विनोद कुमार झा
कहते हैं प्यार अंधा होता है, और कभी-कभी इतना अंधा होता है कि वह सामान्य से हटकर ही राहें अख्तियार कर लेता है। ऐसी ही एक अनोखी प्रेम कहानी राजधानी दिल्ली के एक शांत मोहल्ले में देखने को मिल रही है, जिसने न सिर्फ स्थानीय लोगों को हैरत में डाला है, बल्कि यह साबित भी किया है कि प्यार किसी भी बंधन को नहीं मानता।
यह कहानी है 28 वर्षीय अंकित और 25 वर्षीय मीरा की। पहली नज़र में सब कुछ सामान्य लगता है, लेकिन उनकी प्रेम कहानी में एक ऐसा मोड़ है, जो इसे दूसरों से अलग बनाता है। आरव एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं, जो दिनभर कोड लिखने में व्यस्त रहते हैं, जबकि मीरा एक स्वतंत्र लेखिका हैं, जिनकी दुनिया शब्दों के इर्द-गिर्द घूमती है। दोनों की मुलाकात एक साहित्यिक मेले में हुई थी, जहां शब्दों के प्रति उनके साझा प्रेम ने उन्हें करीब ला दिया।
लेकिन 'अठखेलियां' शब्द यहां इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि अंकित को ऊंचाइयों से बेहद डर लगता है (एक्रोफोबिया), और मीरा को बंद जगहों से घुटन होती है (क्लॉस्ट्रोफोबिया)। अब आप सोचेंगे, इसमें अजीब क्या है? अजीब यह है कि अंकित, मीरा के फ्लैट की तीसरी मंजिल पर रहते हैं और मीरा, अंकित के फ्लैट के बेसमेंट में रहती हैं।
जी हां, आपने सही पढ़ा। अंकित को छत पर जाने के लिए लिफ्ट या सीढ़ियों का इस्तेमाल करने में डर लगता है, इसलिए वे मीरा के फ्लैट से नीचे नहीं आते। वहीं, मीरा को बंद बेसमेंट में घुटन महसूस होती है, इसलिए वह अंकित के पास ऊपर नहीं जा पातीं। उनकी मुलाकातें बालकनी से होती हैं, जहां अंकित ऊपर से मीरा की बालकनी में चाय और नाश्ता नीचे रस्सी से लटकाकर भेजते हैं, और मीरा अपनी लिखी कहानियों को ऊपर फेंककर उन्हें सुनाती हैं।
उनके दोस्त और पड़ोसी पहले तो इस व्यवस्था पर हंसे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने इस अनूठे प्यार को स्वीकार कर लिया। "शुरुआत में यह अजीब था," उनकी एक पड़ोसी, श्रीमती शर्मा बताती हैं, "लेकिन अब यह देखना सुखद लगता है कि कैसे वे अपनी सीमाओं के बावजूद एक-दूसरे के करीब रहते हैं।"
अंकित हंसते हुए कहते हैं, "हमें ज़्यादा भागदौड़ करनी नहीं पड़ती, और हमारे रिश्ते में हमेशा एक 'ऊंचाई' और 'गहराई' बनी रहती है।" मीरा मुस्कुराते हुए जोड़ती हैं, "हमारा प्यार किसी भी दीवार को तोड़ सकता है, भले ही वह छत या ज़मीन के बीच की दूरी ही क्यों न हो।"
प्यार जब पहली बार दिल में दस्तक देता है, तो सब कुछ एक नई रोशनी में नहाया हुआ लगता है। यह कहानी है दो ऐसे दिलों की, जो अनजाने में एक-दूसरे की धड़कनों में बसते चले गए, जिनकी मुलाकातें सिर्फ संयोग नहीं, बल्कि किस्मत की चाल थी। यह कहानी है काव्या और अंकित की प्यार की मासूम अठखेलियों की।
काव्या एक शांत और अंतर्मुखी लड़की थी। उसकी दुनिया उसकी किताबें, कविताएं और अपनी प्यारी सी गुलाबी डायरी में बंद भावनाएं थीं। हर शाम वह अपनी बालकनी में बैठकर अपने ख्वाबों का राजकुमार सोचते हुए, अपने दिल की बातें लिखती रहती।
उधर अंकित, कॉलेज का एक गंभीर लेकिन रचनात्मक लड़का, जिसकी उंगलियाँ लैपटॉप कीबोर्ड पर कविता बुनने में माहिर थीं। वह अपने दिल की बात कभी कविता में, तो कभी कहानियों में उड़ेल देता। दुनिया उसे शांत और व्यस्त मानती, लेकिन उसकी फाइलों में एक दुनिया बसती थी इसी दुनिया में धीरे-धीरे एक चेहरा उभरने लगा था: काव्या का।
क्लास में एक ग्रुप प्रोजेक्ट के दौरान काव्या और अंकित की टीम बनी। काव्या किताबों में डूबी रहने वाली लड़की थी और आरब स्क्रीन में खोया रहने वाला लड़का। पहली बार जब दोनों एक साथ बैठे, तो चुप्पी ने सबसे पहले संवाद किया।
अंकित ने देखा, काव्या की डायरी में वही पंक्तियाँ थीं जो उसने एक दिन पहले ही ऑनलाइन पोस्ट की थीं। वह चौंका क्या यह इत्तेफाक था या... कुछ और?
