नसीहत के बदलते स्वरूप

 विनोद कुमार झा

हर युग में बुज़ुर्गों की नसीहतें जीवन का पथप्रदर्शक रही हैं। कभी दादी-नानी की कहानियों में छुपी सीख, तो कभी गुरुओं की वाणी में बसी नसीहतें, हमारे व्यक्तित्व को गढ़ती थीं। परंतु आज के समय में जब संवाद वॉट्सऐप फॉरवर्ड , रील्स और मीम्स में सिमट गया है, तब नसीहत का स्वरूप भी बदल गया है  उसकी भाषा, माध्यम और ग्रहणशीलता सभी में परिवर्तन आ चुका है।

पहले “बेटा, जीवन में कभी किसी का दिल मत दुखाना।”

“समय बड़ा बलवान होता है, बुरा वक्त भी टल जाएगा।”

“जो बोलो सोचकर बोलो, शब्द लौटकर नहीं आते।”

इन वाक्यों में शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसने अपने जीवन में ऐसे वाक्य किसी बुज़ुर्ग, माता-पिता, गुरु या अनुभवशील मित्र से न सुने हों। ये वाक्य मात्र शब्द नहीं थे, ये जीवन की भट्टी में तपकर निकली लौ थी  जो हमें किसी अनदेखे तूफान से पहले सावधान कर जाती थी। नसीहतें अनुभव की धरोहर होती थीं। पीढ़ियाँ उसे आत्मसात करती थीं क्योंकि देने वाला अपना जीवन जीकर ज्ञान देता था। पर अब नसीहत को "ज्ञान झाड़ना" कहा जाने लगा है। जो बातें एक ज़माने में श्रद्धा से सुनी जाती थीं, अब उन्हें जजमेंट या हस्तक्षेप माना जाता है।

आज नसीहतें व्यक्तिगत नहीं, सार्वजनिक हो गई हैं। इंस्टाग्राम पर "लाइफ टिप्स", यूट्यूब पर "मोटिवेशनल स्पीच" और ट्विटर पर "थ्रेड्स" बन चुकी हैं। पहले जो सीख गूढ़ और मौन में दी जाती थी, आज वह तेज़, तड़कती-भड़कती और सार्वजनिक मंच पर शोर करती हुई मिलती है।

नसीहत अब अनुभव नहीं, कंटेंट है। जिसे ज़्यादा व्यूज़ मिलें, वो “सत्य” बन जाता है, भले ही वह गहराई से परखा न गया हो। पहले नसीहत रिश्तों से जुड़ी होती थी  माता-पिता, गुरु, या मित्रों से। आज वो एल्गोरिद्म से आती है जो आपको सुनना अच्छा लगे, वही आपको दिखाया जाता है।

भारतीय समाज में नसीहतें वंश परंपरा की तरह चली हैं  कभी कथा के रूप में, कभी कहावतों में और कभी अनुभव की चुप्पी में। बचपन की नींव पर जो नैतिक मूल्य रखे जाते थे, वे दादी-नानी की कहानियों से आते थे।

 “कछुआ और खरगोश” से धैर्य सीखते थे

 “पंचतंत्र” से बुद्धिमत्ता

 “रामायण” से मर्यादा

“महाभारत” से निर्णय की पेचिदगियाँ

इन कहानियों में प्रत्यक्ष आदेश नहीं होते थे, पर उनका मर्म हमारे व्यक्तित्व में गहराई तक उतरता था। नसीहतें संवाद के रूप में थीं  बिना दबाव के, बिना अधिकार के।

पुराने ज़माने में शिष्य गुरु के पास जाता था ज्ञान पाने, अब हम स्क्रीन पर स्वाइप करते हैं। अब सलाह लेने की जगह "सर्च" करते हैं। पहले नसीहतों के साथ एक संबंध जुड़ा होता था, अब उसमें भावना की जगह जानकारी भर बची है।

नसीहत का स्वरूप बदल गया है, पर उसकी आवश्यकता आज भी उतनी ही है। आज के समय में, जहां मानसिक अस्थिरता, आत्मीय संबंधों की कमी और दिशा की उलझन है, वहीं एक सच्ची, ईमानदार नसीहत अब भी संबल बन सकती है  अगर उसे देने वाला संवेदनशील हो और ग्रहण करने वाला विनम्र।

नसीहत केवल परिवार या गुरु तक सीमित नहीं थी। समाज भी एक गुरु था। गाँव के बुजुर्ग, मंदिर के पुजारी, या चौपाल के ज्ञानी सबके पास कहने को कुछ होता था।

पहले की पीढ़ियाँ दूसरों से संवाद में श्रवणशील थीं। वे आलोचना या सुझाव को अपने आत्म-सुधार का साधन मानती थीं। आज वही सुझाव व्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप समझा जाता है।

परिवारों में नसीहतें अनुशासन से जुड़ी थीं  “सुबह जल्दी उठो”, “भोजन से पहले हाथ धोओ”, “बड़ों का सम्मान करो” ये बातें आज छोटी लगती हैं, लेकिन इन्हीं में जीवन की बुनियादी समझ छुपी होती थी।

