(एक आत्मसंघर्ष और सामाजिक सच्चाई से भरी कहानी)
लेखक: विनोद कुमार झा
धूल उड़ती है तो आँखें भर जाती हैं… पर क्या सिर्फ आँखें ही? कई बार ज़िंदगी की धूलें भी इंसान के सपनों, रिश्तों और अस्तित्व को ढँक देती हैं। किसी सूने गाँव की टूटी पगडंडियों से लेकर महानगर की तेज़ रफ्तार सड़कों तक… हर जगह कुछ धूल उड़ती है। और यह धूल केवल मिट्टी नहीं होती यह भूली कहानियाँ होती हैं, घिसे हुए नाम होते हैं, और अनकही पीड़ाएँ होती हैं।
यह कहानी भी उसी उड़ती धूल की है… जिसमें एक जीवन छुपा है श्यामू का। एक लड़का जो खेतों में धूल के गुबार के बीच जन्मा, और जिसने उम्मीदों की धूप में उड़ती उस धूल में अपना चेहरा ढँक लिया, ताकि समाज के थपेड़ों से बच सके। आइए जानते हैं विस्तार से:-
श्यामू एक ग्रामीण बालक, जिसके पिता एक समय गाँव के स्कूल मास्टर थे लेकिन अब शराब की लत और कर्ज़ के नीचे दब चुके हैं।
गाँव की उड़ती धूल : उसकी मां के लिए रोज़ की सफ़ाई का बोझ, खेतों के मालिकों के लिए अकड़, और श्यामू के लिए एक सपना इस धूल से निकलकर एक साफ़ हवा में सांस लेने का।
शहर की धूल : श्यामू जब बड़े शहर आता है, तो वहाँ की धूल अलग है वहाँ भावनाएं नहीं उड़तीं, वहाँ उड़ती है पहचान, आत्म-सम्मान और नैतिकता। श्यामू को एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिलती है, लेकिन वहाँ उसका अतीत उसके पिता का नाम, उसके गांव की मिट्टी उसे बार-बार शर्मिंदा करती है। एक दिन वह सड़क किनारे एक मजदूर बच्चे को देखता है जो अपने चेहरे पर उड़ती धूल से बेपरवाह होकर काम में जुटा है तब श्यामू को अपनी पहचान पर गर्व होता है।
श्यामू समझता है उड़ती धूल केवल रुकावट नहीं होती, वह एक स्मृति होती है। वह धूल, जो बचपन में माँ के हाथों से पोंछी जाती थी, वह आज उसकी आत्मा को साफ़ करती है। और अंत में वह लिखता है, मैं उस धूल से भागा था, जो मेरी माँ के आँचल में थी…आज उसी धूल ने मेरी आँखें खोल दीं।
सूरज की पहली किरणों ने जैसे ही धरती को छुआ, खेतों की मेड़ से उठती धूल हवा में बिखर गई। वह धूल सिर्फ ज़मीन की नहीं थी वह भूख की थी, थकान की थी और अनकहे सपनों की थी। श्यामू आठ साल का था जब उसने पहली बार खेत में हल की मूठ पकड़ी थी। उसके पैरों में चप्पल नहीं थी, और आंखों में भविष्य का कोई नक्शा नहीं। माँ खेत के किनारे बैठी पानी के लिए मटकी सँभाल रही थी और पिता दूर किसी पेड़ की छांव में बीड़ी सुलगा रहे थे।
“बाबूजी कहते हैं, पढ़ाई लड़कों के लिए नहीं, बाबुओं के लिए होती है…” श्यामू अक्सर खुद से ही यह बात कहता। गांव का नाम था मटिहानी, बिहार में बसा एक ऐसा गांव, जहां धूल हर साँस का हिस्सा बन चुकी थी। यहाँ की सड़कें नहीं थीं, केवल पगडंडियाँ थीं जो धूल में खो जातीं और जीवन भी उसी में धुंधला हो जाता। श्यामू के पिता पहले एक स्कूल में पढ़ाते थे। गाँव में ‘मास्टरजी’ कहे जाते थे। मगर जब स्कूल की तनख्वाहें कम होने लगीं और शराब का स्वाद जुबान को लग गया, तब “मास्टरजी” से “फालतू आदमी” बनने में वक्त नहीं लगा।
एक दिन पिता ने शराब के नशे में कहा, “बेटा, दुनिया में कुछ नहीं रखा… सब कुछ बेईमानी है। तू भी खेती कर, जैसे मैं करता हूँ।” माँ चुप थी… बस आँखें झुकी हुई थीं। वह जानती थी कि यह ‘खेती’ नहीं, आत्मसमर्पण था।
श्यामू को स्कूल भेजा गया, मगर हर हफ्ते फीस का मुद्दा उठता। कई बार वह क्लास के बाहर बैठता, कई बार मास्टर उसकी हथेली पर मारकर कहता “पढ़ाई करने नहीं, भीख मांगने आया है?”
