(एक अधूरी लेकिन रोमांचक प्रेम कथा)
विनोद कुमार झा
प्यार... एक ऐसा एहसास जो शब्दों में नहीं, निगाहों में उतरता है। जो दिल की धड़कनों में बसकर हमारी पूरी दुनिया को बदल देता है। कभी यह हवा की तरह स्पर्श करता है, तो कभी तूफ़ान की तरह ज़िंदगी को उलट-पुलट कर देता है। यह कहानी है आरव और काव्या की दो बिल्कुल अलग ज़िंदगियों के लोग, जिनकी राहें एक मोड़ पर आकर टकराती हैं। लेकिन क्या हर टकराहट मिलन में बदलती है? या फिर कुछ कहानियाँ अधूरी रहकर ही अमर हो जाती हैं?
दिल्ली के एक नामी यूनिवर्सिटी में नया सेमेस्टर शुरू हुआ था। कैंपस की रौनक, भीड़, चाय की टपरी और नोट्स के बहाने बनती दोस्तियाँ सबकुछ हमेशा की तरह था। लेकिन इस बार कुछ अलग था। आरव, लखनऊ से आया एक शांत, संवेदनशील और किताबों में डूबा रहने वाला लड़का, जिसका ध्यान केवल पढ़ाई और भविष्य पर था। काव्या, भोपाल से आई एक चुलबुली, बेबाक और खुलकर जीने वाली लड़की, जिसके लिए हर दिन एक नई कहानी थी।
उनकी पहली मुलाक़ात लाइब्रेरी में हुई एक किताब को लेकर। दोनों ने एक ही किताब एक साथ उठाई... और पहली बार एक-दूसरे की आंखों में झांका। "मुझे लगता है ये किताब मुझे ज़्यादा ज़रूरत है," आरव ने शांत स्वर में कहा। और मुझे लगता है, इसकी ज़रूरत हमें दोनों को है... एक साथ," काव्या ने मुस्कुरा कर जवाब दिया। यहीं से शुरुआत हुई प्यार की अनोखी दुनिया की। कॉलेज की क्लासेस, कैफे के कोने, रेन वॉक, और छत पर देर रात की बातचीत ने उनके बीच एक अनकहा रिश्ता बना दिया। आरव काव्या की मासूमियत में खोने लगा और काव्या आरव की गहराई में। पर ज़िंदगी कभी आसान नहीं होती...
एक दिन आरव को पता चला कि उसे फॉरेन स्कॉलरशिप मिल गई है अमेरिका जाने का ऑफर। काव्या खुश थी, लेकिन आंखों में अनकहा दर्द भी। "तुम जाओ आरव... अपनी उड़ान भरो। मैं तुम्हारे सपनों की राह में नहीं आना चाहती।""लेकिन तुम...?"
"मैं रह जाऊंगी... तुम्हारी यादों में।" आरव के पास दो रास्ते थे अपना सपना या अपना प्यार। काव्या ने मुस्कुराकर आरव को विदा किया था, लेकिन उस मुस्कान के पीछे एक तूफ़ान था, जो उसे अंदर से तोड़ रहा था। एयरपोर्ट पर खामोश विदाई हुई थी।
"कभी लौटो तो ज़रूर मिलना,"काव्या ने कहा था जैसे कोई अलविदा के बाद भी उम्मीद छोड़ने को तैयार न हो।
आरव ने बस इतना कहा ,"अगर तुम वहीं रहो जहां आज हो, तो मैं ज़रूर लौटूंगा..."और वो चला गया...
