कहानी: अतीत की गहराई

लेखक : विनोद कुमार झा

अतीत... एक ऐसा दर्पण, जो बीते हुए लम्हों की परछाइयों को हमारे आज पर उकेरता है। कुछ यादें मुस्कान बनकर उभरती हैं, तो कुछ टीस बनकर सीने में गूंजती हैं। जीवन की आपाधापी में हम वर्तमान को संवारने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि बीते कल की दस्तकें अनसुनी रह जाती हैं। लेकिन जब कोई परिस्थिति, कोई चेहरा या कोई जगह अचानक उस बीते समय की गिरह खोल देती है, तब हम गहराइयों में डूबने लगते हैं – अतीत की गहराइयों में।

यह कहानी केवल स्मृतियों की नहीं, उन अधूरी इच्छाओं, छूटे रिश्तों और अनकहे भावों की भी है जो वक़्त के गर्त में कहीं दब गए थे। आइए, उतरें उसी अतीत की गहराई में – जहां दर्द भी है, सुकून भी; पछतावा भी है, माफ़ी भी... और शायद कहीं न कहीं... एक नया उत्तर भी। आइए जानते हैं विस्तार से:-

राघव का सरकारी कार्यालय अब उस ऊष्मा से दूर हो चुका था, जो कभी उसके सपनों का केंद्र रहा था। उम्र के साथ साथ कागज़ों के ढेर, मेज़ की दराज़ और टेलीफोन की घंटियाँ सब कुछ उसके जीवन का हिस्सा बन गई थीं। लेकिन उस दिन, जब उसने रिटायरमेंट की पूर्व संध्या पर अपनी दराज़ खोली, तो एक पुरानी डायरी मिल गई  हल्के भूरे रंग की, किनारों से फटी हुई, पर भीतर के पन्नों में एक उम्र बसी हुई।

डायरी का पहला पन्ना खुला- "23 जुलाई, 1989 आज उसे देखा पहली बार। उसका नाम अवनि है। लगता है जैसे बारिश की पहली बूंद ज़मीन को छू गई हो..." राघव की आँखें भर आईं। वर्षों की धूल उस स्मृति से हट चुकी थी। अतीत, जिसने कभी विदा नहीं ली थी, अब पूरे वेग से लौट रहा था।

राघव की स्मृतियों की गली अब अवनि के शहर की गलियों से मिलती चली गई। वे कॉलेज के दिन थे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का वह प्रांगण, वह साइकिल स्टैंड, वह पुस्तकालय की छत जहाँ बैठकर वह अवनि की प्रतीक्षा करता था।

अवनि एक तेजतर्रार, सामाजिक कार्यों में रुचि रखने वाली लड़की, जो अपने विचारों से कम और आंखों से ज़्यादा बोलती थी। राघव अक्सर सोचता था, क्या वह भी मुझे देखती है जैसे मैं उसे? लेकिन जीवन में हर प्रेम को शब्द नहीं मिलते। कुछ सिर्फ मौन के लिबास में रहते हैं।

डायरी के बीचों-बीच एक अधूरी चिट्ठी भी थी। राघव ने कभी वह पत्र अवनि को नहीं दिया था। उसमें लिखा था: "प्रिय अवनि, शब्द कभी नहीं कह पाए जो आंखें हर रोज़ कहती रहीं। मैं जानता हूँ, मैं कोई कवि नहीं, लेकिन तुम्हारे सामने आने पर मेरी आत्मा गाना चाहती है..."

आगे शब्द अधूरे थे। शायद वह डर गया था। शायद समाज की सीमाएं, उसका निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार, और अवनि के ब्राह्मण कुल की प्रतिष्ठा  बहुत कुछ बीच में था।

अब वह अकेला था। रिटायर हो चुका, बच्चे विदेश में, पत्नी स्वर्गवासी, और दिल में अतीत की गहराई। एक सुबह उसने तय किया  "मैं बनारस जाऊंगा।"उसका मन जानना चाहता था  अवनि अब कहां है? क्या वह ठीक है? क्या उसे भी कभी मेरी याद आई? बनारस की गलियाँ पहले जैसी ही थीं, बस उसके मन में अब और भी ज्यादा धुंध छाई हुई थी।

गली नंबर 8 वहीं कोई नाम बताया गया था। एक वृद्धा ने कहा, "अवनि? अरे वो तो अब दिव्या बहन बन गई हैं। काशी आश्रम में हैं। वर्षों पहले पति की मृत्यु के बाद सब त्यागकर साध्वी बन गईं।"

राघव को झटका लगा। उसके भीतर एक द्वंद्व उठ खड़ा हुआ। क्या अब जाना उचित होगा? लेकिन अंततः वह चला गया। उस द्वार तक, जहां न केवल एक स्त्री की जीवनयात्रा बदली थी, बल्कि राघव का भी एक अधूरा अध्याय सांस ले रहा था।

आश्रम के शांत प्रांगण में जब राघव ने दिव्या बहन को देखा, तो उनकी आँखों ने वर्षों की दूरी को पाट दिया। न कोई प्रश्न, न कोई उत्तर। सिर्फ मौन।

