विनोद कुमार झा
जब हम “प्रकृति” कहते हैं, तो केवल पेड़, पौधे, नदियाँ, पर्वत और पशु-पक्षी ही नहीं, बल्कि एक जीवंत आत्मा की बात करते हैं जो जीवन के हर कोने में सांस लेती है। उसकी हर छटा, हर रंग, हर ध्वनि मानो जीवन को पुकारती है “मैं ही तुम्हारा मूल हूं, मैं ही तुम्हारा अस्तित्व हूं।” आज के इस यांत्रिक जीवन में जब मनुष्य कृत्रिमता के मकड़जाल में उलझ गया है, तब प्रकृति की सच्ची सुंदरता को पहचानना और उससे जुड़ना एक नया जीवन पाने के समान है।
सूर्योदय की स्वर्णिम लाली: हर सुबह का सूरज केवल उजाला नहीं लाता, वह उम्मीदों की नई किरण लेकर आता है। जब आकाश के किनारे हल्की सुनहरी रेखा फूटती है और धीरे-धीरे वह रक्तवर्ण में बदल जाती है, तो लगता है मानो प्रकृति स्वयं एक नवजात की तरह मुस्कुरा रही हो। पक्षियों की चहचहाहट, हवा की हल्की सिहरन और ओस की बूँदें ये सब उस स्वर्णिम छटा के साक्षी होते हैं जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता।
पर्वतों की गंभीरता और नदियों की चंचलता: हिमालय की चोटी से लेकर विंध्याचल की घाटियों तक, पर्वत हमें स्थिरता और धैर्य का संदेश देते हैं। वहीं दूसरी ओर, नदियाँ विशेषकर गंगा, यमुना, गोदावरी जीवन की निरंतरता का प्रतीक हैं। इनका चंचल प्रवाह हमें सिखाता है कि जीवन में बहते रहना ही विकास है, ठहराव नहीं।
वनों की मूक भाषा: घने जंगलों की हरियाली, उसमें छिपे जानवरों की पदचाप, और पेड़ों की धीमी सरसराहट यह सब प्रकृति की ऐसी कविता है जो हर संवेदनशील आत्मा को भीतर से छू जाती है। बनों में एक अलौकिक शांति होती है, जहाँ मनुष्य स्वयं से मिल पाता है।
वर्षा की बूंदें और मिट्टी की सोंधी गंध: जब बादल बरसते हैं और पृथ्वी की गोद में जल समाहित होता है, तब जो सोंधी महक उठती है, वह किसी तीर्थ के गंगाजल से कम नहीं। बारिश की हर बूँद प्रकृति की करुणा है, उसकी ममता है, जो सूखी धरती को नवजीवन देती है।
ऋतुएं जीवन का उत्सव: भारत की छह ऋतुएँ वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर प्रकृति के विविध रूपों का प्रदर्शन हैं। वसंत में जब पलाश और अमलतास खिलते हैं, तो मानो धरती स्वयं श्रृंगार कर रही हो। वर्षा में काले बादलों की गूंजती गर्जना और शिशिर की कोहरे से ढकी सुबहें यह सब हमें समय का आदर करना सिखाते हैं।
प्रकृति और भारतीय संस्कृति: भारतीय ऋषियों ने प्रकृति को देवत्व का रूप माना। वृक्षों को वंदनीय बताया पीपल, वट, तुलसी, बिल्व सभी की पूजा होती है। पर्वों और व्रतों में नदियों का स्नान, सूर्य को अर्घ्य, चंद्र को नमस्कार यह सब उस परंपरा के अंग हैं जो प्रकृति को नमन करना सिखाते हैं।
संकट में है यह छटा: विकास की अंधी दौड़ में हमने जंगल काट दिए, नदियाँ गंदा कर दीं, पर्वतों को तोड़ दिया और वायु को विषैला बना दिया। यह प्रकृति की छटा अब धीरे-धीरे मुरझा रही है। वह चेतावनी दे रही है “मेरे साथ यदि तुम्हारा संबंध टूटा, तो जीवन की डोर भी टूट जाएगी।”
पुनः प्रकृति की गोद में लौटना: हमें फिर से अपने घरों में तुलसी के पौधे लगाने होंगे, अपनी नदियों को पवित्र बनाना होगा, जंगलों को बचाना होगा, और सबसे पहले अपने भीतर एक ‘प्रकृति-प्रेम’ का दीपक जलाना होगा। जब हम प्रकृति को माता की तरह देखेंगे, तभी उसकी अनमोल छटा बनी रह सकेगी।
प्रकृति कोई वस्तु नहीं, वह हमारा जीवन है। उसकी अनमोल छटा न केवल हमारे नेत्रों को, बल्कि आत्मा को भी आलोकित करती है। आइए, हम सब मिलकर इस छटा को बचाने का संकल्प लें, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी यह कह सकें हाँ, हमने प्रकृति को उसकी पूरी सुंदरता में देखा था।”