काव्या ने उसकी आँखों में झाँककर कहा,"आप भी वही लिखते हैं, जो मैं महसूस करती हूँ?"अब हर दिन की शुरुआत एक नई कविता से होती। काव्या अपनी डायरी में और अंकित अपनी स्क्रीन पर, लेकिन दोनों की भावनाएं एक-दूसरे के लिए ही लिखी जा रही थीं। वे बिना कहे, एक-दूसरे के मन के भाव पढ़ने लगे थे।
अंकित अक्सर अपने लैपटॉप की फाइल “Kavya_Thoughts” में उसकी डायरी से मेल खाती कविताएं सहेजता। उधर काव्या की डायरी में “Ankit_Musings” नाम का एक खंड खुल गया था। ये प्यार नहीं था ये प्यार की अठखेलियां थीं जो बिन बोले मुस्कुराती थीं।
कॉलेज का आखिरी वर्ष चल रहा था। दोनों जानते थे कि अगर अब भी कुछ ना कहा गया, तो यह सारा भावनाओं का संसार अधूरा रह जाएगा।
अंकित ने एक दिन अपनी कविता प्रिंट कर काव्या की डायरी में चुपचाप रख दी। उसमें लिखा था: "तुम्हारी डायरी से निकली हर बात, मेरे दिल की कविता बन जाती है। कभी कहो, क्या हम दोनों की यह लकीर, एक नाम की तक़दीर बन सकती है?"
काव्या मुस्कराई और पहली बार उसकी डायरी की आखिरी पंक्ति में लिखा गया:"हाँ..."वक़्त गुज़रता गया, और अब वो दोनों मिलकर एक किताब लिखते हैं "प्यार की अठखेलियां", जिसमें हर अध्याय उनके अपने पलों से भरा है। कभी हँसी, कभी तकरार, कभी खामोशी, तो कभी गहरे संवाद उन्होंने जाना कि प्यार कोई भारी शब्द नहीं, बल्कि छोटी-छोटी अठखेलियों का नाम है। कहानी खत्म नहीं होती, वह तो हर रोज़ एक नए पन्ने पर लिखी जाती है कभी डायरी में, कभी लैपटॉप पर, और अब एक-दूसरे की ज़िंदगी में।
क्योंकि प्यार जब खेलता है, तो वो केवल दिल नहीं छूता, वो आत्मा में उतर जाता है बस यूँ ही, कुछ अठखेलियों के साथ।
कहानियाँ वहीं खत्म नहीं होतीं जहाँ "हाँ" कहा जाता है। असली कहानी तो तब शुरू होती है, जब दो दिल एक हो जाते हैं और ज़िंदगी की धड़कनों के साथ चलने लगते हैं। प्यार की शुरुआत भले ही कविताओं और इशारों से हुई हो, लेकिन अब सामने थे असल ज़िंदगी के छोटे-छोटे सवाल करियर, दूरी, परिवार और कभी-कभी... ख़ामोशी। यह भाग उसी यात्रा का अगला मोड़ है जब खामोशी ने अपने अर्थ खुद ढूँढे और प्यार ने फिर से अपने आपको साबित किया।
कॉलेज खत्म होते ही दोनों को अलग-अलग शहरों में नौकरी मिली। काव्या को मुंबई में एक प्रकाशन में एडिटर की पोस्ट मिली और अंकित को दिल्ली में एक कंटेंट हेड की भूमिका। पहले-पहले सब ठीक था कॉल्स, वीडियो चैट्स, एक साथ वर्चुअल कविताएं, हर शुक्रवार एक नया पत्र मेल के ज़रिए।लेकिन समय के साथ चीजें बदलने लगीं।
अंकित अब मीटिंग्स और डेडलाइनों में घिर गया था, जबकि काव्या लेखकों की दुनिया में गुम होती चली जा रही थी। कभी जो बातें घंटों चलती थीं, अब "बात में बात" बन चुकी थीं। दोनों को अहसास था, कुछ खामोशियाँ पनप रही थीं अनकही, अनजानी, लेकिन बोझिल। एक रविवार, अंकित ने अपने इनबॉक्स में देखा काव्या का मेल नहीं आया था। उसने फोन किया, लेकिन कोई जवाब नहीं। दिन बीता, हफ्ता भी, और उनकी बातचीत कुछ औपचारिक सी बन गई।
एक रात, अंकित ने फिर से अपनी फाइल "Kavya_Thoughts" खोली। उसने आखिरी लाइन लिखी थी:"जब शब्द थम जाएं, क्या प्रेम भी रुक जाता है?"
