कहानी: विचलित मन

विनोद कुमार झा

(एक मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और आत्ममंथन पर आधारित कहानी)

 मनुष्य का मन स्थिर नहीं होता। मन का सबसे बड़ा भ्रम यही होता है कि वह अकेला है पर वह सदैव किसी न किसी विचार, स्मृति या चिंता की जकड़ में फँसा होता है। मन जितना गहरा, उतना ही उलझनों से भरा। जब यह मन अपने ही भीतर उलझने लगता है, तब जन्म लेता है – विचलन। यह कथा उसी मन के विचलन की है, जो बाहर से सामान्य दिखता है, पर भीतर शोर मच रहा होता है। यह एक युवक की आत्मयात्रा है जो अपने अस्तित्व, अपने फैसलों, और अपने अतीत से जूझता है।

अंश एक सफल युवक था  ऊँची इमारतों में रहने वाला, चमकदार ज़िंदगी जीने वाला, लेकिन भीतर से टूटा हुआ। उसके जीवन में सब कुछ था, सिवाय उस एक सुकून के जो किसी अपने की मौजूदगी से आता है। हर दिन ऑफिस की भीड़, रात का सन्नाटा और दिल में गूँजता वही पुराना सवाल “क्या कोई है, जो मुझे वैसे ही समझे जैसे मैं हूँ?”

और फिर, एक दिन...वह मिली। एक किताबों की दुकान में, जहाँ वह पुराने उपन्यास ढूँढ रहा था, और वहां एक लड़की  नयना, बारिश से भीगी आँखों वाली एक अनजान जो खुद भी कुछ ढूँढ रही थी, शायद अपना भटका हुआ मन।

उनकी पहली बातचीत कोई प्रेम नहीं थी, बस दो विचलित मनों की मुलाक़ात थी। लेकिन उस दिन से, जैसे मन ने साँस ली। अंश को पहली बार लगा कि शायद प्रेम कोई बड़ा उत्सव नहीं, बल्कि एक ऐसा मौन है, जहाँ शब्दों की ज़रूरत नहीं होती।

क्या नयना ही वह आईना थी, जिसमें अंश अपना स्थिर चेहरा ढूँढ सकेगा? क्या दो टूटे हुए लोग मिलकर एक मुकम्मल कहानी लिख सकते हैं?

“विचलित मन” की इस आत्ममंथन भरी यात्रा में, जहाँ जीवन ने उसे अपने भीतर झाँकना सिखाया  वहीं प्रेम ने उसे अपने भीतर किसी और को जगह देना सिखाया। आइए लेते इस कहानी का आनंद विस्तार से :- एक दिन अंश ने अपने आप पूछा "क्या तुम कभी ऐसे सोए हो, कि सुबह उठने का मन ही न किया हो?"

अंश ने शीशे में झाँकते हुए खुद से यह सवाल किया। वह थक चुका था  अपनी दिनचर्या से नहीं, बल्कि उस अनकहे दर्द से जो भीतर चुपचाप रिस रहा था।

एक ऊँची इमारत के 12वें माले से दिल्ली की भीड़भाड़ को देखकर भी उसका मन खाली लग रहा था। उसका बैंक अकाउंट भरा था, सोशल मीडिया प्रोफाइल चमकदार, और दोस्तों की गिनती लंबी थी – लेकिन फिर भी अंदर कुछ अधूरा था।

कॉर्पोरेट मीटिंग में अंश सबका चहेता था। “अंश, आप जैसे युवाओं से ही भारत का भविष्य उज्जवल है,” बॉस अक्सर कहते। लेकिन अंश के मन में प्रश्न थे – “क्या वाकई मैं खुश हूँ?”

रात को लेटकर उसे अक्सर पसीने आ जाते। बचपन की घटनाएँ, माँ की बीमारी, पिता की चुप्पी सब कुछ जैसे हर रात लौटकर आता। उसने कई बार साइकोलॉजिस्ट से अपॉइंटमेंट लिया, पर हर बार कैंसल कर दिया “मैं कमजोर नहीं हूँ,” वह खुद से झूठ बोलता।

एक दिन सफाई करते हुए अंश को माँ की पुरानी चिट्ठियाँ मिलीं। माँ, जो चार साल पहले कैंसर से चल बसी थीं। उनके हाथों की लिखी कुछ पंक्तियाँ: "बेटा, मन को कभी अकेला मत छोड़ना। वह दोस्त भी है, और दुश्मन भी।"

उस रात वह बहुत रोया। दिल भर आया। मन ने मानो माँ को पुकारा। वही माँ जो उसकी भावनाओं को बिना कहे समझ जाती थी। चिट्ठियों के साथ जैसे भावनाओं की तिजोरी खुल गई थी।