माँ गीता देवी ही श्यामू की असली गुरु थी। वो पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर भावों की भाषा जानती थी। जब शाम को घर लौटकर श्यामू माँ की गोद में सिर रखता, तो माँ उसके बालों में हाथ फेरती और कहती “हमारे सपनों में भी धूल उड़ती है बेटा, पर आंखों को मसो मत… देखना कभी, इसी धूल से रास्ता निकलेगा।
मटिहानी प्राइमरी स्कूल की हालत किसी पुराने खंडहर जैसी थी। बेंच की लकड़ियाँ जगह-जगह से टूटी हुई थीं। छत से मिट्टी झरती थी और ब्लैकबोर्ड अब सिर्फ एक ‘बोर्ड’ रह गया था, जिस पर कक्षा 4 की किताबें कक्षा 8 तक पढ़ा दी जाती थीं।
श्यामू को सबसे पीछे बिठाया जाता था। उसका गुनाह क्या था? बस इतना कि उसके पिता शराबी हो गए थे और माँ खेतों में मज़दूरी करती थी। जब बाकी बच्चे टिफिन लाते, वह मिट्टी के ढेले तोड़कर हाथ में घुमाता। उसे भूख तो लगती थी, मगर वह भूख से ज़्यादा उस “नज़र” से डरता था जो उसके कपड़ों को तौलती थी, उसके बस्ते की कमी पर हँसती थी।
एक दिन मास्टरजी ने कहा “तू पढ़ने नहीं, खेलने आता है?”
श्यामू ने कहा, “सर… बस्ता घर पर छूट गया।” असल में बस्ता था ही नहीं। माँ ने दो साल पहले एक बस्ता उधार दिलाया था, जो अब फट चुका था। उस दिन वह स्कूल के पीछे खेत में जाकर रोया। मिट्टी के ढेले हवा में उड़ रहे थे, जैसे उसे पुकार रहे हों “चल वापस वहीं, जहाँ धूल तेरी साथी है।”
श्यामू का 14 साल की उम्र में जब गाँव से उम्मीदें टूटने लगीं, तब चाचा का एक फोन आया “भेज दो श्यामू को, मैं पटना में काम दिला दूँगा।” माँ की आँखें भर आईं। “हमरे बिना कैसे रहेगा?” “अब माँ, जिया भी तो नहीं जाता,” उसने कहा।
श्यामू पहली बार ट्रक में बैठकर गाँव की सीमाओं को पार कर रहा था। रास्ते में उसे पहली बार मोबाइल टावर दिखे, पुल देखे, फ्लाईओवर देखे। पटना पहुँचा तो धूल वहाँ भी थी, पर अलग किस्म की वहाँ ये धूल ‘गति’ की थी, ‘बदलाव’ की थी… और ‘अनजानपन’ की थी।
चाचा ने उसे एक जनरल स्टोर में काम दिलाया। सुबह 6 से रात 10 बजे तक झाड़ू, पोछा, स्टॉक चेक, बिल बनाना, सब कुछ सीखना पड़ा। मगर अब वह उस धूल से नहीं डरता था अब उसके अंदर एक नई आग थी।
शाम को वह पास की सरकारी लाइब्रेरी में बैठता। शुरू में वहाँ के गार्ड ने भगाया, लेकिन धीरे-धीरे श्यामू वही किताबें साफ़ करने लगा और पढ़ने भी लगा।
“आईएएस बनूंगा,” उसने मन में ठाना।
