#अनुष्ठान और कर्मकांड में जौ और काले तिल का क्या है रहस्य?

 विनोद कुमार झा

जब अग्नि की ज्वाला में कोई अन्न डाला जाता है, तो वह केवल भस्म नहीं होता वह देवताओं तक संदेश और श्रद्धा पहुंचाता है। यही कारण है कि हवन, श्राद्ध और पितृकर्म में विशेष रूप से जौ (यव) और काले तिल (कृष्ण तिल) का प्रयोग किया जाता है। ये केवल अनाज नहीं हैं, बल्कि ऋषियों द्वारा उद्घाटित ब्रह्ममंत्रों से पूरित दिव्य वाहक हैं। गरुड़ पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, विष्णु धर्मसूत्र आदि में वर्णित है कि जब सृष्टि की रचना हो रही थी, तो ब्रह्मा जी ने मनुष्यों को धर्म, अन्न और संस्कार दिए। 

उस समय उन्होंने कहा , यवाः पवित्रतमं धान्यम्, कृष्णतिलाश्च पितृप्रियाः।

(अर्थ: जौ पवित्रतम अन्न है और काले तिल पितरों को अत्यंत प्रिय हैं।)

ब्रह्मा जी ने ध्यानस्थ होकर उत्तर दिया ,जौ का जन्म क्षीरसागर से हुआ है और यह देवगंध युक्त है। यह आत्मा को तेज, शांति और पुण्य देता है। तिल का निर्माण भगवान शिव के नेत्रों से बहती पसीने की बूंदों से हुआ, जिसमें तप, संयम और श्रद्धा का भाव समाहित है। काले तिल पितरों के लिए अन्न के समान हैं।इस कारण से, जौ देवताओं के लिए और काले तिल पितरों के लिए अर्पणीय माने गए।

सृष्टि के प्रारंभ में उत्पन्न हुए ये दिव्य अन्न :जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ, तब ब्रह्मा जी ने चारों वर्ण, ऋषियों, यक्षों, देवताओं, असुरों और मनुष्यों की रचना की। लेकिन यह सृष्टि अधूरी थी, क्योंकि कोई ऐसा माध्यम नहीं था जिससे देवताओं को बलि, पितरों को तर्पण और यज्ञ में आहुति दी जा सके।

ब्रह्मा जी ध्यान में लीन हुए और उनके तप से पृथ्वी के गर्भ से अनेक अन्नों की उत्पत्ति हुई। उस समय उन्होंने कहा, ये अन्न न केवल शरीर को पोषण देंगे, अपितु आत्मा को भी शुद्ध करेंगे।इन्हीं अन्नों में दो अन्न विशेष रूप से तप और श्रद्धा से उपजे: जौ (यव) और तिल (तिलाः)।

एक और पौराणिक कथा गरुड़ पुराण तथा विष्णु धर्मसूत्र में  मिलती है। एक बार देवताओं और असुरों में घोर युद्ध हुआ। उस युद्ध में अनेक वीरात्माएँ वीरगति को प्राप्त हुईं। देवताओं ने ब्रह्मा जी से पूछा  “इन आत्माओं की शांति के लिए कौन-सा अन्न यज्ञ और तर्पण में अर्पित किया जाए?”

एक अन्य कथा विष्णु धर्मसूत्र तथा कूर्म पुराण में वर्णित है। जब एक बार देवताओं ने यज्ञ करने की इच्छा की और यज्ञीय अन्न न होने से चिंतित हुए, तब भगवान विष्णु ने उन्हें बताया ,यवः यज्ञस्य मुख्यं अन्नं भवेत्। फिर ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डलु से कुछ जल पृथ्वी पर डाला और मंत्र उच्चारण के साथ यज्ञ की अग्नि में आहुति दी। उसी अग्नि से जौ (यव) की उत्पत्ति हुई।

ब्रह्मा जी ने कहा: अयं यवः यज्ञस्य मूलम्, अग्निहोत्रस्य आहारः, देवानां बलिः। (यह जौ यज्ञ का मूल अन्न है, अग्निहोत्र की शक्ति है, और देवताओं का प्रिय है।) जौ को देव धान्य कहा गया है। यह अग्नि को शुद्ध करता है, हवा में मंत्रों की तरंगें फैलाता है और देवताओं को आकर्षित करता है।

