपत के पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का जलाभिषेक किया था।

वर्णन: रावण से जुड़ी यह कथा स्कंद पुराण और रावण संहिता जैसे ग्रंथों में वर्णित मिलती है।

इन सभी कथाओं में से, भगवान परशुराम और रावण की कथाएं कांवड़ यात्रा के प्रत्यक्ष आरंभकर्ता के रूप में अधिक प्रचलित हैं, जबकि श्रवण कुमार की कथा "कांवड़" शब्द के उपयोग और माता-पिता की सेवा के प्रतीक के रूप में अधिक प्रासंगिक है। भगवान राम से जुड़ी कथा भी इस पवित्र यात्रा के महत्व को दर्शाती है।

श्रावन मास से जुड़ी सबसे प्रसिद्ध कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है। जब देवताओं और दानवों ने मिलकर मंदराचल पर्वत से समुद्र मंथन किया, तब सर्वप्रथम कालकूट नामक विष निकला। यह विष इतना प्रचंड और घातक था कि उसके प्रभाव से समस्त सृष्टि के प्राणी संकट में आ गए। तब भगवान विष्णु, ब्रह्मा, और समस्त देवता शिवजी की शरण में गए। भगवान शिव ने समस्त जगत की रक्षा हेतु उस महाविष को अपने कंठ में धारण कर लिया , जिससे उनका कंठ नीला हो गया और वे "नीलकंठ" कहलाए।

विषपान के कारण शिवजी का शरीर अत्यंत गर्म हो गया। उनकी इस अग्नितुल्य पीड़ा को शांत करने के लिए देवगणों ने जलाभिषेक करना शुरू किया , और तभी से श्रावण मास में विशेष रूप से जलाभिषेक और बेलपत्र अर्पण की परंपरा चली आ रही है।

शिव पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि ,"श्रावण मासे यः पवित्रं जलं शिवार्पयति, स कोटिजन्यं पापं नश्यति।"

अर्थात् जो व्यक्ति श्रावण मास में गंगाजल, दूध, मधु आदि से शिवलिंग का अभिषेक करता है, वह करोड़ों जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है।

स्कंद पुराण में श्रावण मास को "व्रतों का राजा" कहा गया है। इसमें बताया गया है कि श्रावन में सोमवार के दिन व्रत रखकर शिवलिंग पर जल, दूध और पंचामृत से अभिषेक करना अत्यंत पुण्यदायक होता है।

पद्म पुराण के अनुसार, श्रावण मास में भगवान शिव की पूजा करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, विशेषकर अविवाहित कन्याओं को उत्तम वर और विवाहित स्त्रियों को अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

लिंग पुराण में वर्णन है कि श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को शिवलिंग पर बिल्वपत्र अर्पित करने से व्यक्ति को मृत्यु के उपरांत शिवलोक की प्राप्ति होती है।

 एक और पौराणिक कथाओं के अनुसार, माता पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए श्रावण मास में कठोर तपस्या और व्रत रखा था, जिससे भगवान शिव प्रसन्न हुए थे। इसलिए यह महीना भगवान शिव को बहुत प्रिय है।

जो व्यक्ति श्रावण में श्रद्धापूर्वक भगवान शिव की पूजा करता है, उसके जीवन से दुख-दरिद्रता दूर हो जाती है। सुखद वैवाहिक जीवन और संतान सुख का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। श्रावण सोमवार का व्रत करने से अकाल मृत्यु और दुर्घटना के भय से मुक्ति मिलती है।

 श्रावन मास में प्रकृति भी मानो हरित चादर ओढ़ लेती है। हरियाली, वर्षा और शीतल हवा वातावरण को मनोहारी बना देती है। यह काल कृषि प्रधान भारत में फसलों के रोपण का समय भी होता है, अतः इसे समृद्धि और उत्पादकता का भी मास कहा जाता है।

 श्रावन मास में शिवभक्त "कांवड़िए" हरिद्वार से गंगाजल लाकर अपने नजदीकी शिवालयों में चढ़ाते हैं।  जबकि शुलतानगंज से गंगाजल ले जाकर बाबा बैद्यनाथ को चढ़ाते हैं। यह परंपरा भी शिव के विषपान की घटना से जुड़ी है। कांवड़िए अपने सिर पर गंगाजल लेकर सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा करते हैं और "बोल बम", "हर हर महादेव" के उद्घोष के साथ शिवालयों में जल चढ़ाते हैं।

श्रावन केवल धार्मिक या सामाजिक अनुष्ठान नहीं है। यह आत्मिक शुद्धि का काल है। भगवान शिव ध्यान, योग और वैराग्य के प्रतीक हैं, और श्रावण मास उनके इन्हीं गुणों को आत्मसात करने का उपयुक्त समय है। कहा भी गया है: "शिवो भूत्वा शिवं यजेत्"

अर्थात् शिवस्वरूप होकर ही शिव की उपासना की जा सकती है। इस मास में ध्यान, व्रत, संयम और साधना के माध्यम से हम अपने भीतर के शिवत्व को जागृत कर सकते हैं।

कांवड़ यात्रा की शुरुआत का सबसे प्रमुख स्थल उत्तराखंड का हरिद्वार है, जहाँ से उत्तर भारत के अधिकांश कांवड़िए गंगा जल भरते हैं। दूसरी ओर, पूर्वी भारत में बिहार के सुलतानगंज को विशेष महत्व प्राप्त है। यहाँ से गंगा नदी का जल भरकर कांवड़िए झारखंड स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम (देवघर) तक की कठिन यात्रा करते हैं। मान्यता है कि यही वह मार्ग है जिसे पौराणिक काल में भगवान परशुराम ने भी अपनाया था। उन्होंने सुलतानगंज से जल लेकर श्रावण मास में शिवलिंग का अभिषेक किया था।

श्रावण मास महज एक महीना नहीं, बल्कि शिव-भक्ति की पावन धारा है, जो व्यक्ति को आत्मिक ऊंचाइयों तक ले जाती है। यह समय है आत्मनिरीक्षण, संयम, उपासना और सत्कर्मों का। 11 जुलाई से आरंभ हो रहे इस पावन काल में शिवभक्तों को चाहिए कि वे अपने तन, मन और वचन से शिव को अर्पित करें, ताकि उन्हें न केवल सांसारिक सुख-सौभाग्य बल्कि परमशांति और मोक्ष की प्राप्ति हो।

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