विनोद कुमार झा
(एक औरत की आत्मा की खामोश चीखें)
हर कोई जी रहा है लेकिन क्या सचमुच जी रहा है? कुछ चेहरे मुस्कराते हैं, पर भीतर टपकती हैं अश्रुधाराएं। कुछ खामोश रहते हैं, लेकिन उनकी खामोशी गूंजती है सिसकियों के संगीत में। यह कहानी है ऐसी ही एक आत्मा की, जिसकी ज़िंदगी सिर्फ साँसों का नाम नहीं,बल्कि सिसकियों का एक लंबा सफर बन चुकी थी।
ज़िंदगी की सिसकियां कोई नहीं सुनता कुछ ज़िंदगियाँ शब्दों से नहीं, सिसकियों से लिखी जाती हैं। कुछ औरतें खामोश होकर भी इतना कुछ कहती हैं कि अगर कोई सच में सुन ले, तो समाज का चेहरा बदल जाए।
यह कहानी है नीरा की जो एक साधारण गृहिणी थी लेकिन उसका दर्द असाधारण था। वह उन लाखों स्त्रियों का प्रतीक है जो परिवार के लिए जीती हैं, मगर खुद को धीरे-धीरे खो देती हैं।
नीरा बचपन में बहुत चुलबुली थी। हर कविता प्रतियोगिता में हिस्सा लेती, गिटार बजाती, दोस्तों के बीच सबसे हंसमुख मानी जाती। कॉलेज में उसने हिंदी साहित्य से गोल्ड मेडल लिया था।उसके लेख स्थानीय अख़बार में छपते थे। हर कोई कहता “नीरा एक दिन बहुत बड़ी लेखिका बनेगी।” पर फिर, एक दिन शादी हो गई।
रवि एक सरकारी कर्मचारी था, सुसंस्कारी, व्यवस्थित और स्थिर। सपनों की दुनिया अचानक रसोई की दीवारों में बंद हो गई। शादी के बाद पहला साल ठीक रहा। लेकिन फिर नीरा के जीवन में आया पहला बदलाव मातृत्व।
बेटा हुआ, फिर बेटी। फिर ससुराल के दायित्व, बच्चों की परवरिश, बजट की सीमाएँ और सामाजिक अपेक्षाएँ। धीरे-धीरे गिटार अलमारी में बंद हो गया। डायरी के पन्ने कोरा रह गए।कविताएं बस मन में मरती रहीं।
नीरा सुबह 5 बजे उठती थी।ससुर-सास की चाय, बच्चों का टिफ़िन, पति का ब्रेकफ़ास्ट, कपड़ों की धुलाई, झाड़ू-पोंछा...सारा घर उसका था पर उसमें उसके लिए कोई कोना नहीं था।
हर दिन की शुरुआत से पहले वह बालकनी में खड़ी होती और देखती एक ही सूरज, एक ही पेड़, एक ही गली...पर कोई नई उम्मीद नहीं। उसका दिन बीतता था, पर जीवन नहीं। दीवारें उसकी सबसे करीबी दोस्त बन गई थीं उन्हीं से बात करती, उन्हीं को चुपचाप सुनती। उनका कोई जवाब नहीं होता और शायद वही शांति देती थी।
रवि एक जिम्मेदार पति था पर संवेदनशील नहीं। उसे नीरा की चुप्पी कभी अजीब नहीं लगी। उसे लगता, "औरत का काम है घर संभालना। बस!" नीरा जब थकती, तो रवि कहता, “तुम तो घर पर ही रहती हो!” जब वो रोती, तो रवि पूछता, “फिर क्यों परेशान रहती हो?”
बच्चों की पढ़ाई, करियर, दोस्त, गेम सब प्राथमिकता में थे। माँ बस एक “सर्विसिंग सेंटर” बन चुकी थी। उसके अस्तित्व का मूल्य उतना ही था जितना एक फ़र्नीचर का।
एक दोपहर नीरा अकेली थी। टीवी चल रहा था, पर आवाज़ नहीं सुनी जा रही थी। उसने अलमारी खोली और अपनी पुरानी डायरी निकाली। वह कांपते हाथों से पन्ने पलटती गई हर पन्ना उसकी खोई हुई पहचान का प्रमाण था।
“आज बारिश हुई। सबने गर्मा-गर्म पकौड़े मांगे। सब मुस्करा रहे थे पर किसी ने नहीं देखा मेरी आंखें भीगी हुई थीं सिर्फ बारिश से नहीं।”
“मैं एक कविता लिखना चाहती थी पर बीच में गैस बंद हो गई।रसोई का गैस ही नहीं, मेरी कविता की लय भी बुझ गई।”
उसने खुद को आईने में देखा झुर्रियां आ गई थीं। पर सबसे गहरी रेखा उसकी आत्मा पर थी। नीरा की पड़ोसन, मिसेज सेन, बंगाल से थीं। वह चित्रकार थीं और हर रविवार को वर्कशॉप चलाती थीं। नीरा ने पहली बार किसी से अपने मन की बात की।
मिसेज सेन ने उसका हाथ थामा और कहा , “तुम्हारी आंखें चुप नहीं, चीख रही हैं। अब तुम्हें खुद से मिलना होगा।” नीरा की आंखों में पहली बार किसी ने आंसुओं की भाषा पढ़ी। नीरा ने खुद को एक बार फिर गिटार थमाया। जैसे एक माँ अपने खोए हुए बच्चे को गोद में ले।
उसने छुपकर कविता लिखी। फिर मिसेज सेन ने उसे अपनी कार्यशाला में बुलाया। पहले-पहल नीरा संकोच में रही। लेकिन जैसे ही उसने गिटार छेड़ा और “तू खुद की तलाश कर” गाना गाया हर कोई स्तब्ध रह गया। वह वही नीरा थी जो कभी थी, और अब फिर बन रही थी।
रवि को शुरू में यह सब अजीब लगा। “अब यह क्या नया शौक शुरू कर दिया?”पर जब उसने देखा कि नीरा के चेहरे पर फिर मुस्कान लौटने लगी है, तो कुछ सोचने पर मजबूर हुआ।
बेटी ने मां को स्टेज पर देखा, और कहा,“मां, मुझे आप पर गर्व है।” नीरा ने पहली बार किसी रिश्ते में स्वीकृति महसूस की।
अब नीरा हफ्ते में तीन दिन महिलाओं को लेखन और संगीत सिखाती थी। वह एक नई ऊर्जा के साथ अपने घर और आत्मा को संभालती थी। सिसकियों ने कविता का रूप ले लिया था।
अब वह अपनी डायरी में लिखती थी: “मैं अब भी वही हूं पर अब खुद की हूं। किसी की परछाईं नहीं बल्कि प्रकाश की रेखा हूं।”
नीरा की कहानी उन सभी स्त्रियों की कहानी है जो अपनों के बीच अजनबी बन जाती हैं। अगर आप भी ऐसी किसी नीरा को जानते हैं तो उससे बात कीजिए, उसे सुनिए, उसे उसकी सिसकियों से बाहर निकालिए।
क्योंकि..."औरत अगर थमती है तो समाज टूटता है। औरत अगर मुस्कराती है तो पीढ़ियां खिलती हैं।"
“सिसकियां लेती जिंदगी” सिर्फ एक कहानी नहीं, एक सामाजिक प्रश्न है क्या हमारी घरों की नीरा सच में *“जी”* रही है? या बस साँसें ले रही है?