अवनि  यानी अब दिव्या बहन  बस मुस्कुराईं। "तुम आ ही गए राघव। मैं इंतज़ार नहीं कर रही थी, लेकिन जानती थी, तुम एक दिन आओगे।"

 वह अनकहा उत्तर दिया- आश्रम का वातावरण शांति से लिपटा हुआ था, जैसे हर पत्थर, हर वृक्ष, हर घंटी की ध्वनि एक प्राचीन मौन को संजो रही हो। उसी मौन में राघव और अवनि आमने-सामने बैठे थे।

राघव की आंखें नम थीं, लेकिन ओठों पर एक सुकून था।"मैं जानता था अवनि, कहीं न कहीं तुम अब भी हो।"

अवनि  अब दिव्या बहन  शांत स्वर में बोलीं, "मैं भी जानती थी राघव… कि तुम्हारा प्रेम समय की सीमाओं से परे था।"

उन दोनों के बीच वर्षों का मौन था  न कोई सवाल, न कोई शिकायत। लेकिन यह मौन अब खलने वाला नहीं था, बल्कि वह सबसे सच्चा संवाद बन चुका था।

“क्या तुम जानती थीं, मैं तुमसे प्रेम करता था?” राघव ने पूछा।

अवनि मुस्कुरा दीं -“तुमने कभी कहा नहीं, पर मैंने हर बार महसूस किया। लेकिन तब समय ऐसा नहीं था, न तुम कह सके, न मैं पूछ सकी।” राघव ने धीरे से डायरी का वह अधूरा पत्र उनके सामने रख दिया।

"इसे अधूरा छोड़ दिया था… डर था, कहीं सब कुछ खो न दूँ।"

अवनि ने पन्नों को पलटा, उसे छूआ, और बोलीं,"अब यह पत्र पूरा हो गया है तुम्हारे आने से।"

उन दोनों ने मंदिर के पास की सीढ़ियों पर बैठकर देर तक बात की। नहीं, यह बातचीत नहीं थी  यह आत्मा की उपस्थिति थी।

अवनि बोली,"जब पिताजी ने मेरी शादी तय की, तब तुम एक चुप्पी बन गए थे। तुम्हारा मौन ही मेरे हां या ना का कारण बना। मैंने समझा तुम नहीं चाहो, तो मैं क्यों चाहूं?"

राघव ने अपना सिर झुका लिया।"तब मैं बहुत छोटा सोचता था। तुम्हें सम्मान देना चाहता था, पर खुद को उस लायक नहीं मानता था।"

अवनि की आँखों में करुणा थी -"तुम्हारा प्रेम सच्चा था, लेकिन तुम्हारी चुप्पी ने मुझे जीवन भर अकेला कर दिया… और इसी अकेलेपन ने मुझे इस रास्ते पर ला दिया।"

राघव ने पूछा, "क्या तुम कभी मुझे क्षमा कर पाई?"

अवनि ने गंगा की ओर देखा, और कहा,"यह जो जल है ना राघव, वह बहता है… न शिकायत करता है, न लौटता है। मैं भी उस जल जैसी बन गई। जीवन में जो मिला, वह स्वीकार किया। और जो छूट गया, उसे पूजा की तरह अपने भीतर रख लिया।"

उनकी बातें किसी समाधि की तरह स्थिर थीं। कोई आरोप नहीं, कोई पश्चाताप नहीं  बस सत्य का स्वीकार।

आश्रम के घंटे बजने लगे थे। आरती की तैयारी शुरू हो चुकी थी। राघव ने झुके स्वर में कहा,"अब मैं लौट जाऊँगा, अवनि। शायद आख़िरी बार तुम्हें देखा हो।"

अवनि मुस्कुराईं ,"तुम अब लौट नहीं रहे, राघव। तुम तो अब अपने भीतर आ गए हो। जिस दिन प्रेम को समझ लिया जाता है, वह लौटता नहीं  वह स्थायी हो जाता है।"

दोनों ने एक-दूसरे के हाथों को नहीं छुआ, पर उनकी आत्माएं वर्षों बाद एक दूसरे से आलिंगन कर चुकी थीं।

राघव घर लौट आया। लेकिन वह पहले जैसा नहीं था। वह खालीपन अब नहीं था। उसने अपनी डायरी के अंतिम पन्ने पर लिखा , “मैंने प्रेम किया था  और वह अब भी जीवित है। वह देह से नहीं, संवाद से नहीं  आत्मा से जुड़ा था। अब मुझे कोई पछतावा नहीं, क्योंकि मेरी अवनि अब भी उसी रूप में मेरे भीतर है, जैसी पहले थी। और वह कभी मरी नहीं थी  बस मौन हो गई थी।”

अतीत की गहराई में डूबना डरावना हो सकता है, पर जब हम उन स्मृतियों से भागना छोड़ देते हैं, तब वे हमें सिखाती हैं कि जीवन का सबसे सुंदर अध्याय कभी-कभी वहीं छिपा होता है, जिसे हम अधूरा समझ बैठे थे।

कभी-कभी अधूरे प्रेम ही सबसे पूर्ण अनुभव बन जाते हैं।

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