ट्रंप की विदेश नीति में बदलती हवाएं

 विनोद कुमार झा

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों में "अमेरिका फर्स्ट" का नारा कोई नया नहीं है, लेकिन इस बार उन्होंने जो किया, वह वैश्विक कूटनीति, मानवाधिकार और शैक्षिक भविष्य तीनों के लिए एक गहरी चिंता का विषय बन गया है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने एक बार फिर विवादास्पद यात्रा प्रतिबंध नीति को जीवित कर दिया है, जिसके तहत 12 देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध और 7 अन्य देशों से आने वाले नागरिकों के लिए और अधिक कठोर नियम लागू किए गए हैं। यह निर्णय न केवल अमेरिका की विदेश नीति की दिशा को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि किस प्रकार एक राष्ट्रवादी मानसिकता वैश्विक सहयोग के पुल को दीवारों में बदल सकती है। 

ट्रंप प्रशासन द्वारा जिन 12 देशों के नागरिकों पर सीधा प्रतिबंध लगाया गया है, वे देश हैं अफगानिस्तान, ईरान, सोमालिया, यमन, चाड, सूडान, कांगो, हैती, म्यांमार, इक्वेटोरियल गिनी, इरिट्रिया और लीबिया। इसके अतिरिक्त, बुरुंडी, क्यूबा, लाओस, सिएरा लियोन, टोगो, तुर्कमेनिस्तान और वेनेजुएला जैसे देशों के नागरिकों पर अतिरिक्त सुरक्षा जांच और वीजा प्रक्रियाएं सख्त कर दी गई हैं। यह स्पष्ट है कि इनमें से अधिकांश देश राजनीतिक अस्थिरता, युद्ध, आतंकवाद या अत्यधिक गरीबी से जूझ रहे हैं। ऐसे में इन देशों के नागरिकों के लिए अमेरिका जैसे देशों में शिक्षा, चिकित्सा और सुरक्षित जीवन की आशा ही जीवन रेखा है। लेकिन ट्रंप की इस नीति ने उस आशा को एक बार फिर कुचल दिया है।

राष्ट्रपति ट्रंप का तर्क है कि ये निर्णय "राष्ट्रीय सुरक्षा और अमेरिका के नागरिकों की रक्षा" के लिए हैं। लेकिन क्या यह तर्क सभी स्तरों पर उचित ठहराया जा सकता है? आलोचकों का कहना है कि यह नीति धार्मिक और नस्लीय आधार पर भेदभाव को बढ़ावा देती है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से कई देश मुस्लिम बहुल हैं, जिससे ट्रंप प्रशासन की पूर्व की "मुस्लिम बैन" नीति की पुनरावृत्ति की आशंका प्रबल हो जाती है। यही नहीं, शैक्षणिक जगत को भी इस प्रतिबंध से गहरी चोट पहुंची है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में अध्ययन करने वाले अंतरराष्ट्रीय छात्रों के वीज़ा और प्रवेश प्रक्रिया को निलंबित कर देना न केवल अमेरिका के शिक्षा क्षेत्र की वैश्विक प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाता है, बल्कि प्रतिभाओं के पलायन को भी अवरुद्ध करता है। यह एक प्रकार से वैश्विक प्रतिभा की 'नाकाबंदी' है।

इस यात्रा प्रतिबंध की घोषणा ऐसे समय में हुई है जब अमेरिका और रूस के बीच यूक्रेन को लेकर तनाव चरम पर है। ट्रंप और पुतिन के बीच हुई टेलीफोन वार्ता के कुछ ही घंटे बाद रूस ने यूक्रेन के कई शहरों पर हवाई हमले कर दिए जिसमें निर्दोष नागरिक मारे गए। यह सिर्फ एक संयोग नहीं हो सकता। यह संकेत करता है कि वर्तमान विश्व व्यवस्था एक अस्थिर, अविश्वासी और आत्मकेंद्रित दिशा में बढ़ रही है। जब एक ओर विश्व युद्ध जैसे हालात बन रहे हों, वहीं दूसरी ओर अमेरिका जैसे देशों द्वारा शरणार्थियों और पीड़ितों के लिए अपने दरवाज़े बंद कर देना, मानवीय दृष्टिकोण से सबसे बड़ी विफलता कही जा सकती है। इस नीति का असर केवल प्रभावित देशों तक सीमित नहीं रहेगा। यह वैश्विक स्तर पर अमेरिका की छवि को नुकसान पहुंचा सकता है। संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ और अन्य लोकतांत्रिक राष्ट्र इस कदम की आलोचना कर सकते हैं क्योंकि यह वैश्विक सहयोग, मानवाधिकार और अंतरराष्ट्रीय विश्वास के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।

इसके अलावा, इन देशों में अमेरिका विरोधी भावनाएं और कट्टरता बढ़ सकती है, जिससे अमेरिका की वही राष्ट्रीय सुरक्षा और अधिक संकटग्रस्त हो सकती है, जिसे बचाने के नाम पर यह निर्णय लिया गया। डोनाल्ड ट्रंप की यह यात्रा प्रतिबंध नीति न केवल भेदभावपूर्ण है बल्कि यह अमेरिका की उन लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों की अवहेलना है जिन पर उसकी नींव रखी गई थी। वैश्विक नेतृत्व वह नहीं होता जो कमजोर को दूर भगाए, बल्कि वह होता है जो उन्हें गले लगाकर उन्हें ताकत दे। दुनिया को इस समय पुलों की जरूरत है, दीवारों की नहीं। संसद, मानवाधिकार संगठनों और वैश्विक नेताओं को इस निर्णय की गहन समीक्षा करनी चाहिए और एक सामूहिक आवाज में इस प्रकार की विभाजनकारी नीतियों का विरोध करना चाहिए।


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