त्योहार के बदलते स्वरूप

विनोद कुमार झा

भारत विविधताओं का देश है जहाँ हर धर्म, जाति, और समुदाय के लोग अपने-अपने रीति-रिवाजों और परंपराओं के अनुसार त्योहार मनाते हैं। ये त्योहार केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं होते, बल्कि वे सामाजिक समरसता, आपसी मेल-जोल और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का भी एक प्रमुख माध्यम होते हैं। समय के साथ, जैसे-जैसे समाज में तकनीकी, सामाजिक और आर्थिक बदलाव आए हैं, त्योहारों के मनाने के ढंग और उनके स्वरूप में भी उल्लेखनीय परिवर्तन आया है।

प्राचीन और पारंपरिक समय में त्योहारों का स्वरूप बिल्कुल भिन्न था। त्योहारों का अर्थ केवल पूजा-पाठ नहीं था, बल्कि वह एक सामाजिक आयोजन होता था जिसमें पूरा गाँव, मोहल्ला या समाज मिलकर भाग लेता था। घरों की सफाई, रंगोली बनाना, पारंपरिक पकवान बनाना, मेलों में जाना, पारंपरिक खेल, गीत और नृत्य ये सभी त्योहारों का हिस्सा होते थे।

उदाहरण के लिए, होली के समय लोग मिलकर रंग खेलते थे और साथ बैठकर गुझिया, पापड़ी जैसे पारंपरिक व्यंजन खाते थे। दिवाली पर दीपक जलाना, घर सजाना और सामूहिक रूप से लक्ष्मी पूजन करना एक रिवाज था। ईद, बकरीद पर बच्चे, बूढ़े और जवान सभी गले मिलकर इन उत्सवों में हिस्सा लेते थे, जिससे समाज में पारिवारिक और सामुदायिक एकता का वातावरण बनता था।

जैसे-जैसे समय बदला, लोगों की जीवनशैली भी बदल गई। अब त्योहारों का स्वरूप धीरे-धीरे व्यक्तिगत और व्यावसायिक होता जा रहा है। त्योहार अब एक सामाजिक समारोह कम और सोशल मीडिया का इवेंट अधिक बन गए हैं। लोग त्योहारों पर एक-दूसरे से मिलने की बजाय मोबाइल फोन पर मैसेज और स्टेटस डालकर शुभकामनाएं देने लगे हैं।

इसके अलावा, उपभोक्तावादी संस्कृति का भी त्योहारों पर गहरा असर पड़ा है। अब त्योहारों का मतलब नए कपड़े, महंगे उपहार, ऑनलाइन शॉपिंग और बड़ी सेल से जोड़ दिया गया है। विज्ञापन और बाजार ने त्योहारों को एक प्रकार से व्यवसायिक बना दिया है। रेडीमेड मिठाइयों और सजावट की चीज़ों ने घर की बनी चीज़ों और मेहनत की जगह ले ली है।

डिजिटल युग ने त्योहारों के स्वरूप को और अधिक बदल दिया है। अब पूजा-पाठ भी ऑनलाइन हो रही है, वर्चुअल सत्संग, ऑनलाइन आरती और ई-शुभकामनाएँ आम हो गई हैं। बहुत से लोग त्योहारों को केवल एक छुट्टी या सेल का दिन मानकर मनाते हैं। त्योहारों का सामाजिक और आध्यात्मिक पक्ष कहीं पीछे छूटता जा रहा है।

हालांकि यह कहना गलत नहीं होगा कि तकनीक ने कुछ सकारात्मक बदलाव भी किए हैं। जैसे, दूर-दराज रह रहे परिवार के सदस्य वीडियो कॉल के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़ सकते हैं। ऑनलाइन माध्यमों से लोग पुराने दोस्तों, रिश्तेदारों के संपर्क में आ सकते हैं, जो पहले संभव नहीं था।

हाल के वर्षों में एक और सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिला है – लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता। अब लोग पटाखों की जगह दीयों को प्राथमिकता देने लगे हैं। गणेश चतुर्थी पर मिट्टी की मूर्तियों का चलन बढ़ा है। ईको-फ्रेंडली त्योहार का विचार धीरे-धीरे समाज में घर कर रहा है, जो एक स्वागत योग्य परिवर्तन है।

त्योहार केवल रीति-रिवाज नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति की आत्मा हैं। समय के साथ उनका स्वरूप चाहे जितना बदल जाए, उनका मूल उद्देश्य  प्रेम, भाईचारा, एकता और आनंद – हमेशा कायम रहना चाहिए। बदलते समय के साथ चलना आवश्यक है, लेकिन यह भी ज़रूरी है कि हम त्योहारों की मूल भावना को न भूलें। हमें चाहिए कि हम आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन बनाए रखें ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इन त्योहारों की सच्ची भावना को समझें और उसे जी सकें।

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