वहीं काव्या अपनी डायरी के कोरे पन्नों पर लिख रही थी: "क्या दूरियाँ ही वो इम्तिहान होती हैं, जो सच्चे प्यार को परिभाषित करती हैं?"
एक दिन, काव्या को अंकित का एक पार्सल मिला। उसमें एक किताब थी कोई नाम नहीं, कोई प्रकाशक नहीं सिर्फ एक पंक्ति:"जहाँ तुम्हारी चुप्पी खत्म हो, वहीं से मेरी बात शुरू होती है।" किताब के अंदर थी वह सारी कविताएँ, जो उन्होंने अलग रहते हुए लिखी थीं उनके अकेलेपन, उलझनों और उम्मीदों की। काव्या की आँखें भर आईं।
उसी शाम काव्या ने एक मेल लिखा:"चलो फिर से बात करना शुरू करते हैं जैसे दो लेखक मिलकर फिर से एक किताब का दूसरा ड्राफ्ट लिखना चाहते हैं।"
अब दोनों ने अपने व्यस्त जीवन में समय चुराना सीख लिया था। वे साथ नहीं थे, लेकिन अब उनकी बातचीत में उद्देश्य था, समझदारी थी। कभी दोनों किसी नई कविता पर चर्चा करते, कभी भावनाओं के बारे में खुलकर बोलते।
अंकित ने दिल्ली से एक प्रकाशन शुरू किया और पहला प्रोजेक्ट था “काव्या की कविताएं”। काव्या ने मुंबई में एक साहित्यिक कॉन्फ्रेंस में अंकित को आमंत्रित किया, जहां मंच पर दोनों साथ दिखे जैसे शब्द और अर्थ एक साथ आ गए हों।
एक शाम, दिल्ली की बारिश में, अंकित और काव्या इंडिया गेट के पास टहल रहे थे। अंकित ने जेब से एक छोटी सी डायरी निकाली वही काव्या की गुलाबी डायरी की कॉपी और कहा,"अब इस डायरी में सिर्फ कविताएं नहीं, हमारी जिंदगी भी लिखी जाएगी। क्या तुम इसके हर पन्ने पर अपना नाम लिखोगी?"