तीन साल बीत गए... आरव न्यूयॉर्क में था डिग्री पूरी कर चुका था, अच्छी नौकरी थी, पर दिल के किसी कोने में हर सुबह कोई कमी थी। हर शाम जब सूरज ढलता, तो उसकी आंखों में काव्या का चेहरा उभर आता।
उधर काव्या ने भी खुद को समय के साथ बदल लिया था — अब वह कॉलेज में हिंदी साहित्य पढ़ाती थी। उसकी ज़िंदगी सामान्य थी, लेकिन दिल अब भी किसी अधूरे पत्र की तरह हर रोज़ आरव का नाम ढूंढता था। कभी किसी ने इज़हार नहीं किया था पूरी तरह न काव्या ने रोका, न आरव ने ठहरने की ज़िद की। लेकिन प्यार कहीं नहीं गया था। वो बस समय की तहों में सोया पड़ा था।
एक दिन, विश्वविद्यालय के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में एक जाने-माने लेखक और युवा मोटिवेशनल स्पीकर को बुलाया गया। नाम था डॉ. आरव मेहरा।
जब स्टेज पर उसने बोलना शुरू किया, तो भीड़ में किसी की आंखें नम हो गईं। काव्या वहीं बैठी थी। वही मुस्कान, वही सादगी, और वही आंखें पर अब उनमें एक परिपक्व दर्द था।भाषण खत्म हुआ, तालियों की गूंज के बीच आरव की नजरें एक चेहरें पर थम गईं । काव्या। भीड़ से अलग वो ऐसे दिख रही थी, जैसे समय की रेत में दबा कोई पुराना खज़ाना। आरव नीचे उतरा, चुपचाप उसकी ओर बढ़ा।
"तुम अब भी यहीं हो?"
"तुमने कहा था वहीं रहो जहाँ मैं थी... तो मैं रुक गई..."
"और मैं लौट आया..."आंसू बिना अनुमति आंखों से बह निकले ,अब कोई विदाई नहीं थी, अब कोई उलझन नहीं थी।प्यार लौट आया था... पूरी दुनिया फिर से नई लग रही थी।क्योंकि उन्होंने समय को भी हरा दिया था।
बिछड़ने के बाद काव्या ने अपने भीतर के खालीपन को भरने के लिए कलम से दोस्ती कर ली थी। वो रोज़ अपनी डायरी में आरव के लिए कुछ न कुछ लिखती कभी एक कविता, कभी कोई अधूरी बात, कभी कोई यादगार पल। उसके कमरे की अलमारी में दर्जनों डायरियां जमा हो चुकी थीं, हर पन्ने में आरव की मौजूदगी थी। वो मानती थी कि अगर प्यार सच में था, तो शब्द उसे ज़िंदा रखेंगे।
उधर आरव भी न्यूयॉर्क की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में खुद को संभालने के लिए रातों को अपने लैपटॉप के सामने बैठ जाया करता। काम के बीच, अकेलेपन में, हर चाय की चुस्की में काव्या का नाम उसकी उंगलियों से टकराता। कभी उसने “काव्या नाम की लड़की” शीर्षक से ब्लॉग लिखा, तो कभी रात को अकेले बैठकर हाथ से डायरी में उन पलों को दर्ज करता, जो वह उसके साथ जी नहीं सका।
वक़्त बीतता गया। काव्या ने कभी किसी को आरव की जगह नहीं दी, न आरव ने कभी किसी में काव्या को ढूंढा। दोनों ने दूर रहकर भी अपने प्यार को सहेजा, जैसे कोई मंदिर में दीया जलाकर रखता है बुझने न देने के लिए।
जब तीन साल बाद उनका मिलन हुआ, तो सिर्फ आंखें नहीं नम थीं, बल्कि वक्त भी जैसे थम गया था। एकांत में बैठे दोनों ने एक-दूसरे से ज्यादा, अपने शब्दों से बात की। काव्या ने अपनी डायरियां सामने रख दीं “ये वो सब है, जो मैं तुमसे कह न सकी।” आरव ने अपना लैपटॉप खोला स्क्रीन पर हजारों फाइलें थीं, हर फाइल में उसका नाम, उसकी याद, उसकी हँसी, उसका गुस्सा... सबकुछ।
कुछ देर दोनों खामोश रहे, फिर मुस्कुराए। कोई शिकवा नहीं था, कोई सवाल नहीं था। सिर्फ दो इंसान थे जिन्होंने वक्त को प्रेम से जीता था। किताबों की तरह, पन्ने पलटे गए, पुराने पल फिर से जिए गए। हर शब्द में सैकड़ों भाव थे, और हर भावना में वो अधूरी मुलाकातें।
उनकी कहानी अब एक बार फिर शुरू हुई लेकिन इस बार अधूरी नहीं। क्योंकि अब उनके पास सिर्फ एक-दूसरे का साथ नहीं, बल्कि एक-दूसरे की यादों की पूरी दुनिया थी संजोई हुई, सहेजी हुई, और सबसे बढ़कर... सच्ची।