आज जब ‘फ्रीडम ऑफ चॉइस’ की दुहाई दी जाती है, तब नसीहतें ‘ओल्ड स्कूल’ मान ली जाती हैं। इंटरनेट, स्मार्टफोन और सोशल मीडिया ने हमारे सोचने, समझने और ग्रहण करने की शैली ही बदल दी है।

अब नसीहतें व्यक्ति से नहीं, एल्गोरिद्म से मिलती हैं। आप गूगल पर टाइप करते हैं ,“How to be confident?”और आपको हजारों यूट्यूब वीडियोज़, इंस्टाग्राम रील्स और ब्लॉगर्स की टिप्स मिलती हैं। इन नसीहतों में सच्चाई है या मार्केटिंग  यह जाँचने की फुर्सत नहीं।

पहले नसीहत गूढ़ होती थी, अब ‘कैची’।

 पहले गुरु “मौन” से सिखाता था, अब ‘माइक’ से।

 पहले सीख ‘अनुभव’ से आती थी, अब ‘एडिटिंग ऐप्स’ से।

आज की पीढ़ी नसीहत से नहीं, अनुभव से सीखने पर जोर देती है। “हमें खुद गिरकर सीखना है” का तर्क नसीहत की उपयोगिता को कम करता जा रहा है।

पहले व्यक्ति अपनी कमियों को स्वीकार करता था। आज आलोचना सहना कठिन हो गया है। किसी से कह दो “तुम्हें थोड़ी विनम्रता सीखनी चाहिए”  तो जवाब मिलेगा “तुम मुझे जज मत करो।” नसीहत को ठुकराने के पीछे अक्सर एक गहरा भ्रम होता है ,“मुझे सब आता है।”यह अहं मनुष्य को सुधार के द्वार से दूर कर देता है।

आज माता-पिता की सलाह भी “पीढ़ी का टकराव” मान ली जाती है।

बेटा कहता है, “आपको क्या पता आजकल की दुनिया कैसी है? ”माता कहती है, “हमने उम्र गुज़ारी है, जीवन के अनुभव बोल रहे हैं।” यह दूरी नसीहत को संवाद से हटा कर संदेह के घेरे में ले जाती है।

आज मोटिवेशनल स्पीकर्स की भीड़ है। वे नसीहत को ‘प्रोडक्ट’ की तरह बेचते हैं।

Wake up at 5 AM and success is yours!”

“Don’t trust anyone!”

“Quit your job, follow your passion!”

इन स्लोगन्स में सतही आकर्षण है, पर गहराई नहीं। जीवन केवल 3 लाइन की मोटिवेशन नहीं, एक सतत समझदारी की यात्रा है।

सवाल यह है क्या नसीहतें अब अप्रासंगिक हो गई हैं?

बिलकुल नहीं। जरूरत है कि उन्हें दिया और ग्रहण किया जाए समानता, सहानुभूति और संवेदनशीलता के साथ।

 माँ कहती है: “जल्दी सो जाओ।”

 बेटा कहता है: “मैंने ‘सर्केडियन रिदम’ पर रिसर्च किया है।” यहाँ मतभेद नहीं, विचारों का विकास है। नसीहत अब संवाद से आएगी, न कि आदेश से।

आज के दौर में नसीहतें प्रभावी हों, इसके लिए शैली बदलनी होगी: प्रवचन नहीं, उदाहरण दीजिए। उपदेश नहीं, अनुभव साझा कीजिए। सही समय का इंतज़ार कीजिए, जब सामने वाला सुनने को तैयार हो। संबंध के साथ दीजिए, जिससे विश्वास बना रहे।

नसीहतों का स्वरूप भले ही बदल गया हो  उनकी भूमिका अब भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। आज का युवा दिशा चाहता है  लेकिन वो दिशा उसे ज़ोर से नहीं, प्रेम से चाहिए। नसीहत को अब ‘ज्ञानी’ की नहीं, ‘साथी’ की तरह दिया जाए।

यदि हम नसीहत को संवाद, अनुभव और संबंध का हिस्सा बना दें, तो वह फिर से जीवन की पगडंडी पर दीपक की तरह मार्गदर्शन करेगी  भले ही उसका माध्यम सोशल मीडिया हो या किसी चाय की प्याली के साथ बैठा कोई बुज़ुर्ग।

एक प्रश्न जो हर माता-पिता, गुरु, और समाज को स्वयं से पूछना चाहिए:“क्या मैं नसीहत दे रहा हूँ, या केवल अपना डर थोप रहा हूँ?”

और हर युवा को भी यह पूछना चाहिए: “क्या मैं सही सलाह को सिर्फ इसलिए ठुकरा रहा हूँ, क्योंकि वह मेरे भ्रम को तोड़ रही है?”

यदि इन दोनों प्रश्नों के उत्तर ईमानदारी से मिल जाएँ, तो नसीहतें फिर से वह सच्चा दीपक बन जाएँगी  जो खुद जलकर दूसरों को रोशनी देता रहेगा।


Post a Comment

Previous Post Next Post