काव्या मुस्कराई, और धीरे से बोली,"हाँ, इस बार हमेशा के लिए।"
प्यार जब रिश्ता बन जाता है, तब उसका रंग और भी गहरा होता है। अब वो केवल भावनाओं का आदान-प्रदान नहीं रह जाता वह साझेदारी बन जाता है, संघर्षों में साथ खड़े रहने का वादा, छोटी-छोटी बातों में बड़ी खुशियाँ ढूँढने की कोशिश।
काव्या और अंकित अब सिर्फ प्रेमी नहीं, एक-दूसरे के जीवनसाथी बन चुके हैं। लेकिन असली परीक्षा अब शुरू होती है जब कविता की पंक्तियाँ घर के बजट से टकराती हैं, और जब रोमांस को जिम्मेदारियों की चादर में भी जिंदा रखना होता है। शादी एक सादगीभरे समारोह में हुई। काव्या गुलाबी लहंगे में बिल्कुल वैसी ही लग रही थी, जैसी अंकित ने अपनी कविताओं में रची थी।
अंकित की आँखों में वो भरोसा था, जो वर्षों के इंतजार और समझ से पैदा होता है। नई सुबह अब एक किराए के छोटे से अपार्टमेंट में शुरू हुई। दीवारों पर अभी पेंट की महक थी और खिड़कियों से सपनों की रौशनी आती थी। किचन में आधे बर्तन थे, और अलमारी में अभी भी किताबें ज़्यादा थीं कपड़ों से।
काव्या हँसते हुए बोली , "इस घर में सबसे पहले कविता रखने की जगह तय करो, बाकी सब तो जैसे-तैसे हो जाएगा।"
और अंकित ने कहा, "तुम जहां बैठ जाओ, वही कविता की सबसे सुंदर जगह होगी।"
अब हर सुबह साथ चाय पीने से शुरू होती। अखबार के साथ बहस, तो चाय के साथ मुस्कान मिलती।
काव्या कभी सब्ज़ी काटते-काटते कविता बना देती, तो अंकित रसोई में बेलन पकड़कर उसे पढ़ने लगता। रातें अक्सर टेरेस पर बिताई जातीं पुराने दिनों की डायरी और लैपटॉप लेकर।
कभी काव्या कहती ,"ये जो चुप्पियाँ अब आती हैं, वो पहले जैसी डरावनी नहीं लगतीं।"
अंकित मुस्कुराकर जवाब देता ,"क्योंकि अब ये दो लोगों की खामोशियाँ नहीं, एक ही रिश्ते की गहराई है।"
हर रिश्ता फूलों की सेज नहीं होता। कभी कपड़े सुखाने को लेकर बहस होती, तो कभी बिजली के बिल पर। काव्या को लगता कि अंकित ज़रूरत से ज़्यादा चुप रहने लगा है, और अंकित सोचता कि काव्या हर बात में भावनाएं क्यों खोजती है।एक शाम बहस इतनी बढ़ी कि आरब चुपचाप बाहर निकल गया। कुछ घंटों बाद, दरवाज़े के नीचे से एक चिट्ठी अंदर सरकाई गई, उसमें सिर्फ एक पंक्ति लिखी थी,"अगर हम बहस भी करते हैं, तो इसका मतलब है कि हम अभी भी साथ जी रहे हैं और वो सबसे बड़ी कविता है।"काव्या की आँखों में आंसू थे, लेकिन होंठों पर मुस्कान।
इसके बाद काव्या और अंकित ने मिलकर एक ऑनलाइन पोएट्री प्लेटफॉर्म शुरू किया “अठखेलियां”। यहाँ वे सिर्फ अपनी नहीं, हर उस दिल की बातें छापते, जो खुद को शब्दों में ढालना चाहता था। धीरे-धीरे उनकी जिंदगी भी बेहतर होती गई आर्थिक रूप से, मानसिक रूप से, और सबसे बढ़कर, भावनात्मक रूप से।
एक दिन मंच पर एक श्रोता ने सवाल किया, “प्यार में सबसे मुश्किल क्या होता है?”
अंकित ने जवाब दिया ,“प्यार को आदत ना बनने देना रोज़ उसे नए सिरे से जीना।”
अब उनका रिश्ता एक किताब की तरह है कुछ पन्ने मुड़े हुए, कुछ पर कॉफी के दाग, कुछ पर आँसुओं की नमी, और हर पन्ने पर सच्चाई। वे अब भी कविताएं लिखते हैं लेकिन अब उनके शब्दों में “मैं” नहीं, “हम” होता है।