पढ़ाई के लिए उसे होस्टल चाहिए था। एक एनजीओ से जुड़कर उसे ‘बालसुधा ट्रस्ट’ का छात्रावास मिला। वहाँ 30 बच्चे रहते थे सभी जैसे उसके जैसे ही थे, टूटी बेंचों से निकले, खेतों की धूल में जन्मे। वो पहली रात होस्टल में नींद नहीं आई। वो छत की ओर देखता रहा वहां अब मिट्टी नहीं थी, मगर आँखों में सपना था।
धीरे-धीरे उसका दिन का रूटीन बन गया , सुबह अखबार बाँटना, दोपहर में कॉलेज, शाम को दुकान, रात को पढ़ाई करना। वह हर धूलभरी चुनौती को अपनी जिद से ढकने लगा।
शहर की गर्मी अपने साथ एक और चीज़ लेकर आई थी प्रतिस्पर्धा। अब श्यामू कॉलेज में था, और वहाँ के लड़के-लड़कियाँ ब्रांडेड कपड़ों, स्मार्टफोनों और अंग्रेजी के उच्चारण से एक-दूसरे पर प्रभाव डालते थे। श्यामू की पुरानी नीली शर्ट अब रोज़ धुल-धुलकर हल्की हो चुकी थी, और उसके पैरों की चप्पलें चुपचाप उसकी गरीबी का सच बयाँ करती थीं।
“तुम कहाँ से हो?” एक लड़की ने पूछा, नाम था प्रिया। श्यामू मुस्कुराया, “बस... नजदीक के गाँव से।”असल में वह ‘मटिहानी’ बोलने से डरता था। गाँव का नाम सुनते ही लोग चुप हो जाते, और चेहरों पर सहानुभूति नहीं दया आ जाती। उसे नौकरी के लिए अंग्रेजी में इंटरव्यू देना था। एक दोस्त ने सलाह दी, “बैकग्राउंड मत बताना, बस खुद को मिडिल क्लास बता देना।” श्यामू को वह झूठ बोलना भारी लगता, पर उसे मालूम था कुछ सफेद झूठ उड़ती धूल को ढँकने के लिए ज़रूरी हैं।
एक दिन कॉलेज में ग्रुप प्रेजेंटेशन हुआ। रजत, रोशनी और श्यामू तीनों एक ही ग्रुप में थे। प्रजेंटेशन में रजत ने कहा, “श्यामू को डाटा और रिसर्च का काम बहुत आता है, ये बड़ा होशियार लड़का है।” शब्द तो तारीफ के थे, पर श्यामू के मन में कुछ और ही खिंच गया होशियार, लेकिन गरीब।
उस रात होस्टल की बालकनी में अकेले बैठा रहा। माँ की याद आई जो खेत में हँसिया चलाते हुए उसे आशीर्वाद देती थी।
उसने सोचा , “क्या मैं वह नहीं हूँ, जिसे मिट्टी की गोद में नींद आती थी? क्या मैं इस उड़ती धूल को अपनी आत्मा से बाहर कर सकता हूँ?”
उसी रात उसने डायरी में लिखा: “जो धूल आंखों में चुभती है, वही अगर मन में समा जाए तो इतिहास बदल सकती है।”
उसी ग्रुप एक लड़का रजत रईस बाप का बेटा, लेकिन दिल से साफ़। उसे श्यामू में हुनर दिखता था, न कि गरीबी। रजत ने कहा “तू मेहनत करता है, मैं तुझे सिर्फ प्लेटफॉर्म दूँगा,” उसने कहा। रजत ने श्यामू को अपने लैपटॉप पर काम करना सिखाया, PPT बनाना सिखाया, इंटरव्यू के लिए टाई बाँधना सिखाया। धीरे-धीरे दोनों अच्छे दोस्त बन गए।
एक दिन रजत ने कहा, “भाई, तू अपने गांव के बारे में लिखना शुरू कर। तेरी बातें असली लगती हैं, किताब जैसी।”
श्यामू हँसा, “गांव की बातें किताबों में कौन पढ़ेगा?”
