विनोद कुमार झा
(संस्कृति, योग और अध्यात्म पर एक विमर्श)
मानव जीवन की सार्थकता केवल सांस लेने, भोग करने और मृत्यु की ओर बढ़ने में नहीं है, बल्कि वह है जागरूक जीवन जीना, जिसमें नैतिकता, संयम, और आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त हो। भारतीय दर्शन में पतंजलि योगसूत्र के माध्यम से यह मार्ग अष्टांग योग के रूप में प्रतिपादित किया गया है, जिसकी प्रथम दो सीढ़ियाँ हैं यम और नियम। ये न केवल योगी जीवन की शुरुआत हैं, बल्कि एक सामान्य गृहस्थ के लिए भी जीवन जीने का आंतरिक और बाह्य शुद्धि का सूत्र हैं।
यम और नियम क्या हैं?
योगशास्त्र में ‘यम’ और ‘नियम’ को आत्मसंयम और आत्मविकास की अनिवार्य साधनाएँ माना गया है। यम समाज और संबंधों में संतुलन, नैतिकता और संयम का प्रतिनिधित्व करता है। और नियम व्यक्ति के भीतर की साधना, शुद्धि और आत्मचिंतन का मार्ग है। इनका पालन करना आत्मिक शुद्धता और योग-साधना की सिद्धि के लिए अत्यावश्यक है।
यम – बाह्य आचरण का अनुशासन
1. अहिंसा : अहिंसा का अर्थ केवल शारीरिक हिंसा से बचना नहीं है, बल्कि विचारों, वचनों और कर्मों से किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुँचाना ही इसका पूर्ण स्वरूप है। यह करुणा, प्रेम और सहिष्णुता का मूल है। “अहिंसा परमो धर्म:” धर्मों में सबसे श्रेष्ठ है अहिंसा।
2. सत्य : सत्य केवल झूठ न बोलने का नियम नहीं, बल्कि अपने विचार, वाणी और कर्म में सत्यनिष्ठा बनाए रखना है। सत्य से आत्मा का तेज प्रकट होता है और आत्मबल दृढ़ होता है।
3. अस्तेय : अस्तेय का अर्थ है - किसी की वस्तु, अधिकार, विचार या भावना को बिना अनुमति ग्रहण न करना। इससे व्यक्ति में संतोष और ईमानदारी का विकास होता है, और लोभ समाप्त होता है।
4. ब्रह्मचर्य : ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ कामवासनाओं से संयम है, किंतु इसका गहरा अर्थ है इंद्रियों, मन और वाणी पर नियंत्रण। ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की मानसिक, शारीरिक और आत्मिक ऊर्जा का संरक्षण होता है।
5. अपरिग्रह : यह संग्रह-वृति से विरक्ति है। जो अनावश्यक है, उसका त्याग करना ही अपरिग्रह है। इससे व्यक्ति मानसिक बोझ से मुक्त होता है, जीवन सरल और स्वतंत्र बनता है।
नियम – आंतरिक शुद्धि और आत्मविकास के नियम
1. शौच : शौच का अर्थ केवल बाहरी स्वच्छता नहीं, बल्कि मन, बुद्धि, और हृदय की पवित्रता भी है। शुद्धि से मन निर्मल होता है और आत्मा ईश्वर से जुड़ती है।
2. संतोष : संतोष वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति वर्तमान में संतुलन और आनंद अनुभव करता है। यह लोभ और ईर्ष्या को समाप्त करता है तथा आंतरिक शांति को जन्म देता है।
3. तप : तप का अर्थ है स्वेच्छा से कष्ट सहकर आत्मविकास करना। यह शरीर, मन और वाणी को अनुशासन में लाने का अभ्यास है। तप से व्यक्ति में धैर्य, शक्ति और आत्मनिष्ठा का संचार होता है।
4. स्वाध्याय : स्वाध्याय यानी धार्मिक, दार्शनिक और आत्मसंबंधी ग्रंथों का अध्ययन। इससे व्यक्ति आत्मविमर्श करता है, और आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ता है।
5. ईश्वर-प्रणिधान: इसका अर्थ है अपने कर्मों का फल ईश्वर को समर्पित करना, और अहंकार का त्याग। ईश्वर-प्रणिधान व्यक्ति को विनम्र बनाता है और उसे कर्मफल के बंधन से मुक्त करता है।
यम-नियम का आधुनिक जीवन में महत्व
1. नैतिक मूल्य स्थापन : यम-नियम व्यक्ति के चरित्र को गढ़ते हैं। वह सत्यवादी, अहिंसक, संयमी और परोपकारी बनता है।
2. मानसिक स्वास्थ्य: जहाँ संतोष, अपरिग्रह और स्वाध्याय का अभ्यास हो, वहाँ मानसिक तनाव नहीं टिक सकता। यह आत्मिक बल को दृढ़ करता है।
4 . सामाजिक संतुलन : जब हर व्यक्ति दूसरों के प्रति सत्य, अहिंसा और अस्तेय का पालन करता है, तब समाज में विश्वास, सौहार्द और सह-अस्तित्व की भावना पनपती है।
4. योग-साधना की नींव: यम-नियम के बिना ध्यान, प्राणायाम या समाधि का कोई अर्थ नहीं। ये आत्मा को पहले संस्कारित और शुद्ध करते हैं, ताकि वह ईश्वर से जुड़ने योग्य बन सके।
यम और नियम, भारतीय संस्कृति के नैतिक-आध्यात्मिक स्तंभ हैं। ये न केवल योगी जीवन की प्रारंभिक शर्तें हैं, बल्कि हर जागरूक और विवेकशील व्यक्ति के जीवन मूल्यमानक हैं।
इनका पालन न केवल एक आध्यात्मिक क्रिया है, बल्कि एक उच्च मानवीय जीवन की कुंजी है। आज जब मानवता बाहरी सुखों के पीछे दौड़कर भीतर से खोखली हो रही है, तब यम-नियम फिर से हमें आंतरिक संतुलन, संयम और शांति का मार्ग दिखाते हैं। "यम-नियम का पालन केवल साधना नहीं, आत्मा की स्वच्छता है जो अंततः उसे परमात्मा से जोड़ देती है।"
Gooy
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