विनोद कुमार झा
पुराने समय की बात है। हिमालय की पवित्र घाटियों में एक आश्रम था, जहाँ ऋषि वसुश्रवा तपस्या में लीन रहते थे। वे वेदों के प्रकांड ज्ञाता थे, लेकिन उनका हृदय सदा से यही जानने को लालायित रहता था "दैव और धर्म की जड़ें आखिर क्या हैं?"
एक दिन उनके पास एक युवा शिष्य आया, नाम था सत्यानंद। उसका मुख तेजस्वी था, किंतु उसकी आंखों में प्रश्नों का समुंदर था। "गुरुदेव," वह बोला, "मैं सत्य की खोज में हूँ। मुझे वह रहस्य बताइए जो सम्पूर्ण जीवन को दिशा देता है।"
ऋषि मुस्कुराए और बोले, "तो चलो, मैं तुम्हें सात पर्वतों से होकर गुजारूंगा, जहां प्रत्येक पर्वत एक दैवीय सिद्धांत की शिक्षा देगा।"
पहला सिद्धांत : सत्य (Satya) पहाड़ की तलहटी पर एक बूढ़ा माली मिला। वह दिन-रात पौधों से बात करता, कभी न झूठ बोलता और न छल करता। शिष्य ने पूछा, "क्या तुम कभी थकते नहीं?"
माली ने उत्तर दिया, "मैं सत्य को जीता हूँ, और सत्य वही है जो तुम्हारा अंतरात्मा कहती है, न कि दुनिया का डर।"
सत्यानंद ने सीखा: जो सत्य को नहीं जानता, वह ईश्वर को नहीं जान सकता। सत्य पहला स्तंभ है जिस पर दैविक जीवन खड़ा होता है।
दूसरा सिद्धांत : अहिंसा (Ahimsa) अगले पर्वत पर एक शेर और एक हिरण साथ-साथ जल पी रहे थे। यह दृश्य चौंकाने वाला था।
ऋषि बोले, "यहाँ हिंसा का अस्तित्व नहीं। जो अपनी इच्छाओं पर संयम रखता है, वही सच्चा तपस्वी होता है।"
शिष्य ने सीखा: अहिंसा केवल न मारना नहीं, अपितु किसी के अस्तित्व में खलल न डालना है – वाणी से, कर्म से और विचार से।
तीसरा सिद्धांत : करुणा (Karuna) तीसरे पर्वत पर एक महिला मृत पक्षियों का अंतिम संस्कार कर रही थी। उसने कहा, "प्रेम की सबसे ऊँची अभिव्यक्ति है करुणा।" ऋषि बोले, "जब तुम अपने भीतर हर जीव के लिए पीड़ा अनुभव करने लगो, तभी दैविकता का द्वार खुलता है।"
शिष्य ने सीखा: करुणा आत्मा की भाषा है, और परमात्मा केवल उसी को सुनता है जो करुणा से भरा हो।
चौथा सिद्धांत : क्षमा (Kshama) चौथे पर्वत पर एक राजा मिला जिसने अपने हत्यारे भाई को क्षमा कर दिया था।
"क्यों?" शिष्य ने पूछा। राजा बोला, "क्योंकि बदले से चित्त अशांत होता है, क्षमा से ईश्वर का वास होता है।"
शिष्य ने सीखा: जो क्षमा नहीं कर सकता, वह अपने ही बंधनों में जकड़ा रहता है। क्षमा से ही आत्मा मुक्त होती है।*
पाँचवां सिद्धांत : संयम (Sanyam ) पाँचवे पर्वत पर एक साधक 12 वर्षों से मौन में था।
"क्या तुम कुछ नहीं बोलते?"उसने सिर हिलाया।
ऋषि बोले, "संयम केवल मौन नहीं, इंद्रियों का स्थिर होना है।"
शिष्य ने सीखा: संयम वह दीपक है, जो अंदर के अंधकार को जलाता है। इंद्रियों की दिशा जब भीतर की ओर हो, तभी आत्मज्ञान संभव है।
छठा सिद्धांत : श्रद्धा (Shraddha) छठे पर्वत पर एक विधवा स्त्री प्रतिदिन शिवलिंग पर जल चढ़ाती थी।
"क्या भगवान तुम्हें दिखाई देते हैं?"
वह बोली, "नहीं, पर मुझे विश्वास है कि वे सुनते हैं।"
ऋषि बोले, "श्रद्धा वह पुल है जो दृश्य और अदृश्य को जोड़ता है।"
शिष्य ने सीखा: श्रद्धा के बिना कोई भी सिद्धांत केवल नियम है, भावनाविहीन और निष्प्राण। श्रद्धा ही आत्मा को आत्मा से जोड़ती है।
सातवां सिद्धांत : समर्पण (Samarpan) : अंत में सातवां पर्वत। वहाँ एक वृद्ध योगी समाधि में लीन थे। शरीर निर्जीव-सा, पर मुख पर दिव्य शांति।
ऋषि बोले, "यह अंतिम सिद्धांत है – समर्पण। जब 'मैं' समाप्त होता है, 'वह' प्रकट होता है।"
शिष्य ने सीखा: सबकुछ छोड़ देने में ही सबकुछ पा लेना है। समर्पण वह द्वार है जिससे ब्रह्म प्रवेश करता है।
सत्यनंद वापस लौट आया। उसका चेहरा तेजोमय था। उसने ऋषि वसुश्रवा को प्रणाम किया।
"अब तुम जान गए?" ऋषि ने पूछा।
"हां गुरुदेव, अब मैं केवल जानता नहीं, मैं इन्हें जीना चाहता हूँ।"
ऋषि मुस्कुराए।
"जब तक सिद्धांत सिर्फ शब्द हैं, वे निर्जीव हैं। पर जब वे जीवन बन जाएं, तभी तुम दैवी हो जाते हो।"
सात प्रमुख दैवीय सिद्धांत का सार इस प्रकार है:-
1. सत्य – आत्मा की आवाज़ को सुनना
2. अहिंसा – किसी भी रूप में हिंसा से बचना
3. करुणा – हर प्राणी के प्रति संवेदना
4. क्षमा – दूसरों को मुक्त कर स्वयं को हल्का करना
5. संयम – इंद्रियों और वासनाओं पर नियंत्रण
6. श्रद्धा – विश्वास जो बिना प्रमाण के भी अडिग हो
7. समर्पण – अहंकार का विसर्जन और ईश्वर में विलय
दैविक जीवन कोई चमत्कार नहीं, बल्कि इन सात दीपों की रोशनी में चलने की यात्रा है। जो इन सिद्धांतों पर टिके, वही सत्य के पथ पर ईश्वर का साक्षात्कार करता है।