“पढ़ेंगे… क्योंकि शहर अब भी असलियत ढूँढता है।” श्यामू ने पहली बार कलम से अपने अतीत को गढ़ना शुरू किया। धूल अब उसके अंदर दर्द नहीं, शब्द बनकर बहने लगी थी।
श्यामू के जीवन में आया बदलाव कॉलेज की अंतिम परीक्षा के बाद श्यामू ने जैसे ही डिग्री हाथ में ली, एक साथ कई कंपनियों की भर्तियाँ शुरू हुईं। लड़कियाँ मेकअप और रिज्यूमे के साथ, लड़के सूट-बूट में सजधज कर इंटरव्यू के लिए पहुँचे। लेकिन श्यामू के पास एक ही नीली शर्ट थी, जिसे वह रोज़ इस्त्री करता, और एक फोल्डर था जिसमें डिग्रियाँ थीं, लेकिन 'अभिजात्यता' नहीं।
पहले इंटरव्यू में HR ने पूछा , " Tell me about your schooling background?"
श्यामू की आवाज़ लड़खड़ा गई।
"Sir... Government school, village area... M-Matihane"
HR ने एक हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया, जैसे कुछ तय कर लिया हो।
रजत ने समझाया ,"देख भाई, तुम्हें डर नहीं, गर्व से जवाब देना है। ये नौकरी तुम्हारी है, उनकी कृपा नहीं।" फिर एक दिन एक बड़ी NGO ने श्यामू को रिसर्च असिस्टेंट की पोस्ट के लिए चुना। पहली तनख्वाह ₹21,000।
श्यामू ने अपने होस्टल की छत पर जाकर आकाश की ओर देखा जहाँ कभी सिर्फ उड़ती धूल थी, आज उम्मीद की किरण झिलमिला रही थी।
नई नौकरी में श्यामू को अक्सर "शहरी समाज" के लोगों से मिलना पड़ता। वहाँ बातें होती थीं विदेशी शिक्षा, ब्रांडेड वस्त्र, विदेश यात्राएँ। जब बारी आती थी श्यामू की, वह चुप हो जाता।
एक मीटिंग में एक महिला अधिकारी ने पूछा ,श्यामू जी, आप इतने कम बोलते हैं, कहाँ से हैं आप?" जी… पटना…"उसने एक और झूठ बोल दिया। वह जानता था, 'मटिहानी' का नाम सुनते ही बाकी लोग 'क्लास डिफरेंस' का पर्दा डाल देंगे।
मगर यह झूठ उसे हर रात कचोटता था। वह अपने असली 'मैं' से दूर भाग रहा था। एक रात उसने अपनी डायरी में लिखा ,
“मैं किससे डरता हूँ? उस गाँव से जिसने मुझे गढ़ा? या उन लोगों से जिनका गढ़ खुद नकली है?”
उसने निश्चय किया अब वह झूठ नहीं बोलेगा। अगली बार जब वही महिला मिली, उसने कहा ,"मैम, मैं मटिहाना गाँव से हूँ। वहीं की मिट्टी ने मुझे बनाया है।" महिला मुस्कुराई, "तभी आपकी बातों में एक अलग अपनापन है।"
एक दिन श्यामू को चिट्ठी मिली माँ की चिट्ठी।"बेटा, तेरे बाबूजी की तबीयत बिगड़ गई है। इस बार मत कहना 'काम है'।तेरा गांव, तेरी माँ, तेरे बाबूजी सब तुझे याद करते हैं।" श्यामू ने उस पत्र को पढ़ते ही एक हफ्ते की छुट्टी ली और गांव लौट गया।
मटिहानी… वही धूल, वही गलियाँ, वही खेत… पर अब वह बदल चुका था। लोगों ने जब उसे सूट में देखा, तो एक अजीब-सी चुप्पी छा गई। पिता पलंग पर थे, कमज़ोर, बुझी हुई आँखें लिए। माँ ने केवल यही कहा, “देख… हमारा लाल लौट आया।” उस रात श्यामू ने बरामदे में बैठकर फिर वही पुराना आसमान देखा। पर अब उसमें सिर्फ तारे नहीं, अपनेपन की चमक थी।