रात को सोते समय काव्या कहती है , "सोचो, हमारी बेटी भी एक दिन डायरी में लिखेगी 'मम्मी-पापा की कहानी सबसे प्यारी है।'"
अंकित हँसते हुए कहता ,"और मैं उसके पहले कविता पर साइन करूँगा क्योंकि वो भी ‘प्यार की अठखेलियां’ का हिस्सा होगी।
जब जीवन में एक नया किरदार जुड़ता है एक मासूम चेहरा, दो छोटी आंखें और कोमल हथेलियों वाला नन्हा सा चमत्कार तो पुराने रिश्तों को भी एक नई गहराई मिल जाती है।
काव्या और आरब की ज़िंदगी में अब वो पन्ना खुलने वाला था, जिसमें कविता नहीं, लोरी लिखी जाती है। जहां शब्दों से ज़्यादा स्पर्श, और भावनाओं से ज़्यादा नज़रें काम करती हैं।
यह भाग है उस मोड़ का जब प्यार सिर्फ दो लोगों की अठखेलियां नहीं रहता, बल्कि एक नई कोंपल के साथ पूरे जीवन की कहानी बन जाता है।
सर्दियों की एक सुबह थी। खिड़की से सूरज की पहली किरण भीतर झांक रही थी, और काव्या की गोद में एक नन्हीं जान मुस्कुरा रही थी अव्यक्त।
उसका नाम अंकित ने रखा ,"अव्यक्त", क्योंकि उसने अब तक शब्दों में अपना भाव नहीं रखा था, लेकिन उसकी उपस्थिति ही सबसे सुंदर कविता थी। अव्यक्त के साथ ज़िंदगी बदल गई। अब टेरेस की जगह झूला था, लैपटॉप की जगह रबर के खिलौने, और डायरी के पन्नों पर अब नन्हे हाथों के निशान थे। काव्या अब दिनभर अव्यक्त की देखभाल में लगी रहती, और अंकित रातों को काम खत्म कर उसे सुलाने की कोशिश करता। कभी लोरी बन जाती कविता, तो कभी झुनझुना बजता एक नए गीत की तरह।
एक रात, जब अव्यक्त बार-बार रो रही थी, काव्या थक चुकी थी। आरब ने गोद में लेकर एक कविता पढ़ी:
"तू जब सोए, मैं अपने ख्वाबों को रोक लूं,
तेरे छोटे से आंसू में खुद को भिगो लूं।
पिता बनना सिर्फ जिम्मेदारी नहीं,
तेरे हर मुस्कान में खुद को जीना है मुझे।"
अव्यक्त बड़ी हुई। उसकी आँखों में सवाल थे , “मम्मी, आप और पापा हर बात कविता में क्यों कहते हैं?”
काव्या मुस्कराकर कहती , “क्योंकि हमारी जिंदगी की भाषा ही कविता है बेटा।”
“और मेरी?”
अंकित झुककर कहता ,“तेरी भाषा… वो अब हम तुमसे सीख रहे हैं।”अब घर की दीवारों पर अव्यक्त की बनाई तितलियाँ थीं, लेकिन उन पर पापा की लिखी पंक्तियाँ।"जब बच्चा मुस्कराता है, तो घर बोलता है।"
अव्यक्त ने किशोरावस्था में अपनी पहली डायरी बनाई। उसके पहले पन्ने पर लिखा था: "मम्मी की स्याही, पापा का अर्थ और मैं... बस दोनों का मिलन।"
वो अब मंच पर कविता पाठ करती, और एक दिन उसने एक कविता सुनाई जिसमें लिखा था: "प्यार क्या है?
वो जो मम्मी की रसोई से आता है। पापा की कॉफी में घुल जाता है और मेरे स्कूल बैग में नोट बनकर चुपचाप बैठ जाता है।"सारा हॉल तालियों से गूंज उठा।
अंकित और काव्या एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कुराए , अब अठखेलियां तीसरी पीढ़ी तक पहुँच चुकी थीं।
अब वर्षों बाद, अंकित की दाढ़ी में सफेदी है और काव्या चश्मा पहनने लगी है। लेकिन जब दोनों अपनी पोती को गोद में लेते हैं, तो फिर से वही मुस्कराहट लौट आती है।
कभी पोती पूछती ,“नाना, आप नानी से कब प्यार करने लगे थे?”