काले तिल: पितृदोष निवारण का दिव्य साधन है। काले तिल को पितृ प्रिय कहा गया है। गरुड़ पुराण के अनुसार:

कृष्णतिलाः पितृणां हर्षकारका इति निश्चितम्।

अर्थ: काले तिल पितरों को संतोष और हर्ष प्रदान करते हैं।श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान में काले तिल का जल में डालना या अग्नि में आहुति देना आत्मा की मुक्ति के लिए अत्यंत आवश्यक माना गया है। यह तिल न केवल पितरों की आत्मा को तृप्त करता है, बल्कि घर से पितृदोष, अकाल मृत्यु, अशांति और वंश बाधा को भी दूर करता है।

काले तिल की उत्पत्ति :एक बार भगवान शिव गहन तप में लीन हो गए। यह तप इतना तीव्र था कि उनके शरीर से पसीने की बूंदें पृथ्वी पर गिरने लगीं। जब वह पसीने की बूंदें धरती पर गिरीं, तो वे तिल के बीजों में परिवर्तित हो गईं। इस घटना के साक्षी स्वयं ब्रह्मा और विष्णु थे। ब्रह्मा जी ने यह देखकर कहा ,

तिलाः शिवस्य शरीरेभ्यः संजाता तपसा सह।

तेषां दानं पितृभ्यश्च मोक्षदं भवति ध्रुवम्।

अर्थ: शिव के शरीर से उत्पन्न हुए तिल, पितरों को अर्पित किए जाने पर मोक्ष प्रदान करते हैं। इस कारण काले तिल पितरों को अत्यंत प्रिय माने गए। वे पवित्रता, तपस्या, संयम और संतुलन के प्रतीक हैं। इनका प्रयोग श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान आदि में किया जाता है।

जौ देवताओं के भोजन का प्रतीक : यज्ञ और हवन में जो जौ डाले जाते हैं, वह 'देवभोज्य' माने गए हैं। ऋग्वेद और यजुर्वेद में जौ को "यवम अन्नं हविष्यम्" कहा गया है, अर्थात यह हवन योग्य है। जौ शुद्धता, उर्जा और उत्सर्ग का प्रतीक है। किसी भी अनुष्ठान में जब जौ को अग्नि में डाला जाता है, तो वह 'ऋतु', 'ऋषि' और 'देवता' के आह्वान को पूरा करता है।

 जौ और तिल का रहस्य: जौ अग्नि में जलकर तेज उत्पन्न करता है, जो देवताओं की प्रसन्नता का कारण बनता है। काले तिल जल, वायु और पृथ्वी तत्वों को शुद्ध कर पितरों के सूक्ष्म शरीर तक श्रद्धा और तर्पण को पहुंचाते हैं।

वेदों में कहा गया है: तिलैः संपूज्य पितरः प्रियं लभंते दिवं गच्छंति न संशयः। जौ और काले तिल केवल अन्न नहीं, आत्मा और परमात्मा के बीच मध्यम हैं। वे श्रद्धा को देवताओं और पितरों तक पहुंचाते हैं। हर वह पूजा या कर्म, जिसमें ये सम्मिलित होते हैं, उसमे ब्रह्मांड की सूक्ष्म शक्तियाँ प्रवाहित होती हैं।

दोनों अन्नों की महिमा : तिल का संबंध पितृ लोक से है। यह आत्मा की शांति, त्राण और तृप्ति का साधन है। जौ का संबंध देव लोक से है। यह यज्ञ की ऊर्जा, आहुतियों की सिद्धि और वातावरण की पवित्रता का आधार है।

गरुड़ पुराण में कहा गया है ,यत्र तिलाः दत्ताः स्युः श्रद्धया तत्र पितृगणाः तृप्यंति। यत्र यवाः हविष्यं भूत्वा अग्नौ समर्प्यंते, तत्र देवा संतोषं लभंते।

यह कथा केवल अन्न की उत्पत्ति नहीं है, यह मानव और ब्रह्मांड के बीच की कड़ी है। जौ और तिल हमें यह सिखाते हैं कि अन्न का अर्थ केवल शरीर पोषण नहीं, बल्कि आत्मा का उत्थान भी है। जब हम तिल से पितरों को और जौ से देवताओं को अर्पण करते हैं, तो हम सृष्टि की उस ऊर्जा से जुड़ते हैं जहाँ श्रद्धा, तप और संतुलन समाहित है।



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