एक दिन ऑफिस मीटिंग के बीच अचानक अंश उठ खड़ा हुआ। सब चौंक गए। बिना कुछ कहे, वह कैब लेकर शहर से बाहर निकल गया। उसका मोबाइल बंद था, और दिल बेकाबू।

उसे लगा कि वह भाग रहा है  पर वह खुद को ढूँढने निकला था। दिल्ली से लगभग 200 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी क्षेत्र में उसने एक शांत आश्रम देखा। कोई योजना नहीं थी, बस दिल ने कहा  "रुक जा यहाँ। और वे रूक गया।

आश्रम में पहले दिन से ही उसका मन विचलित था। शांति चुभ रही थी। पर एक संत स्वामी चेतनानंद जी ने उसे देखा और मुस्करा कर कहा, “मन जितना भागेगा, उतना ही थकेगा। बैठ, और सुन इसे।”

उन्होंने उसे मौन साधना का अभ्यास सिखाया। रोज़ सुबह 4 बजे उठना, नदी किनारे बैठना, और बस साँसों को महसूस करना। शुरुआत में कठिन लगा, पर कुछ दिनों बाद जैसे मन की गांठें ढीली होने लगीं।

एक रात ध्यान करते हुए अंश को बचपन की एक स्मृति दिखी जब वह माँ की गोद में सर रखकर सोया था। वह दृश्य इतना सजीव था कि उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

स्वामी जी ने कहा, “यही मन का स्वभाव है  वह हर अधूरी बात को दोहराता है, जब तक उसे स्वीकार न कर लो।” अंश ने पहली बार स्वीकारा  कि वह टूटा है, बिखरा है, लेकिन अब वह खुद को समेटना चाहता है।

स्वामी जी ने उसे ‘अंतर्मन-पत्र लेखन’ का अभ्यास करवाया  जहाँ हर दिन वह अपने मन को एक पत्र लिखता। पहले पत्र में लिखा: "प्रिय मन, तू क्यों इतना बेचैन रहता है? तू किस बात से डरता है?"

मन ने उत्तर नहीं दिया, लेकिन जब अंश ने नियमित रूप से लिखना शुरू किया, तो उत्तर आने लगे। भावनाओं की गहराई खुलने लगी। उसे समझ आया कि जीवन में जितने उत्तर वो बाहर खोज रहा था, वे सब भीतर थे।

40 दिनों के आश्रम प्रवास के बाद अंश दिल्ली लौटा  पर अब वह बदल चुका था। अब वह हर सुबह उठकर ध्यान करता, दिन में 10 मिनट खुद से बात करता, और मोबाइल से दूरी बनाए रखता।

उसने ऑफिस में काम का तरीका बदला अब वह कर्मचारियों से केवल काम नहीं, बल्कि उनकी भावनाओं पर भी बात करता। उसकी टीम में आत्मीयता बढ़ने लगी। उसकी खुद की आँखों में अब चमक थी जो कभी बुझ गई थी।

एक दिन वह फिर उसी पार्क में गया जहाँ पहली बार एक वृद्ध व्यक्ति ने उसे समझाया था “मन दिशा चाहता है।” वह व्यक्ति वहाँ नहीं था  शायद वह कोई साधु था, या ईश्वर का कोई रूप। अंश ने वहीं बैठकर एक अंतिम पत्र अपने मन को लिखा:-

 "प्रिय मन, अब जब तू शांत है, मैं जीवन को और गहराई से जीना चाहता हूँ। मुझे तेरी सभी बेचैनियों के लिए धन्यवाद, जिन्होंने मुझे स्वयं से मिलवाया।"

अब अंश हर शुक्रवार को स्कूलों में जाकर बच्चों को ‘मन की बात’सिखाता है कैसे अपनी भावनाओं से बात करें, कैसे अपने भीतर के तूफानों को समझें। उसने एक NGO शुरू किया  “मनमंथन”  जहाँ युवा, महिलाएँ और बुज़ुर्ग अपने मन के विचलन को साझा कर पाते हैं, बिना किसी शर्म या डर के।

अब जब लोग उससे पूछते हैं  “कैसे हो?” तो वह मुस्कराकर कहता है “अब मैं सिर्फ चल नहीं रहा, जी रहा हूँ।”

यह कहानी अंश की थी  पर क्या हम सब के भीतर एक ‘अंश’ नहीं है? जो समाज के शोर में, जिम्मेदारियों के बोझ में, और रिश्तों के उलझाव में खुद को भूल गया है?

विचलन कोई दोष नहीं  वह एक निमंत्रण है, अपने भीतर झाँकने का। जब मन अशांत हो, तब उसे डाँटना नहीं चाहिए  बल्कि सहलाना चाहिए। “मन जब भी विचलित हो, उसे स्थिर करने की कोशिश मत करो उसे प्रेम दो, संवाद दो। वह खुद स्थिर हो जाएगा।”




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