अंकित हँसकर कहता ,“जब वो बिना बोले मेरी बात समझ गई थी।”
नानी जोड़ती ,“और जब वो मुझे चुप रहकर भी सबसे प्यारी बात कह देता था।”
वक़्त बीतता है, चेहरे बदलते हैं, लेकिन भावनाएं वही रहती हैं।
काव्या और अंकित की प्रेम कहानी अब बस यादों की धरोहर नहीं, बल्कि अव्यक्त के भीतर बहती हुई संवेदना बन चुकी है।
जहाँ पहले डायरी के पन्ने लिखे जाते थे, अब वे एक विरासत के रूप में अगली पीढ़ी को सौंपे जा रहे हैं।
इस भाग में, कहानी अव्यक्त की प्रेम यात्रा की ओर बढ़ती है जहां वह अपने माता-पिता से मिली ‘कविता’ को ज़िंदगी में उतारने की कोशिश करता है। जहाँ नए ज़माने की हकीकत है, लेकिन दिल अब भी कविता से भरा हुआ है।
अव्यक्त अब एक युवा लेखक बन चुका था तकनीक से जुड़ा, मगर जड़ों से अछूता। कॉलेज में उसकी मुलाकात हुई अन्विता से एक स्वतंत्र विचारों वाली लड़की, जो शब्दों से नहीं, आँखों से बात करना पसंद करती थी। अव्यक्त उसे देखकर चौंकता, वो पहली लड़की थी जिसे कविता पसंद नहीं थी।
उसने कहा: "मैं भावना से डरती नहीं, पर शब्दों की सजावट में सच्चाई छिप जाती है।"अव्यक्त को पहली बार लगा कविता को भी सादगी की ज़रूरत होती ।
अन्विता और अव्यक्त की बातचीत कब दोस्ती में बदली, और कब वो दोस्ती दिल तक पहुंची यह कोई नहीं जान पाया।
लेकिन जब अव्यक्त ने पहली बार अन्विता को एक छोटी सी कविता दी, तो वह मुस्कराकर बोली:" अगर मैं जवाब ना दूँ तो बुरा तो नहीं मानोगे?"
अव्यक्त ने कहा ,"प्यार जवाब नहीं चाहता... समझ चाहता है।"
कुछ महीनों तक दोनों साथ रहे , कॉफी, बहस, किताबें, चुप्पियाँ सब कुछ था। लेकिन अन्विता का मन आज़ाद था।
वो बंधनों से डरती थी। और अव्यक्त... रिश्तों में स्थायित्व चाहता था।
एक शाम, अव्यक्त ने अपनी माँ काव्या से पूछा: "क्या हर प्यार हमेशा साथ रहना चाहता है, या कुछ प्यार सिर्फ सिखाने के लिए आता है?"
काव्या ने अपनी डायरी उसे थमाई , "हर पन्ना हमेशा किसी अंत के लिए नहीं होता... कुछ पन्ने बीच में भी छूट जाते हैं, लेकिन वो अधूरी कहानी भी पूरी बनती है, अगर तुम उसे अपनाओ।"
उस रात अव्यक्त ने पहली बार अन्विता को नहीं लिखा।
उसने खुद को लिखा "शायद तू मेरी कविता नहीं, लेकिन तूने मेरी कलम थामी। इतना ही काफी है।"
कुछ वर्षों बाद, अव्यक्त की किताब “शब्दों से आगे” प्रकाशित हुई।
उसकी प्रस्तावना में लिखा था:"ये किताब उन सबके लिए है जो बोल नहीं सके, लेकिन उनके मौन ने मुझे सबसे ज्यादा कुछ सिखाया। और अन्विता, तूने सिखाया कि प्यार कविता से बड़ा होता है।" वहीं, दूर किसी शहर में, अन्विता ने उस किताब को पढ़ते-पढ़ते पन्ना मोड़ दिया -और पहली बार, उसने एक चिट्ठी लिखी: "मुझे तुम्हारी कविताएं अब भी नहीं आतीं, लेकिन तुम्हारे बिना खामोशी भी अधूरी लगती है। क्या अब भी तुम्हारी कलम में मेरे लिए कोई जगह है?"
काव्या और अंकित अब वृद्धावस्था में हैं लेकिन उनकी आँखों में चमक है। जब उन्होंने अव्यक्त और अन्विता को साथ आते देखा, तो आरब ने चुपचाप एक डायरी दी वही गुलाबी कवर वाली, जो कभी काव्या की थी।
अव्यक्त ने कहा: "अब इस पर नाम किसका लिखूं?"
काव्या ने मुस्कराकर कहा: "इस बार लिखो — 'अव्यक्त और अन्विता' क्योंकि विरासत वही पूरी होती है, जब अगली पीढ़ी अपने शब्द खुद चुनती है।"
उनकी कहानी न केवल एक प्रेरणा है, बल्कि यह भी याद दिलाती है कि प्यार के लिए कोई नियम या सीमाएं नहीं होतीं। यह बस अपने रास्ते खोज लेता है, भले ही वह रास्ता कितना भी ऊबड़-खाबड़ या अनोखा क्यों न हो। दिल्ली की यह अनोखी प्रेम कहानी वाकई 'प्यार की अठखेलियां' का एक बेहतरीन उदाहरण है।